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रविवार, 27 नवंबर 2016

कविता

1. कुछ समुदाय हुआ करते हैं  ( रोहित वेमुला को समर्पित )
सुशांत सुप्रिय

                                                          
कुछ समुदाय हुआ करते हैं
जिनमें जब भी कोई बोलता है
' हक़ ' से मिलता-जुलता कोई शब्द
उसकी ज़ुबान काट ली जाती है,
जिनमें जब भी कोई अपने अधिकार माँगने
उठ खड़ा होता है
उसे ज़िंदा जला दिया जाता है। 

कुछ समुदाय हुआ करते हैं
जिनके श्रम के नमक से
स्वादिष्ट बनता है औरों का जीवन
किंतु जिनके हिस्से की मलाई
खा जाते हैं,
कुल और वर्ण की श्रेष्ठता के
स्वयंभू ठेकेदार कुछ अभिजात्य वर्ग। 


सबसे बदहाल, सबसे ग़रीब
सबसे अनपढ़ , सबसे अधिक
लुटे-पिटे करोड़ों लोगों वाले
कुछ समुदाय हुआ करते हैं,
जिन्हें भूखे-नंगे रखने की साज़िश में
लगी रहती है एक पूरी व्यवस्था। 

वे समुदाय
जिनमें जन्म लेते हैं बाबा साहेब अंबेडकर
महात्मा फुले और असंख्य महापुरुष
किंतु फिर भी जिनमें जन्म लेने वाले
करोड़ों लोग अभिशप्त होते हैं,
अपने समय के खैरलाँजी या मिर्चपुर की
बलि चढ़ जाने को। 

वे समुदाय
जो दफ़्न हैं
शॉपिंग माॅल्स और मंदिरों की नींवों में
जो सबसे क़रीब होते हैं मिट्टी के
जिनकी देह और आत्मा से आती है,
यहाँ के मूल बाशिंदे होने की महक
जिनके श्रम को कभी पुल, कभी नाव-सा
इस्तेमाल करती रहती है,
एक कृतध्न व्यवस्था
लेकिन जिन्हें दूसरे दर्ज़े का नागरिक
बना कर रखने के षड्यंत्र में
लिप्त रहते हैं कई वर्ग। 


आँसू, ख़ून और पसीने से सने
वे समुदाय माँगते हैं,
अपने अँधेरे समय से
अपने हिस्से की धूप
अपने हिस्से की हवा
अपने हिस्से का आकाश
अपने हिस्से का पानी
किंतु उन एकलव्यों के
काट लिए जाते हैं अंगूठे
धूर्त द्रोणाचार्यों के द्वारा। 

वे समुदाय
जिनके युवकों को यदि
हो जाता है प्रेम
समुदाय के बाहर की युवतियों से,
तो सभ्यता और संस्कृति का दंभ भरने वाली
असभ्य सामंती महापंचायतों के मठाधीश
उन्हें दे देते हैं मृत्यु-दंड। 

वे समुदाय
जिन से छीन लिए जाते हैं
उनके जंगल, उनकी नदियाँ , उनके पहाड़
जिनके अधिकारों को रौंदता चला जाता है,
कुल-शील-वर्ण के ठेकेदारों का तेज़ाबी आर्तनाद। 

वे समुदाय जो होते हैं
अपने ही देश के भूगोल में विस्थापित
अपने ही देश के इतिहास से बेदख़ल
अपने ही देश के वर्तमान में निषिद्ध
किंतु टूटती उल्काओं की मद्धिम रोशनी में,
जो फिर भी देखते हैं सपने
विकल मन और उत्पीड़ित तन के बावजूद
जिन की उपेक्षित मिट्टी में से भी
निरंतर उगते रहते हैं सूरजमुखी। 

सुनो द्रोणाचार्यो
हालाँकि तुम विजेता हो अभी
सभी मठों पर तैनात हैं,
तुम्हारे ख़ूँख़ार भेड़िए
लेकिन उस अपराजेय इच्छा-शक्ति का दमन
नहीं कर सकोगे तुम
जो इन समुदायों की पूँजी रही है सदियों से
जहाँ जन्म लेने वाले हर बच्चे की
आनुवंशिकी में दर्ज है,
अन्याय और शोषण के विरुद्ध
प्रतिरोध की ताक़त। 

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 2. मासूमियत
                                   
मैंने अपनी बाल्कनी के गमले में
वयस्क आँखें बो दीं
वहाँ कोई फूल नहीं निकला
किंतु मेरे घर की सारी निजता
भंग हो गई। 

मैंने अपनी बाल्कनी के गमले में
वयस्क हाथ बो दिए
वहाँ कोई फूल नहीं निकला
किंतु मेरे घर के सारे सामान
चोरी होने लगे। 

मैंने अपनी बाल्कनी के गमले में
वयस्क जीभ बो दी
वहाँ कोई फूल नहीं निकला
किंतु मेरे घर की सारी शांति
खो गई। 

हार कर मैंने अपनी बाल्कनी के गमले में
एक शिशु मन बो दिया
अब वहाँ एक सलोना सूरजमुखी
खिला हुआ है। 
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3. जो नहीं दिखता दिल्ली से
                              
बहुत कुछ है जो
नहीं दिखता दिल्ली से,

आकाश को नीलाभ कर रहे पक्षी और
पानी को नम बना रही मछलियाँ
नहीं दिखती हैं दिल्ली से। 

विलुप्त हो रहे विश्वास
चेहरों से मिटती मुस्कानें
दुखों के सैलाब और
उम्मीदों की टूटती उल्काएँ
नहीं दिखती हैं दिल्ली से। 

राष्ट्रपति भवन के प्रांगण
संसद भवन के गलियारों और
मंत्रालयों की खिड़कियों से,
कहाँ दिखता है सारा देश,

मज़दूरों-किसानों के
भीतर भरा कोयला और
माचिस की तीली से,
जीवन बुझाते उनके हाथ
नहीं दिखते हैं दिल्ली से,

मगरमच्छ के आँसू ज़रूर हैं यहाँ
किंतु लुटियन का टीला
ओझल कर देता है आँखों से
श्रम का ख़ून-पसीना और
वास्तविक ग़रीबों का मरना-जीना। 

चीख़ती हुई चिड़ियाँ
नुचे हुए पंख
टूटी हुई चूड़ियाँ और
काँपता हुआ अँधेरा
नहीं दिखते हैं दिल्ली से। 

दिल्ली से दिखने के लिए
या तो मुँह में जयजयकार होनी चाहिए
या फिर आत्मा में धार होनी चाहिए। 
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4. कठिन समय में
                       
बिजली के नंगे तार को छूने पर
मुझे झटका लगा
क्योंकि तार में बिजली नहीं थी। 

मुझे झटका लगा इस बात से भी कि
जब रोना चाहा मैंने तो आ गई हँसी
पर जब हँसना चाहा तो आ गई रुलाई। 

बम-विस्फोट के मृतकों की सूची में
अपना नाम देख कर फिर से झटका लगा मुझे :
इतनी आसानी से कैसे मर सकता था मैं,

इस भीषण दुर्व्यवस्था में
इस नहीं-बराबर जगह में
अभी होने को अभिशप्त था मैं ...
जब मदद करना चाहता था दूसरों की
लोग आशंकित होते थे यह जानकर
संदिग्ध निगाहों से देखते थे मेरी मदद को
गोया मैं उनकी मदद नहीं
उनकी हत्या करने जा रहा था। 

बिना किसी स्वार्थ के मैं किसी की मदद
कैसे और क्यों कर रहा था
यह सवाल उनके लिए मदद से भी बड़ा था

ग़लत जगह पर सही काम करने की ज़िद लिए
मैं किसी प्रहसन में विदूषक-सा खड़ा था!!!

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रचनाकर का परिचय 
नाम : सुशांत सुप्रिय
जन्म : 28 मार्च , 1968 शिक्षा : अमृतसर ( पंजाब ) , व दिल्ली में ।
प्रकाशित कृतियाँ :
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# हत्यारे ( 2010 ) , हे राम ( 2013 ) , दलदल ( 2015 ) : तीन कथा - संग्रह ।
# इस रूट की सभी लाइनें व्यस्त हैं ( 2015 ) ,अयोध्या से गुजरात तक ( 2016 ): दो काव्य-संग्रह ।
सम्मान :
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भाषा विभाग ( पंजाब ) तथा प्रकाशन विभाग ( भारत सरकार ) द्वारा रचनाएँ पुरस्कृत। कमलेश्वर-कथाबिंब कहानी प्रतियोगिता ( मुंबई ) में लगातार दो वर्ष  प्रथम पुरस्कार। स्टोरी-मिरर.कॉम कथा प्रतियोगिता , 2016 में कहानी पुरस्कृत ।
अन्य प्राप्तियाँ :
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# कई कहानियाँ व कविताएँ अंग्रेज़ी , उर्दू , पंजाबी, उड़िया, मराठी, असमिया , कन्नड़ , तेलुगु व मलयालम आदि भाषाओं में अनूदित व प्रकाशित । कहानियाँ केरल के कलडी वि.वि. ( कोच्चि ) के एम.ए. (हिंदी), तथा मध्यप्रदेश , हरियाणा व महाराष्ट्र के कक्षा सात व नौ के हिंदी पाठ्यक्रम में शामिल । कविताएँ पुणे वि. वि. के बी. ए.( द्वितीय वर्ष ) के पाठ्य-क्रम में शामिल । कहानियों पर आगरा वि. वि. , कुरुक्षेत्र वि. वि. , पटियाला वि. वि. , व गुरु नानक देव वि. वि. , अमृतसर के हिंदी विभागों में शोधार्थियों द्वारा शोध-कार्य ।
# अंग्रेज़ी व पंजाबी में भी लेखन व प्रकाशन । अंग्रेज़ी में काव्य-संग्रह  ' इन गाँधीज़ कंट्री ' प्रकाशित । अंग्रेज़ी कथा-संग्रह ' द फ़िफ़्थ डायरेक्शन ' और अनुवाद की पुस्तक 'विश्व की श्रेष्ठ कहानियाँ' प्रकाशनाधीन ।
ई-मेल : sushant1968@gmail.com
मोबाइल : 8512070086

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पता: A-5001,गौड़ ग्रीन सिटी, वैभव खंड, इंदिरापुरम ,
ग़ाज़ियाबाद - 201014 ( उ. प्र. )

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प्रकाशित रचनाएँ लेखक की अपनी विचारधारा और भावना पर आधारित रचित हैं, सर्वहारा या अन्य कोई भी सहमत-असहमत हो सकता है।