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'सर्वहारा' में हिन्दी भाषा और देवनागरी लिपि में साहित्य की किसी भी विधा जैसे- कहानी, निबंध, आलेख, शोधालेख, संस्मरण, आत्मकथ्य, आलोचना, यात्रा-वृत्त, कविता, ग़ज़ल, दोहे, हाइकू इत्यादि का प्रकाशन किया जाता है।

शुक्रवार, 21 अक्तूबर 2016

ग़ज़ल

रचनाकर का परिचयडॉ. राकेश जोशी
डॉ. राकेश जोशी

अंग्रेजी साहित्य में एम. ए., एम. फ़िल., डी. फ़िल. डॉ. राकेश जोशी मूलतःराजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, डोईवाला, देहरादून, उत्तराखंड में अंग्रेजी साहित्य के असिस्टेंट प्रोफेसर हैं. इससे पूर्व वे कर्मचारी भविष्य निधि संगठन, श्रम मंत्रालय, भारत सरकार में हिंदी अनुवादक के पद पर मुंबई में कार्यरत रहे. मुंबई में ही उन्होंने थोड़े समय के लिए आकाशवाणी विविध भारती में आकस्मिक उद्घोषक के तौर पर भी कार्य किया. उनकी कविताएँ अनेक राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होनेके साथ-साथ आकाशवाणी से भी प्रसारित हुई हैं. उनकी एक काव्य-पुस्तिका "कुछ बातें कविताओं में", एक ग़ज़ल संग्रह पत्थरों के शहर में, तथा हिंदी से अंग्रेजी में अनूदित एक पुस्तक द क्राउड बेअर्स विटनेसअब तक प्रकाशित हुई है. डॉ. राकेश जोशी की ग़ज़लें आम आदमी की संवेदना को बख़ूबी अभिव्यक्त करती हैं. उनकी ग़ज़लों में आम-जन की पीड़ा एवं संघर्ष को सशक्त अभिव्यक्ति मिलती है, इसलिए ये आज के इस दौर में भीड़ से बिलकुल अलग खड़ी नज़र आती हैं.

सम्पर्क:
डॉ. राकेश जोशी
असिस्टेंट प्रोफेसर (अंग्रेजी)
राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, डोईवाला
देहरादून, उत्तराखंड
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ग़ज़लें
1.
बादल गरजे तो डरते हैं नए-पुराने सारे लोग। 
गाँव छोड़कर चले गए हैं कहाँ न जाने सारे लोग। 

खेत हमारे नहीं बिकेंगे औने-पौने दामों में,
मिलकर आए हैं पेड़ों को यही बताने सारे लोग। 

मैंने जब-जब कहा वफ़ा और प्यार है धरती पर अब भी,
नाम तुम्हारा लेकर आए मुझे चिढ़ाने सारे लोग। 

गाँव में इक दिन एक अँधेरा डरा रहा था जब सबको,
खूब उजाला लेकर पहुँचे उसे भगाने सारे लोग। 

भूखे बच्चे, भीख माँगते कचरा बीन रहे लेकिन,
नहीं निकलते इनका बचपन कभी बचाने सारे लोग। 

धरती पर खुद आग लगाकर भाग रहे जंगल-जंगल,
ढूँढ रहे हैं मंगल पर अब नए ठिकाने सारे लोग। 

इनको भीड़ बने रहने की आदत है, ये याद रखो,
अब आंदोलन में आए हैं समय बिताने सारे लोग। 

चिड़ियों के पंखों पर लिखकर आज कोई चिट्ठी भेजो, 
ऊब गए है वही पुराने सुनकर गाने सारे लोग। 

2.
जगमगाती शाम लेकर आ गया हूँ। 
मत डरो, पैग़ाम लेकर आ गया हूँ। 

हम सभी गद्दार हैं, हक़ माँगते हैं, 
सर पे ये इल्ज़ाम लेकर आ गया हूँ। 

फिर गरीबों को उदासी बाँटकर, 
मैं ज़रा आराम लेकर आ गया हूँ। 

सब यहाँ तलवार लेकर आ गए हैं, 
मैं तुम्हारा नाम लेकर आ गया हूँ। 

आत्मा तुमने बहुत सस्ते में बेची, 
मैं तो ऊँचे दाम लेकर आ गया हूँ। 

आज अपने साथ मैं रोटी नहीं, 
कुछ ज़रूरी काम लेकर आ गया हूँ। 

3. 
हर तरफ गहरी नदी है, क्या करें। 
तैरना आता नहीं है, क्या करें। 

ज़िंदगी, हम फिर से जीना चाहते हैं,
पर सड़क फिर खुद गई है, क्या करें। 

यूं तो सब कुछ है नए इस नगर में, 
पर तुम्हारा घर नहीं है, क्या करें। 

पेड़, मुझको याद आए तुम बहुत,
आग जंगल में लगी है, क्या करें।

लौटकर हम फिर शहर में आ गए,
फिर भी इसमें कुछ कमी है, क्या करें। 

तुमसे मिल पाया नहीं, बेबस हूँ मैं,
और बेबस ये सदी है, क्या करें। 

4.
हर तरफ भारी तबाही हो गई है,
ये ज़मीं फिर आततायी हो गई है।

कुछ नए क़ानून ऐसे बन गए हैं, 
आज भी उनकी कमाई हो गई है।

जब से हम पर्वत से मिलकर आ गए हैं,
ऊँट की तो जग-हँसाई हो गई है। 

फिर किसानों को कोई चिठ्ठी मिली है,
फिर से ये धरती पराई हो गई है। 

मैं तुम्हारे पास आना चाहता हूँ,
बीच में गहरी-सी खाई हो गई है। 

वो तो बच्चों को पढ़ाना चाहता है,
पर बहुत महंगी पढ़ाई हो गई है। 

5.
कैसे-कैसे लोग शहर में रहते हैं। 
जलता है जब शहर तो घर में रहते हैं।

जाने क्यों इस धरती के इस हिस्से के,
अक्सर सारे लोग सफ़र में रहते हैं। 

भूख से मरते लोगों की इस दुनिया में,
राजा-रानी रोज़ ख़बर में रहते हैं। 

दौर नया है, जिसमें हम सबके सपने,
दबकर फाइल में, दफ्तर में रहते हैं। 

जनता जब मिलकर चलती है सड़कों पर,
दरबारों में लोग फ़िकर में रहते हैं। 

वो जो इक दिन इस दुनिया को बदलेंगे,
मेरी बस्ती, गाँव, नगर में रहते हैं।



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