सूचना

'सर्वहारा' में हिन्दी भाषा और देवनागरी लिपि में साहित्य की किसी भी विधा जैसे- कहानी, निबंध, आलेख, शोधालेख, संस्मरण, आत्मकथ्य, आलोचना, यात्रा-वृत्त, कविता, ग़ज़ल, दोहे, हाइकू इत्यादि का प्रकाशन किया जाता है।

सोमवार, 30 सितंबर 2013

ग़ज़ल

जब हमने परचम फहराया था ।
तब आँधियों ने बड़ा डराया था ।

हमें अपनों के होने का गुमाँ था,
परखा तो हर कोई पराया था ।

हर मुसिबत में बड़ी शिद्दत से,
दोस्ती का फ़र्ज़ निबाहया था ।

वो हो जाए क़ामयाब और नामवर,
इसीलिए हुनर अपना छुपाया था ।

उसकी रहमतें हैं, पर अब फ़िक्र है,
उसने कल ही एहसान जताया था ।

मंजिल पे पहुँचा हूँ तो याद अता है,
शख़्स जिसने रास्ता दिखाया था ।

न किया तूने एतबार तो क्या करें,
'तन्हा' ने तो तुझको बुलाया था ।

मोहसिन  'तन्हा'
अलीबाग 

रविवार, 29 सितंबर 2013

ग़ज़ल ( श्रद्धेय नरेंद्र दाभोलकर जी को श्रद्धांजलि )

     









ग़ज़ल   ( श्रद्धेय नरेंद्र दाभोलकर जी को  भीगी आँखों से श्रद्धांजलि )

ये उसके क़त्ल का ही बयान है ।
हमारे बीच अब भी शैतान है ।

झूँटे अक़ीदों की खिलाफ़ते जंग में,
सदा क्यों हारता रहा ईमान है ।

ये ख़ून जो घुला हुआ है मिट्टी में,
उसकी शहादत का निशान है ।

सुनकर तेरी जाँबाज़ी के क़िस्से,
रश्क कर रहा हिंदुस्तान है ।

राह दिखाती रहेगी रोशनाई,
साधना तेरी एक ज़ुबान है ।

क़ातिल क्यों मुँह छुपाता है,
तुझपर थूक रहा इंसान है ।

दहशतों से न दहलेगा दिल,
ये बुझदिली की पहचान है ।

तू हुआ शहीद हम हुए तन्हा
जाएँ कहाँ हर तरफ़ ढलान है । 
      
मोहसिन तन्हा
डॉ. मोहसिन ख़ान
सहायक प्राध्यापक हिन्दी 
जे.एस.एम. महाविद्यालय
अलीबाग (महाराष्ट्र) 402201

09860657970    

नज़्म

सभी बिछड़े दोस्तों के नाम  
     ‘मेरा यह पैग़ाम 

न तुमने कभी याद किया,


न हमने कभी याद किया । 


न हम भूले कभी तुम्हें, 


न तुम भूले कभी हमें । 


पर न जाने वो कौन सी शै है ,


जिसने दूर किया हमें,


न जाने दिल की वो कौन सी डोर है,


जो करती रही हमें कमज़ोर । 


गुज़रे ज़माने की सब बातें,


वक़्त के साथ फीकी पड़ती रहीं,


अब नए दौर की नई आफ़ते हैं । 


तुम भी हमारी तरह मुड़ गए वो मौड़,


जहाँ से सारे रास्ते बदल जाते हैं,


हम पीछे छूट जाते हैं,


और समझते हैं,


बहोत आगे निकल आए हैं । 


पर ऐ दोस्त ! मुसाफ़िर भी इक दिन,


आपस में टकराते हैं,


बिना पूछे ज़हन उनका पता भी देता है,


हम तो आख़िर दोस्त हैं,


कभी तो हमें नाइत्तेफ़ाकी में भी मिलना होगा,


तब शायद हम मिलेंगे इक दिखावे के साथ,


लेकिन दिल और ज़हन बराबर हमें,


अपनी बदली हुई तस्वीर को दिखा रहा होगा


और अंदर से आ रही होगी आवाज़,


सब झूँठ और दिखावा है ।  


तुम लौट जाओगे अपने घर,


अपनी दुनिया में,


बीवी बच्चों की खुशियों में,


कुछ दिन सोचोगे और 


भूल जाओगे,


क्योंकि 


अब तुम भी और हम भी,


दुनियादारी सीख गए हैं,


अब फ़ुरसत नहीं दोस्तों के लिए,


वो अब दुनिया भी न रही,


वो बातें, वादे भी नहीं रहे याद,


चलो ख़ैर कोई बात नहीं,


वक़्त अच्छा गुज़ारा था हमने साथ !!! 

मोहसिन 'तन्हा'

शनिवार, 28 सितंबर 2013

ग़ज़ल


          ग़ज़ल

आज मौसम में कितनी तन्हाई है ।
शायद हो रही कोई रुसवाई है ।

वो गर्म झोंका बनकर गुज़र गए,
अब चल रही ख़ुशनुमा पुरवाई है ।

हर किसी को अपनों में गीनते रहे,
जब परखा तो हर चीज़ पराई है ।  

वो बात जो बीत गई वक़्त के साथ,
क्या कहें अपनी कम ज़्यादा पराई है ।

पूछते हैं तन्हा से जिनका ईमाँ नहीं,
ऐ ! गुनाहगार तेरी कहाँ ख़ुदाई है ।  

मोहसिन तन्हा


अलिबाग़

ग़ज़ल


झूटों के बीच नाक़ाम हो गए ।
कइयों के सच्चे नाम हो गए ।

की ख़िलाफ़त तो हुए बेसहारा,
मेरे सिर कई इल्ज़ाम हो गए ।

जो देखा बेतक़ल्लुफ़ कह दिया,
कहते ही हम बदनाम हो गए ।  

देखते ही बुतख़ाना सिर झुका,
सबने कहा हम हराम हो गए ।

सच कहा तो मिल गए ख़ाक में,
और ऊँचे उनके मक़ाम हो गए ।  




               ग़ज़ल

चुप रहिये कुछ न कहिये मुस्कराते जाइए ।
ये दौर है ज़ुल्मों का बस सहते जाइए ।

कोई जौहर न दिखाए और न चिल्लाए,
वक़्त की धार के सहारे बहते जाइए ।

अब पाएदान औंधा है और रास्ते उल्टे,
चलिये तहख़ानों में उतरते जाइए ।

न हो कोई मज़हब और न ही कोई नाम,
जब भी लगे ख़तरा तो बदलते जाइए ।

काट ली जीने की सज़ा तो इक काम कीजे,
जो जी रहे हैं उनको तसल्ली देते जाइए ।

बढ़ रहे हैं मौत की तरफ़ हम भी तुम भी,
शमा की तरह जलते, पिघलते जाइए ।


ग़ज़ल


मुझको सहुलियतें न थीं,
उनको दिक्क़तें  न  थीं ।

हर शर्त पर सौदा तय हुआ,
चीज़ की  क़ीमतें  न  थीं ।

उनकी ज़िंदगी कितनी अजीब,
जिन्हें कोई  मुसीबतें  न थीं ।

हर बार बुलंदी उनको मिली,
जिनकी ठीक हरकतें न थीं ।

उनको यक़ीं की आदत नहीं,
क्या सच अपनी बातें न थीं



ग़ज़ल

काश के ये मजबूरियां न होतीं,
तो हम में ये दूरियां न होतीं ।

बहोत बिखरा हूँ बिछड़ने के बाद,
तेरे होने से ये दुशवारियां न होतीं ।

तू जो रहता पहलू में मेरे दिन-रात,
तो कैफ़ की ये ख़ुमारियां न होतीं ।


तू न होता गर उजालों के मानिन्द,
मेरी भी ये परछाइयां  न होतीं ।

तू भी कहता सच मेरी ही तरह, 
'तन्हा' से यूँ रुसवाइयां न होतीं ।

ग़ज़ल


हमको  तुम्हारी  कमी  लगने लगी ।
बदली - बदली ज़मीं  लगने  लगी ।

घर की हदों से बाहर किधर जाएँ,
हर शक्ल अजनबी लगने लगी ।

हर रुत से बेअसर बुत से क्यों हो गए,
सांसें रुकीं, धड़कन थमीं लगने लगी ।

इक तेरे होने से दिले-सुकून कितना था,
रूहे-ग़म की बेचैनी अब लगने लगी ।

ख़ुश्क मंज़र, ख़ुश्क सबा, ख़ुश्क मैं भी,
'तन्हा' फ़िर क्यों आँखों में लगने लगी ।
डॉ. मोहसिन तन्हा
सहा.प्राध्यापक हिन्दी
जे.एस.एम. महाविद्यालय,  

अलीबाग (महाराष्ट्र) 

ग़ज़ल

वो कमज़ोर करता है अपनी नज़र को ।
देखना  नहीं चाहता  अपने  घर को । 

अदब का माहिर है, लिखता- पढ़ता है,
उसकी क़ाबलियत  नहीं पता शहर को । 

उसका ज़हन कई दिनों रहता है बेचैन,
बादे दुआ देखता है बीवी की क़बर को ।  

पढ़ता है नमाज़ नियत का है ख़राब,
करेगा निकाह देखता नहीं उमर को ।

आसरा है कई परिंदों की शब का,
तुम गिरने न देना इस शाजर को ।

निकल पड़ता है शाम ही से तन्हा’,
कहाँ जाता है, लौटता है सहर को । 


              ग़ज़ल 

इक उम्र बीत गई तुमको पाने के लिए ।
अब तो जाँ बची है मेरी गँवाने के लिए ।

पढ़कर हथेलियाँ मेरी नजूमी कहता है,
लकीरें नहीं तुम्हारे उसे पाने के लिए ।

करदो हवाले लाश मेरी अपनी क़ौम के,
करलो दिखावा तुम भी ज़माने के लिए ।

तन्हा यह कहता है रोज़ सरपरस्तों से,
कोई तो वजह दो उसे भुलाने के लिए ।  



               ग़ज़ल

इक उम्र लगी है ख़ुद को बनाने में ।
तुम लगे हो क्यों मुझको मिटाने में ।

मैं लौट भी आता पास तेरे लेकिन,
अभी लगे हैं  रिश्ते  निबाहने  में ।

न रश्क़ करो, न इज़्ज़त अफ़जाई,
बड़े बदनाम थे पिछले ज़माने में ।

आवारगियों ने कुछ तो सिला दिया,
मस्जिद की जगह बैठे हैं मैख़ाने में ।

होता है उजाला तो तन ढँक लेते हैं,
एक ही चादर है औढ़ने-बिछाने में ।

बच्चों का देखकर मुँह ढीठ हो जाता हूँ,
वरना आती है शर्म हाथ फैलाने में ।  

तन्हा घर से चला था नमक लेकर,
राह में लुट गए झोलियाँ दिखाने में ।     



मोहसिन तन्हा

अलिबाग़

रविवार, 22 सितंबर 2013

ग़ज़ल

हमने ख़ुद ही आफ़त की,

जब भी नई उलफ़त की ।

औरों की तरह शाद होते,
अपने हाथों ये हालत की ।

बेगुनाहों का गुनहगार हूँ,
किसी से न अदावत की ।

न हूँ मैं संगदिल ऐ दोस्त,
ग़लती है मेरी आदत की ।

मैं ख़ाक, तुम रहो बुलंद,
फ़िक्र नहीं शोहरत की ।

छीनकर सब बख़्श दी जाँ,
क्या मिसाल दी रहमत की ।

सज़ा-ए-बुतपरसती बेखोफ़
हर शै में तेरी इबादत की ।

मैं हूँ बादाख़्वार, न मुसलमां
क्यों उठाने की ज़हमत की ।

दिल मेरा सामने तोड़ देते,
कर गए बात मोहलत की ।

तन्हा मुंतज़िर है सदियों से,
बात नहीं कहते क़यामत की ।
    
मोहसिन तन्हा

अलिबाग़

ग़ज़ल

ग़ज़ल

तुझको मेरी अब ख़बर कहाँ ।
एक राह का अब सफ़र कहाँ ।

जिसकी ख़ामोशी गुनगुनाती थी,
बातों में उसकी अब असर कहाँ ।

मैं न देखकर भी देख लेता हूँ,
उसकी ऐसी अब नज़र कहाँ ।

की अदावत सारी दुनिया से,
मेरी उसको अब क़दर कहाँ ।

तन्हा उताश ही रहता है सदा,
पहली सी अब अज़हर कहाँ ।


 ग़ज़ल


अबके जाने  कैसा  दौर हुआ है ।
आदमी कितना कमज़ोर हुआ है ।

सच की आवाज़ सुन नहीं सकते ,
झूटों का कितना शोर हुआ है ।

बचते हैं सब  हरेक  निगाह से,
इंसान क्यों आदमख़ोर हुआ है ।

कोइ रोशनी नहीं, बस्ती जलती है ,
किस क़दर धुँआ घनघोर हुआ है ।

फ़िज़ाओं में कैसा बारूद घुला है,
अब ये धमाका किस ओर हुआ है ।

इस कहानी का कोई अन्त नहीं,
यहाँ सिपाही ख़ुद चोर हुआ है ।

ग़ज़ल

ग़ज़ल 

क्यूंकर जीता हूँ परेशानी में,
बस  एक  बल है  पानी  में ।

दुनिया क्या समझेगी हाल मेरा,
वो जी ती है  अपनी  रवानी में ।

डर लगता है कहीं अब ढह न जाए,
नयी कील ठुकी दीवार पुरानी में । 

माँ पास होती तो आज पी जाती,
शल जो पड़े हैं कब से पेशानी में ।

वक़्त ने लिखा हक़ीक़त का फ़साना,
दिल न लगा पारियों की कहानी में ।

अबकी नस्ल में क्यों नहीं जोश,
हरेक लगता है बूढ़ा जवानी में ।

‘तन्हा’ था मर गया नामवर शायर,
दो क़लाम छोड़ गया निशानी में 


ग़ज़ल 

बाँट दिया बाप ने बच्चों को  घर,
कहकर ये तेरा घर, ये तेरा घर ।

हमारा क्या है आज हैं कल नहीं,
पड़े रहेंगे कभी इधर कभी उधर ।

ख़ुद पढ़ा न पाया अपने बच्चों को,
था बड़ा उस्ताद जानता है शहर ।

कमी न थी पहले ही नफ़रतों की,
बीवी ने तेरी घोल दिया ज़हर । 

'तन्हा'  मुंतज़िर है  मौत का अब 
जाने कब मिल जाए तुम्हें ख़बर । 


मोहसिन 'तन्हा'
अलीबाग़ 

मंगलवार, 17 सितंबर 2013

ग़ज़ल

ग़ज़ल -1

अबके मौसम में जो गिरा है शजर।
कितने पंछियों का उजड़ा है घर।

अब जंगल में नहीं बसते हैं साँप,
यहाँ जबसे बसने लगा है शहर।

उसकी ज़िन्दगी में भूख,प्यास थी,
मिटाने को उसे मारता है हुनर।

वतन की बुलंदी गिनाती सियासत,
पता नहीं ग़रीबों की कैसी है बसर।

तमाशाबीं देखते हैं तड़पते शख्स को,
'तन्हा' भूख से मरता है सड़क पर 





 

ग़ज़ल-2

जिसकी आवाज़ है आज़ान सी
क्यों इक सूरत है अनजान सी।

रोज़ अस्मत लुटती बाजारों में,
रहती हैं बेटियाँ परेशान सी।

आँगन में आई तो शक्ल दिखी,
माँ हो गई है घर के सामान सी।

ज़िंदा लाशों के बीच रहते हैं हम,
बस्तियाँ बन गईं कब्रस्तान सी।

हो जाती फ़नाह कबकी दुनिया,
कोई चीज़ बची है ईमान सी।

रिश्तों की तिजारत की सौदागिरी,
दुल्हन सजती है इक दुकान सी

'तन्हा' इल्तिजा करता ही गया,
कोई बात तो करो इन्सान सी 


डॉ. मोहसिन ख़ान
अलीबाग (महाराष्ट्र)
09860657970
07385663424
khanhind01@gmail.com