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रविवार, 30 जून 2019

जन्मदिन पर (ओमप्रकाश वाल्मीकि) 30 जून अब और नही-कविता विशेष पड़ताल 
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ओमप्रकाश वाल्मीकि-परिचय 
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ओमप्रकाश वाल्मीकि का जन्म 30 जून 1950 को ग्राम बरला, जिला मुजफ्फरनगर, उत्तर प्रदेश में हुआ। आपका बचपन सामाजिक एवं आर्थिक कठिनाइयों में बीता।
आपने एम. ए तक शिक्षा ली। पढ़ाई के दौरान उन्हें अनेक आर्थिक, सामाजिक और मानसिक कष्ट व उत्पीड़न झेलने पड़े।
वाल्मीकि जी जब कुछ समय तक महाराष्ट्र में रहे तो वहाँ दलित लेखकों के संपर्क में आए और उनकी प्रेरणा से डा. भीमराव अंबेडकर की रचनाओं का अध्ययन किया। इससे आपकी रचना-दृष्टि में बुनियादी परिवर्तन आया।
अप देहरादून स्थित आर्डिनेंस फैक्टरी में एक अधिकारी के पद से पदमुक्त हुए। हिंदी में दलित साहित्य के विकास में ओमप्रकाश बाल्मीकि की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। आपने अपने लेखन में जातीय-अपमान और उत्पीड़न का जीवंत वर्णन किया है और भारतीय समाज के कई अनछुए पहलुओं को पाठक के समक्ष प्रस्तुत किया है। आपका मानना है कि दलित ही दलित की पीडा़ को बेहतर ढंग समझ सकता है और वही उस अनुभव की प्रामाणिक अभिव्यक्ति कर सकता है। आपने सृजनात्मक साहित्य के साथ-साथ आलोचनात्मक लेखन भी किया है।
आपकी भाषा सहज, तथ्यपूर्ण और आवेगमयी है जिसमें व्यंग्य का गहरा पुट भी दिखता है। नाटकों के अभिनय और निर्देशन में भी आपकी रुचि थी। अपनी आत्मकथा जूठन के कारण आपको हिंदी साहित्य में पहचान और प्रतिष्ठा मिली। 1993 में डा० अंबेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार और 1995 में परिवेश सम्मान, साहित्यभूषण पुरस्कार से अलंकृत किया गया।
17 नवंबर 2013 को देहरादून में आपका निधन हो गया।
आपकी प्रमुख रचनाएँ हैं- सदियों का संताप, बस ! बहुत हो चुका (कविता संग्रह), सलाम (कहानी संग्रह) तथा जूठन (आत्मकथा), घुसपैठिए दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र (आलोचना)।
रचनाकार:
ओमप्रकाश वाल्मीकि

ओमप्रकाश वाल्मीकि उन शीर्ष साहित्यकारों में से एक हैं जिन्होंने अपने सृजन से साहित्य में सम्मान व स्थान पाया है। आप बहुमुखी प्रतिभा के धनी है। आपने कविता, कहानी, आ्त्मकथा व आलोचनात्मक लेखन भी किया है।
अपनी आत्मकथा "जूठन" से विशेष ख्याति पाई है। जूठन में आपने अपने और अपने समाज की पीड़ा का मार्मिक वर्णन किया है।
'जूठन' का अनेक भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। जूठन के अलावा उनकी प्रसिद्ध पुस्तकों में "सदियों का संताप", "बस! बहुत हो चुका" ( कविता संग्रह) तथा "सलाम" ( कहानी संग्रह ) दलित साहित्य का सौन्दर्य शास्त्र (आलोचना) इत्यादि है।
17 नवंबर 2013 को देहरादून में आपका निधन हो गया।
“अब और नहीं”
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ओमप्रकाश वाल्मीकि की कविता 'अब और नहीं' प्रतिनिधि कविता है, जिसके अंतर्गत ओमप्रकाश वाल्मीकि ने क्रांति का आह्वान किया है। यह क्रांति मनुवादी व्यवस्था के विरुद्ध है, सनातनी परंपरा के विरुद्ध है, यह क्रांति असमानता के विरुद्ध है, सामंतवाद के विरुद्ध है, यह क्रांति लोकतांत्रिक व्यवस्था को स्थाई तौर पर लागू करने के लिए है, यह क्रांति अस्पृश्यता, अन्याय, अत्याचार और मानवता की दुहाई की क्रांति है। कवि ने अपनी कविता में दलित समाज की समस्याओं को रखते हुए कविता में विद्रोह, संघर्ष और चुनौतियों की बात की है। विद्रोह जब तक नहीं होगा तब तक अन्याय अत्याचार से मुकाबला नहीं किया जाएगा और दलित समाज को जो चुनौतियां निरंतर मिल रही है उन चुनौतियों को मिटाने के लिए साहस और क्रांति का ही सहारा लेना होगा। इसलिए कवि ने इन महत्वपूर्ण तत्वों को अपनी कविता में स्थान दिया है। दलित समाज जो निरंतर सवर्ण समाज से संघर्ष कर रहा है, ऐसे समाज के प्रति वह खुलकर विद्रोह करते हैं और उनके खिलाफ खड़े हुए दिखाई देते हैं। इसका साफ़ साफ़ कारण यह है कि यह समाज में समानता, न्याय की भावना स्थापित करना चाहते हैं और दलित समाज के अस्तित्व को उभारना चाहते हैं। कवि ओमप्रकाश वाल्मीकि अपनी कविता में इन्हीं स्थितियों को खुले रूप में उजागर करते हैं।
1. विद्रोह और चुनौतियाँ-
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'अब और नहीं' कविता ओमप्रकाश वाल्मीकि की एक क्रांतिकारी और विद्रोही कविता मानी जा सकती है। इस कविता के माध्यम से कवि ने विद्रोह करने की भावना दलित समाज में जागृत करने का प्रयास किया है। दलित समाज जो बरसों से दबा कुचला और हाशिए पर फेंक दिया गया है, उसे विद्रोह के माध्यम से ही मुख्यधारा में जोड़ा जा सकता है। विद्रोह सवर्ण के प्रति, सनातनी व्यवस्था के प्रति, मनुवादी व्यवस्था के प्रति किया जा रहा है, जहां ऊंच-नीच की भावना, छुआछूत की भावना, जातिगत भावना अपने विशुद्ध रूप में मौजूद है। कवि ऐसी ही असमानता की भूमि को तोड़ना चाहता है और उसकी भूमि में समानता के बीज बोना चाहता है। समानता के बीच तब उग सकेंगे तब जब विद्रोह किया जाए। कवि के सामने बहुत सारी चुनौतियां हैं, सबसे बड़ी चुनौती मानवता की चुनौती है एक व्यक्ति को व्यक्ति न मानकर उसे निकृष्ट जानवर से भी बुरा माना जा रहा है। ऐसी स्थितियों को ओमप्रकाश वाल्मीकि समाप्त कर देने के लिए विद्रोह करने की भावना समक्ष रखते हैं। दलित समाज के समक्ष बहुत सी चुनौतियां हैं, चाहे जातिगत स्तर पर हो और अस्पृश्यता के स्तर पर, सामाजिक, आर्थिक स्तर पर समानता के स्तर पर धर्म भेद के स्तर पर या अन्य किसी स्तर पर इन सभी चुनौतियों का सामना दलित समाज को वर्षों से करना पड़ रहा है। इसीलिए ऐसी स्थितियों को मिटाने के लिए कभी अपनी कविता में विद्रोह का स्वरूप हारता है और दर्शाता है कि जब तक विद्रोह नहीं किया जाएगा इन चुनौतियों से मुकाबला नहीं किया जा सकता है। इन चुनौतियों का सामना विद्रोह के माध्यम से करना होगा और समाज में समानता और अधिकार की भावना को स्थापित करना होगा, इसीलिए कवि कहता है-
"आंख मिचौली खेलने का समय नहीं है यह
संभल-संभलकर कदम रखने वाले भी
मारे जाएंगे फर्जी मुठभेड़ों में
या फिर सांप्रदायिक दंगों में।"
2. साहस, संघर्ष और सामर्थ्य-
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दलित समाज जो सवर्ण समाज से वर्षों से प्रताड़ना सह रहा है, पीड़ा को सह रहा है, बाध्यता को झेल रहा है, ऐसे दलित समाज के अस्तित्व को भयानक खतरा उपस्थित हुआ है। अब दलित समाज संगठित होकर सामने आया है, परंतु कवि दर्शाता है कि मन में से तुम्हें हीनता की भावना को बाहर करना होगा और अपने आप को सामर्थ्यशाली घोषित करना होगा। यदि आपने अपने अस्तित्व और सामर्थ्य को नहीं तलाशा तो विद्रोह और क्रांति कभी नहीं की जा सकती है। इसलिए कवि अपने दलित समाज को उभारने के लिए साहस की बात भी कविता में करता है। यदि साहस की भावना क्रांतिकारियों के भीतर नहीं होगी तो कभी भी क्रांति नहीं की जा सकती है। क्रांति का संबल ही साहस होता है कवि ओमप्रकाश वाल्मीकि इसी साहस को दलित समाज के लोगों के सामने रखते हैं और कहते हैं कि भीतर से हीनता की ग्रंथि को बाहर निकाल कर फेंक दो साहस के साथ सामर्थ लाओ और फिर क्रांति करो क्योंकि हमारे सामने बहुत सी चुनौतियां मौजूद हैं। सकनघर्ष से ही इन चुनौतियों का सामना करना होगा। अपने को बचाने बनाए रखने के लिए आज संगठन, संघर्ष और सामर्थ्य की आवश्यकता है। कवि उस स्थिति को दर्शाता है जिसमें दलित समाज को एक गंदीगी के कीड़े के समान माना जाता है और इससे ज्यादा कुछ नहीं अपने अस्तित्व की तलाश के लिए वह अपरिमित धैर्य और साहस को क्रांति के माध्यम से सामने लाना चाहते हैं और सबसे महत्वपूर्ण बात साहस की करते हैं वे लिखते हैं-
"गंदगी के ढेर में किलबिलाते कीड़ों की तरह
खामोश जी कर भी क्या मिला
होठों की मुक्त हँसी
और उंगलियों का की सहज स्निग्धता
कहां गई
अदम्य साहस और अपरिमित धैर्य
रक्त की गर्म धारा बनकर बह गये
बरसाती गंदले पानी की तरह
या चिरायंध फैलाकर जल गये
अकस्मात लगी आग में।"
3. क्रांति और प्रगतिशीलता-
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'अब और नहीं' कविता जहां विद्रोह, चुनौती, साहस और सामर्थ्य की बात करती है, वहां क्रांति और प्रगतिशीलता को अपनी प्रमुखता के सामने कविता में रखती है। दलित समाज को मान-सम्मान तथा अस्तित्व की प्रबलता दिलाने के लिए क्रांति ही एक ऐसा मार्ग है, जिसके द्वारा इसे कायम किया जा सकता है। कवि इस बात को बहुत ठीक तरीके से जानता है कि बिना क्रांति के कुछ भी संभव नहीं है। चाहे यह क्रांति राजनीतिक स्तर पर हो, सामाजिक स्तर पर हो या अन्य किसी स्तर पर, क्रांति बेहद जरूरी है। दलित समाज जो बरसों से दबा, कुचला समाज है जिसे वर्षों से चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, जो वर्षों से दहशत के बीच जी रहा है, इन सब से मुक्ति करने के लिए केवल साहस, धैर्य, सामर्थ्य ही नहीं, बल्कि इन सबका मिला-जुला रूप बनाकर हमें क्रांति की ओर अग्रसर होना होगा यही क्रांति हमें प्रगतिशीलता के पथ पर ले जाएगी वरना हम समाज के हाशिए के लोग जो बरसों से हाशिए पर हैं, पड़े रहेंगे समाज के हाशिए पर ही। कवि ओमप्रकाश वाल्मीकि ने अपनी कविता 'अब और नहीं' में इसी प्रकार से क्रांति की बात करते हुए प्रगतिशीलता के दायरे को विश्व सभ्यता से जोड़ने का प्रयास किया है और दर्शाया है कि मानव केवल मानव ही है और यह समानता ही समाज को प्रगतिशील समाज बना सकती है। उनकी दृष्टि में क्रांति करना विद्रोह करना जरूरी है कारण इसका यह है कि अमानवीय स्थितियां समाज में इतनी उत्पन्न हो गई है कि इन अमानवीय स्थितियों को समाप्त करना अब बेहद जरूरी हो गया है। क्रांति ही एक ऐसा हथियार है जिससे दलित समाज को इंसाफ दिलाया जा सकता है। क्रांति के बिना किसी भी तौर पर दलित समाज का उद्धार संभव नहीं है इसलिए ओमप्रकाश वाल्मीकि लिखते हैं-
"हजारों साल का मैल
रगड़-रगड़कर निकालने में
समय जाया मत करो
भीड़ भरी सड़कों पर
यातायात के बीच अपनी जगह बनाकर
रुकने का संकेत पाने से पहले
लाल बत्ती का चौराहा पार करना है।"
4. अस्तित्व की पुकार-
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'अब और नहीं' कविता अपने अंतिम चरण में अस्तित्व की पुकार की बात करती है। अस्तित्व दलित समाज का अस्तित्व, अस्तित्व मानवता का अस्तित्व, अस्तित्व समानता का अस्तित्व, अस्तित्व अस्पृश्यता से मुक्ति का अस्तित्व, अस्तित्व अन्याय से न्याय का अस्तित्व 'अब और नहीं' कविता अस्तित्व को प्रमुखता देती है और दर्शाती है कि यदि हमारे अस्तित्व को मिटाने का प्रयास किया गया तो हम विद्रोह करते हुए क्रांति करेंगे। दलित कविता का एक प्रमुख हथियार अस्तित्व की रक्षा करने के लिए विद्रोह करना है और यह विद्रोह मानवता की स्थापना के लिए विद्रोह है न कि केवल विद्रोह के लिए विद्रोह। ओमप्रकाश वाल्मीकि अपनी कविता में दलित समाज के अस्तित्व को उभारने के प्रयास के साथ-साथ दलित समाज को मुख्यधारा में लाने की बात करते हैं। वह कहते हैं कि हम से बरसों से अस्पृश्यता का अन्याय, अत्याचार, पीड़ा, त्रास, घुटन सवर्ण समाज से सहते आए हैं, अब और नहीं हो सकता है यह काला कारनामा या दहशतगर्दी का खेल। अब इसे समाप्त ही होना होगा। सवर्ण समाज, सनातनी व्यवस्था और मनुवादी व्यवस्था ने दलित समाज को हाशिए पर धकेल ने के साथ उन्हें बहुत अधिक त्रास, पीड़ा और घुटन दी तथा समाज से कटे रहने के लिए मजबूर किया। आर्थिक स्तर पर, सामाजिक स्तर पर, धार्मिक स्तर पर इनसे भेदभाव करने के साथ-साथ जातिगत स्तर पर अस्पृश्यता को बहुत अधिक मात्रा में बढ़ावा सवर्ण समाज ने दिया। आज इसी बाध्यता के कारण दलित समाज को क्रांति करना पड़ रही है, क्योंकि उनका अस्तित्व अब खतरे में है। इस खतरे से उभरने के लिए दलित समाज अस्तित्व की पुकार लगाता है और ओमप्रकाश वाल्मीकि अपनी कविता में अस्तित्व को तलाश करते हुए नजर आते हैं। ओमप्रकाश वाल्मीकि कहते हैं कि वर्षों से जब भी हम से बात की गई उस बात करने में पर प्रलाप और छद्म था। अर्थहीन तर्क और बेतुके शब्दों का इस्तेमाल हमारे साथ किया जा चुका है। इसी कारण दलित समाज में निराशा और हताशा छाई हुई है इसी निराशा और हताशा से पीछा छुड़ाने तथा इसे तोड़ने के लिए ओमप्रकाश वाल्मीकि कविता के माध्यम से आगे आते हैं और दर्शाते हैं कि जिस तरह से समन समाज ने चतुर्दिक चतुराई भरे शब्दों का प्रयोग हमारे साथ किया और हमारे अस्तित्व को समाप्त करने का प्रयास किया अब और नहीं हो सकता है यह खेल। वे अपनी कविता में इस स्थिति को उजागर करते हुए लिखते हैं-
"छद्मवेशी शब्दों का प्रलाप जारी है
सुन चुके अर्थहीन तर्क भी
बहुत दिन जी चुके हताशा और नैराश्य के बीच
कलाबाज़ियों और चतुराई भरे शब्दों का
खेल हो चुका
अब और नहीं
तय करना होगा
कहां खड़े हो तुम
साये या धूप में!"
ओमप्रकाश वाल्मीकि की प्रतिनिधि कविता 'अब और नहीं' उस स्थिति को दर्शाती है जिसमें सवर्ण समाज सनातनी व्यवस्था और मनुवादी व्यवस्था ने दलित समाज को कितनी अधिक चुनौतियां प्रदान की हैं। कितना अधिक उन्हें बाध्य किया है। कितना अधिक उनपर अत्याचार किया है। ऐसी तमाम स्थितियां हमें इस कविता में नजर आती हैं, लेकिन इस स्थिति को तोड़ने के लिए ओमप्रकाश वाल्मीकि 'अब और नहीं' जैसी कविता रचते हैं और दर्शाते हैं कि विद्रोह हमें करना होगा सवर्णों के खिलाफ अपनी जातिगत अस्तित्व को बचाने के लिए संघर्ष करना होगा और जिन चुनौतियों का सामना हमें करना पड़ रहा है उनसे बराबर निपटना होगा। इसके लिए साहस और सामर्थ्य की जरूरत है। सब लोग संगठित हो संघर्ष करें और ऐसी भयानक स्थिति को समाप्त करदें। कवि ओमप्रकाश वाल्मीकि ऐसी भयानक स्थिति को क्रांति के मार्ग के द्वारा समाप्त करना चाहते हैं और अपने अस्तित्व की तलाश करते हुए सावन समाज से खुलकर संघर्ष करते हैं और विद्रोह करते हैं।