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मंगलवार, 29 दिसंबर 2015

15 कहानियों की परख

 धीरेन्द्र अस्थाना (मुंबई)         क्रमांक 3

कहानी - 'उस रात की गंध' 
पाठक संख्या : 20280
धीरेन्द्र आस्थाना की कहानी उस रात की गंधकहानी के स्तर से और कहन के स्तर से पहले की दो कहानियों की परख से कहीं श्रेष्ठ कहानी सिद्ध होती है। कारण इसका यह है कि विषय की दृष्टि से यह कहानी यथार्थ से एक मनोलोक की ओर ले जाती है, साथ ही यह कहानी बाहर से भीतर का प्रवेश कराती है। कहानी कई स्तरों पर फिट बैठती है, चाहे उसमें रूपकों का इस्तेमाल हो, चाहे चित्रात्मकता हो या बिंबों के माध्यम से सजीवता हो। हर प्रकार से कहानी की परख में यह कहानी अपने निजी और स्वतः रूप मे श्रेष्ठ सिद्ध हो जाती है। कहानी मुंबई शहर के उस मुखौटे को नोचकर अलग हटाती है, जिसे आम आदमी मुंबई को देखकर मतिभ्रम में पड़ा हुआ है कि- मुंबई मेरी जान!!! लेकिन इस चमक-दमक भरे शहर के आकर्षण और सपनों की साकारता की दुनिया के पीछे एक ऐसी दुनिया पनपी हुई है, जिसे देखकर हताशा, ऊब और कसेलापन ही हाथ लगता है। मुंबई में चोरी छिपे चल रहे अनियंत्रित देह व्यापार की हकीकत सामयिक यथार्थ को कहानी का प्लाट देती है, लेकिन इसके पीछे गरीबी मुख्य कारक बनकर उभरी है और जिसे लेखक ने बड़ी ही सौंदर्यपूर्ण शैली में उद्घाटित कर दिया है। कहानीकार भी पहले मुंबई के आकर्षण में गिरफ्त है और लगातार गिरफ्त ही रहता है, उसका भ्रम तब टूट जाता है जब वह जीवन की कटु सत्यता से टकराता है और देखता है कि शरीर, हवस, सौंदर्य और आकर्षण से भी अधिक कोई असरकारक स्वाद है, तो वह ज़हर जैसी ज़िंदगी का असर है और उस असर में एक कड़ुआपन गरीबी का घुला हुआ है।
कहानी का गठन इतना सहज और ज़ोरदार है कि कहानी पाठक के सामने बहती है और पाठक एक ही सांस में कहानी में डूबकर उसे पी लेता है, कहानी में कहीं भी व्यावधान या अनुत्तरित प्रश्न नहीं छूटते हैं। यही एक बेहतर कहाई और कहानीकार की निशानी है। कहानी में आकर्षण के साथ कौतूहल बराबर बना हुआ है, जो कहानी को चरम सीमा पर लेजाकर पाठक को अपनी संपूर्णता में अंत की तरफ ले जाता है। कहानी में जो बिम्ब खींचे गए हैं, वह लाजवाब मानने चाहिए जैसे- “कोहरा आसमान से झर रहा था। हमेशा की तरह नि:शब्द और गतिहीन”, “वह लड़की गीले अंधेरे में चारों तरफ दूधिया रोशनी की तरह चमक रही थी”, “दूर तक कई कारें एक-दूसरे से सम्मानजनक दूरी बनाए खड़ी थीं – मयखानों की शक्ल में” ऐसे बिम्ब कहानी को और भी अधिक स्पष्ट करने के साथ कहानी में नए प्रयोगों की संभावना को बड़ा देते हैं। अंतिम के बिम्ब में आस्थाना जी ने यथार्थ को ऐसी शक्ल दी है जिसे मुंबई के उस इलाके के लिए जहां कथा आकार ले रही है स्थायी बिम्ब के रूप में देखा जा सकता है। इसके अतिरिक्त भाषा का जो प्रवाह है वह अपने आप में सहज और बहुत तरलता लिए हुए है। संवादों में मुंबई की भाषा का सहज भाव और टोन का इस्तेमाल कहानी को और भी गठन प्रदान करता है, संवादों का ऐसा जोरदार प्रयोग है कि पत्रों के मूड का भी पता देता है, उनके भीतर की चिढ़, आक्रोश और एक चिंता को अभिव्यक्त कर देता है। कहानी के लिए सबसे अधिक महत्व की बात यह है कि यह पाठकों में समाज के यथार्थ को अवगत कराने के साथ एक अनाम चिंता में डालकर मन में संवेदना पैदा करने के साथ एक बेचैनी भर देती है। कहानी में मार्मिकता है जो मानवी जीवन की छुपी हुई हकीकत को उजागर करती है। औरत की गंध का सबके लिए अलग अनुभव हो सकता है और उस गंध की बसाहट भीतर कहीं चिपक सी जाती है, जिसे समय रहते आदमी महसूस भी करता है। कहानीकार एक ऐसी तीखी विषाक्त गंध साथ लिए आता है, जिससे मन में ग्लानियुक्त हवस की उबकाई आजाए।

मूल कहानी इस लिंक http://www.pratilipi.com/blog/4565453695352832 पर पढ़िये।
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©डॉ.मोहसिन ख़ान
हिन्दी विभागाध्याक्ष एवं शोध निर्देशक
जे.एस.एम. महाविद्यालय,
अलीबाग – 402 201
(महाराष्ट्र)     

15 कहानियों की परख

 मृदुल पाण्डेय                क्रमांक 2

कहानी - 'चीनी कितने चम्मच' 
पाठक संख्या : २६७८४ 
मृदुल पाण्डेय की कहानी चीनी कितने चम्मचभारत में पुरुषों की तथा भारतीय परिवार की मानसिकता में स्त्री के प्रति बाज़ारवादी रवैये को चोट पहुंचाती एक घटना को केन्द्रित करती लघु कहानी है। यह कहानी लघु है, लेकिन संदेशात्मक मारक क्षमता में कहीं कमी न आने पाई है, एक लड़की को किस प्रकार बाज़ार के तौर-तरीकों से परिवार के सदस्यों द्वारा विवाह के लिए पेश किया जाता है और उससे उसकी मानशा, चुनाव के अधिकारों से वंचित रखकर उसे नमूना एवं वस्तु से अधिक नहीं समझा जाता है। कहानी भारतीय रूढ़िवादिता से टकराती है और इस टकराव में एक प्रहार छिपा है, जो समय की मांग को पहचान रहा है, भारतीय रूढ़िवादिता की ज़मीन को कुरेद रहा है। कहनी भारतीय परिवार की उस दशा को चित्रित करती है, जहाँ बेटियों को बोझ समझा जा रहा है और बेटे की चाह में बच्चे पैदा करने का पुरुष हर बार चांस ले रहे हैं और विफल होने पर स्त्री जाति को दोष देते हुए, उनके प्रति हिंसात्मक व्यवहार करते रहना है। यह कहानी स्त्री जीवन की पीड़ाओं को व्यक्त करने के साथ उनकी आश्रितता, नई पीढ़ी के विद्रोह और आत्मनिर्भरता को भी दर्शाती है। नई पीढ़ी जिसे अनियंत्रित और अनुभवहीन समझकर सतही तौर पर लिया जाता है और उनके सपनों पर अंकुश लगाया जाता है। यह ऐसे अंकुशों को ढीला करते हुए, स्त्री मुक्ति की दास्तां का एक पृष्ठ रच रही है।


कहानी की शुरूआत एक उत्सुकता से हुई, लेकिन जहाँ नायिका रुचि मिश्रा जो बैंक ऑफ विमेन्स की ज़ोनल हैड है, उससे नायक का बातों की औपचारिक शुरूआत न दर्शाना कहानी में एक गैप पैदा करता है, जो कि कहानी का कमज़ोर हिस्सा बनता है और यहीं कहानी असहज सी दिखाई देती है। औपचारिकता को नज़रअंदाज़ करके सीधे नायिका के आंतरिक जीवन में प्रवेश कर जाना, मुझे लगता है यह कहानी को कुछ अधूरा सा बना रहा है एक गैप को रच रहा है। कहानी में ट्रेन के किस तरह के कोच में रिज़र्वेशन है? क्या वह स्लीपर क्लास है या AC का कोई कोच ? यह न दर्शा पाना कहानी को हवा में चलाने जैसा बना रहा है, क्योंकि कोच के आधार पर कहानी के वातावरण की रचना होनी थी, जो हो न पाई और इससे कहानी यथार्थ से गमन करती नज़र आती है। इस कहानी के आंतरिक गठन की एक कमी यह भी मान रहा हूँ कि ट्रेन के कोच की सीटों की स्थिति के विषय में और स्पष्ट हो जाता, तो बेहतर होता क्योंकि बगल वाली सीट दर्शाकर पूरी 8 सीटों में से ठीक सीट का संज्ञान पाठक नहीं ले पाता है कि किस सीट पर बैठकर कहानी चल रही है, उनकी अवस्था किस प्रकार की है? और अगल-बगल बैठे लोग क्या इनके संवादों के प्रति उपेक्षित हैं? अथवा रुचि ले रहे हैं? अक्सर होता यह है कि दो युवा विपरीत लिंगियों के प्रति न चाहते हुए भी यात्रियों की दृष्टि पड़ती ही है और उनकी बातों पर वे कान देते ही हैं। इस अवस्था से मुक्त यह कहानी लाउड संवादों की सृष्टि कर रही है, ऐसा लगता है बोगी में केवल वह दोनों ही हैं और कोई नहीं। यह एक रिक्तता कहानी को विच्छेदित करती है। कहानी के कहन के तौर पर एक अटपटी सी पंक्ति सामने आती है- “पेंट्री बॉय चाय दे गया था, चाय बनाते हुए अचानक मेरे मुँह से निकला।” मुझे लगता है पेंट्री बॉय बनी हुई चाय दे गया होगा, क्योंकि अक्सर ट्रेन में चाय डीप वाली मिलती है या बनी हुई। क्रियात्मक रूप में उसे चाय बनाना कभी नहीं कहा जाता है, उसे डीप करना कहा जाता है। कहानी केवल बात को कह देना भर मेरी नज़र में कहानी नहीं, बल्कि एक ऐसे वातावरण को उभार देना है, जिसमे कहानी अपनी सहज गति से चले और चित्रात्मकता आँखों के सामने ला दे, कई बिंबों का निर्माण करदे और पाठक को सजीव सी लगाने लगे। कहन के लहजे का भी अवसर कहानीकार को निकालना होता है, जो मूल कहानी को और भी पुख्ता करता है। ऐसी कहानी ही मन पर छाप छोड़ देती है। यह कहानी मन पर छाप छोड़ने की दृष्टि से सफल नहीं हो पाई है। कहानी का सीधे सीधे चलकर एक सदेश के रूप मे समाप्त होजाना कहानीकार कहानी के कहनीपन को रच न पाया। ये कहानी, कहानी के अंश को लिए हुए है, लेकिन कहानी के तौर पर कम नज़र आती है। कहानी की बुनावट आत्मकथात्मक शैली में है और सपाटबयानी के रूप में अभिव्यक्त हुई है। भाषा का गठन और प्रवाह पात्रानुकूल सा ही है, जो कहानी को सपाट बनाता है।

मूल कहानी इस लिंक http://www.pratilipi.com/blog/4565453695352832 पर पढ़िये।
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©डॉ.मोहसिन ख़ान
हिन्दी विभागाध्याक्ष एवं शोध निर्देशक
जे.एस.एम. महाविद्यालय,
अलीबाग – 402 201
(महाराष्ट्र)