सूचना

'सर्वहारा' में हिन्दी भाषा और देवनागरी लिपि में साहित्य की किसी भी विधा जैसे- कहानी, निबंध, आलेख, शोधालेख, संस्मरण, आत्मकथ्य, आलोचना, यात्रा-वृत्त, कविता, ग़ज़ल, दोहे, हाइकू इत्यादि का प्रकाशन किया जाता है।

रविवार, 23 अक्तूबर 2016

लेख- (वामपंथ क्या, क्यों, कितना और किसलिये?)

वामपंथ को आज भारत में शक की निगाहों से देखते हुए इसको सीधा-सीधा उग्रवाद से संबद्ध करते हुए उपद्रवी, बाग़ी और आतंकवादी प्रवृत्तियों के निकट लाकर देखा जा रहा है, लेकिन इस तरह से देखने के दो स्पष्ट कारण दिखाई देते हैं, पहला यह कि परंपरावादी प्रारम्भ से वामपंथ के विरोध में हैं ही और उनकी दृष्टि में वामपंथ एक गलत मार्ग होने के साथ सांस्कृतिक-क्षरण का कारक भी है। वे अपनी दृष्टि को इस पंथ के सापेक्ष में स्वीकार्यता के साथ विकसित न कर पाए और अपने सामंतकालीन निरंकुश दुराग्रहों से मुक्त न हो पाए। वे जातिगत, भाषाई, संप्रदायगत और भेदात्मक भावना का अधिक विकास करते हुए आपसी समन्वय से दूर होते गए। दूसरा यह है कि वामपंथियों के पास केवल वामपंथ है, न तो उनके पास कोई कारगर समुचित योजना है, न योजना के साथ कोई दृढ़ नेतृत्व, न अनुशासन न ही कोई विशेष संतुलित चेतना। केवल विरोध के लिए विरोध करना वामपंथ को सही दिशा में न लेजाकर इसे बदनाम करने के साथ इसके प्रति जनता में रोष उत्पन्न कर रहा है। यहाँ वामपंथ को समझना ज़रूरी हो जाता है कि वास्तव में वामपंथ है क्या?
वामपंथ होने का सीधा अर्थ राजनीति का वह पक्ष जो पारंपरिक सत्ता के विपक्ष में अपने समता के तौर तरीके, विचारधारा, मूल्य, सिद्धांत, मानदंड और अपनी बात रखता है। वामपंथी राजनीति (left-wing politics या leftist politics) राजनीति में उस पक्ष या विचारधारा को कहते हैं, जो समाज को बदलकर उसमें अधिक आर्थिक बराबारी लाना चाहते हैं। इस विचारधारा में समाज के उन लोगों के लिए सहानुभूति जतलाई जाती है जो किसी भी कारण से अन्य लोगों की तुलना में पिछड़ गए हों या शक्तिहीन हो गये हों। राजनीति के सन्दर्भ में 'बायें' और 'दायें' शब्दों का प्रयोग फ्रांसीसी क्रान्ति के दौरान शुरू हुआ। फ़्रांस में क्रान्ति से पूर्व की एस्तात ज़ेनेराल (Estates General) नामक संसद में सम्राट को हटाकर गणतंत्र लाना चाहने वाले और धर्मनिरपेक्षता चाहने वाले अक्सर बायें तरफ़ बैठते थे। आधुनिक काल में समाजवाद (सोशलिज़म) और साम्यवाद (कम्युनिजम) से सम्बंधित विचारधाराओं को बायीं राजनीति में डाला जाता है। 

भारत में मार्क्सवाद के पदार्पण के साथ वामपंथ का प्रारंभ हुआ स्वाभाविक है, भारत की राजनीति में वामपंथ अपनी विचारधारा, मूल्य, मानदंड और सिद्धांत लेकर आया लेकिन वह अब तक सफल न हो पाया। जिस तरह से इस पंथ को अनुशासन, नेतृत्व, चेतना और आस्था की ज़रूरत थी वह इतनी मात्रा में न मिल पाई जितनी मिलनी चाहिए थी। वामपंथ भारत जैसे बहुभाषी, बहुसंप्रदाय, बहुधर्म, बहुसंस्कृति वाले राष्ट्र में फल-फूल न सका क्योंकि वामपंथ को समझने के लिए साक्षर होने के साथ पारंपरिक आस्थाओं, लोक विश्वासों, धार्मिक रूढ़ियों, ढकोसलों को पहले जड़ से उखाड़ना होगा फिर इसके लिए इसे गहरे से जानने और समझने के लिए विशेष प्रयत्न करने होंगे। भारत में अधिकांश जनता की अवस्था ऐसी है जो साक्षर भी नहीं तथा जो साक्षर हैं वे धर्म, संप्रदाय और रूढ़ियों में इतने जकड़े हुए हैं, उनसे वे बाहर भी आना नहीं चाहते, अपनी दृष्टि को वैज्ञानिक चश्मा भी पहनाना नहीं चाहते। भारतीय राजनीति में मार्क्सवाद आज बहुत हद तक सिमटकर रह गया है, कोई विशेष स्थापना और ख्याति भारत में स्थापित न कर पाया, या यों कहें लोक में मार्क्सवाद की पकड़ न बन पायी, जिन्होंने इसे अपनाया वे कहीं न कहीं प्रबुद्ध वर्ग की पकड़ में रहा उनकी चेतना उससे मेल खाई और वह संस्थाओं, वैचारिक समूहों में स्थापित होकर एकांगिता का शिकार हो गया। आज यह भी जानना बहुत ज़रूरी हो जाता है कि मार्क्सवाद का भारतीय राजनीति में क्या स्थान है और ये कहाँ तक सफल हो सका है?
मार्क्सवाद वैश्विक स्तर पर फैलने के साथ भारत में प्रवेश कर वर्त्तमान तक पूर्णतः स्थापित न हो पाया। यद्यपि मार्क्सवाद समाज में समत्व के विकास के साथ मानवीय चिंता का ऐसा दर्शन है, जिसने समस्त विश्व को समानाधिकार की भावना, सामुदायिक विकास, पूँजीवाद के विरोध के साथ पूंजी के उचित वितरण प्रति व्यक्ति के विकास के साथ मानवीय इतिहास की नवीन व्याख्या की तथा पिछले समस्त दर्शनों से अधिक तर्कयुक्त रूप में उभरकर समक्ष आया। भारत में मार्क्सवाद को समझना और समझाना तथा इसकी सही सामाजिक व्याख्या करना आज बहुत आवश्यक है, चाहे पाठ्यक्रम में पुस्तकों के माध्यम से हो या कैम्पेनिंग के माध्यम से हो या कला की अन्य शाखाओं माध्यम से हो या संस्कार के माध्यम से। आज केवल मार्क्सवाद ही ऐसा दर्शन है, जो समाज की उन्नत्ति, प्रगति और न्यायिक व्यवस्था का सशक्त विधायक है। भारत की मार्क्सवादी पार्टी के नेताओं ने मार्क्सवाद ऐसा कुछ ख़ास प्रचार और प्रसार करने का प्रयत्न ही नहीं किया कि भारत में मार्क्सवादी पार्टी के माध्यम से जनअलख जगाया जाए और हर व्यक्ति को उसके अधिकारों, कर्तव्यों के प्रति जागरूक किया जाए। वास्तव में मार्क्सवादी पार्टी भारत में मार्क्सवाद को सही दिशा देने में असफल हो गई हैं, उन्होंने कभी भी अपने सिद्धांतों का बीज जनता के बीच जाकर संघर्ष रूप में बोया ही नहीं। वह चाहते तो हर गांव, गली, मोहल्ले, शहर जाते और अपने सिद्धांतो से आमजन को गहरे रूप में जोड़ते, परंतु उनकी इस तरह की पहल जो बहुत पहले होनी थी और उसमें निरंतरता बनाए रखनी थी जो हो न पाई!!! बहुत पहले कभी रूस के प्रभाव में आकर मार्क्सवाद का ख़ूब प्रचार और प्रसार हुआ। कई पुस्तकें हिंदी में अनूदित होकर भारत में आईं और सस्ता साहित्य ने तो मार्क्सवाद की स्थापना के लिए बाढ़ ला दी थी। पश्चात में न तो वैसी भावना का अनुगमन शेष रहा, न ही मार्क्सवाद के सिद्धांतों को किसी ने गंभीरता से ग्रहण किया और न ही जिस अनुशासन की माँग थी उसे पूर्णता मिल पाई। एक बहुत बड़ी कमी और कमज़ोरी भारतीय मार्क्सवादी पार्टी की यह रही कि मार्क्सवाद के प्रति प्रतिबद्धताओं और अनुशासनों में भयानक गिरावट आगई। जब अनुसासन, प्रतिबद्धताएं क्षीण होती हैं, तो उसके परिणाम भी शिथिल होने लगते हैं, यहाँ उन्हीं अवस्थाओं को हू-ब-हू चित्र उभरकर समक्ष आया है। मार्क्सवादी दल ने और नेताओं ने कभी इस बात पर गहराई से विचार और चिंतन न किया कि मार्क्सवाद के भारत में कमज़ोर पड़ने के क्या कारण हैं??? क्यों भारत में मार्क्सवाद उस स्तर पर लागू न हो पा रहा है जिस स्तर पर वास्तव में आज उसकी बड़ी सशक्त ज़रूरत है??? क्यों मार्क्सवादी दल घर-घर जाकर लोगों में मार्क्सवाद की भावना और शिक्षा नहीं बाँट पा रहे हैं??? क्यों मार्क्सवाद भारत में सामजिक दर्शन बनकर प्रतिनिधि रूप में नेतृत्व नहीं कर पा रहा है??? एक समाज दर्शन क्यों भारत में स्थापित न हो पा रहा है जबकि भारत में धर्म-दर्शन चाहे वह अंधविश्वासों से भरा हो स्थापित हो जाता है, तो मार्क्सवाद की स्थापना के प्रयासों में क्या कमी रह रही है??? मार्क्सवादी दल के पास कारगर नेतृत्व की कमी क्यों है??? एक गहरा चिंतन और प्रयास इस दल के नेताओं ने नहीं किया और न ही अपने को मार्क्सवाद के लिए संघर्षपथ पर ही कभी खपाया।केवल विपक्ष में बैठकर गिने चुने नेताओं के विरोध दर्ज करने, टिपण्णी करने, बयानबाज़ी से मार्क्सवाद कभी फलीभूत नहीं हो सकता है, न ही उसे व्यापक स्तर पर भारत में स्थापित किया जा सकता है। वास्तव में आज मार्क्सवाद को नए सिरे से नए भारतीय संस्कारों से संयोजित करने की गहरी आवश्यकता है ताकि समाज के सही हित का दर्शन भारतीय समाजजन में प्रस्थापित हो पाए। भारत में मार्क्सवाद को स्थापित करने में मार्क्सवादी दल की ही बड़ी भूमिका हो सकती है न कि कला और उसकी समस्त विधाओं की। आज साहित्य, नाटक, ललित कलाओं के माध्यम से समाजवाद अथवा मार्क्सवाद को जीवित तो रखा जा रहा है, लेकिन उसे जन-जन की मुक्ति का साधन बनाना बड़ा दुसह हो चुका है। आज बड़े स्तर पर ज़रूरत है कि मार्क्सवादी दल में नई जान फूँककर मार्क्सवाद को या प्रभाव को फैलाया जाए ताकि वह आमजन के जीवन के विकास का प्रतिरूप बनकर उभरे। एक बात यहाँ स्पष्ट भी कर दूँ कि भारत ईश्वरी आस्थाओं का देश है, जहाँ मार्क्सवाद को चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा, क्योंकि मार्क्सवाद ईश्वर की आस्था से विमुक्त वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर आधारित समाजदर्शन है। इसका एक सीधा सा उपाए है कि मार्क्सवाद को भारत में इस तरह खपाया जाए कि कहीं किसी की साम्प्रदायिक, धार्मिक भावना को ठेस न पहुंचे और मार्क्सवाद की फ़सल भारत में लहरा जाए!!!
इधर JNU में तथाकथित छात्र नेताओं ने अनियंत्रित, अनुशासनहीन, असंयोजित नेतृत्वहीन विफल प्रयास किये, जिससे मार्क्सवादी सिद्धांतों का हनन तो हुआ ही साथ ही वामपंथ के लिए लोगों की दृष्टि में नकारात्मकता आई और लोग वामपंथ से छिटककर दूर होते हुए कतराने लगे हैं। कन्हैया ने अनियंत्रित तरीके से अपने विरोध को दर्ज किया जो विवाद को उत्पन्न कर गया और वाममपंथी पार्टी ने उसे प्रश्रय दिया जबकि आवश्यकता इस बात की थी कि मार्क्सवादी पार्टी को अपने कड़े अनुशासन के तहत ऐसी प्रवॄत्तियों को प्रश्रय न देना चाहिए था। अभी हाल ही की घटना में JNU में घेराव किया गया जो कि लोकतांत्रिकता को चुनौती देता है। जबकि वामपंथ का सम्पूर्ण उद्देश्य लोकतान्त्रिक व्यवस्था का निर्माण होना चाहिये न कि बोखलाकर हिंसा के पथ पर उतरकर अपने संवादों, भाषणों को हथियार के रूप में इस्तेमाल करते हुए उपद्रव करते हुए देश की अखंडता और शांति को भंग करें। यदि वामपंथियों की ऐसी प्रवॄत्तियों को लगातार बल मिला तो मार्क्सवाद भारत में आतंकवाद के रूप में भविष्य में देखा जाएगा।आज बहुत ज़रूरत इस बात की है कि मार्क्सवाद को नए सिरे से भारत में स्थापना दिलाने के लिए एक कारगर नेतृत्व, अनुशासन, चेतना, आस्था,  नियोजन, प्रबंधन और गहरे त्याग की ज़रूरत है। यदि इस प्रकार से अनुशासनहीनता का शिकार मार्क्सवाद होता गया, तो इसे कोई पूछने वाला ह् रह जाएगा और यह बौद्धिक वर्ग का एक नज़रिया बनकर रह जाएगा। बौद्धिक वर्ग भी यदि इसे ऐसे ही अपनाता रहा तो ये उनकी मनमानी का एक उच्छश्रृंखल तरिका अथवा शैली के अतिरिक्त और कुछ न होगा। आज बेहद आवश्यक है कि मार्क्सवाद को नए तालमेल से भारत में किस प्रकार स्थापित किया जाए, किस तरह की योजनाएँ बनाई जाएँ जिससे यह लोक समाज में पुनः  जीवित होकर पल्लवित और पुष्पित हो सके। आज समय आ गया है कि इस सन्दर्भ में पुनर्विचार किया जाये और ये स्वीकार किया जाए कि मार्क्सवाद अपनी सीमाओं का अतिक्रमण करना छोड़ दे और नियंत्रित होकर अनुशासनबद्ध होकर सही दिशा में आगे बढे। आज मार्क्सवाद को सबसे बड़ी ज़रूरत भारतीय जनता के दिलों और जीवन में उसकी स्थापना की है ताकि लोक में इसके प्रति एक आस्था का निर्माण हो सके और भारत का नवनिर्माण आर्थिक समानता, धर्मनिरपेक्षता, मानवी समता के साथ एक अधिकार की भावना के तहत हो सके।
•••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••
डॉ. मोहसिन ख़ान
अलीबाग-महाराष्ट्र