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रविवार, 30 अप्रैल 2017

लेख - श्रम, संत, समाज और प्रांत

मैं मज़दूर हूँ 
श्रम, संत, समाज और प्रांत
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वर्तमान जगत की समस्त प्रगति और विकास श्रम से प्रादुर्भूत तथा स्थापित है। प्रत्येक समाज की संरचना में श्रम-संस्कृति का योगदान अपनी प्रमुखता से विराजित हैं। इसी श्रम संस्कृति के कारण ही समाज की संरचना, प्रगति संभव हो सकी है। यह श्रम की महत्ता ही है जिसने आज विश्व निर्माण में अपनी महती भूमिका का निर्वाह करते हुए हर एक व्यक्ति को जीवन  जीने की सुख सुविधाएं प्रदान की हैं। जब से जगत में मनुष्य की उत्पत्ति हुई है, तब से मनुष्य श्रम के माध्यम से ही प्रत्येक चीज का निर्माण करता रहा है, इसलिए आज समाज में श्रम की सबसे अधिक महत्ता है। अंतर्राष्ट्रीय मज़दूर दिवस को मनाने की शुरूआत 1 मई 1886 से मानी जाती है जब अमरीका की मज़दूर यूनियनों ने काम का समय 8 घंटे से ज़्यादा न रखे जाने के लिए हड़ताल की थी। इसी प्रचलन में लगातार अंतर्राष्ट्रीय मज़दूर दिवस विश्व में मनाया जा रहा है। हर वर्ष  अंतर्राष्ट्रीय मज़दूर दिवस की थीम अलग-अलग रहती है। 1 मई को मजदूर दिवस पर श्रम से मजदूरों का अवकाश रहता है, परंतु भारत जैसे देश में मजदूरों के बीच शिक्षा के अभाव और सही जागरूकता, नेतृत्व के अभाव के कारण मजदूर इस दिन भी मजदूरी करते हैं और उन्हे पता ही नहीं होता कि अंतर्राष्ट्रीय मज़दूर दिवस क्या है? इसका मजदूर से क्या संबंध है? मजदूरों की दयनीय और शोचनीय अवस्था भारत में खुले रूप में देखी जा सकती है, सस्ते दामों पर मजदूर की उपलब्धता के साथ असंगठित मजदूर वर्ग शोषण का शिकार निरंतर हो रहा है। बाल श्रम की बढ़ती अवस्था भी भारत में निरंतर देखने को मिलती है। जबकि 14 वर्ष से कम आयु के बच्चे को मजदूर के रूप में कोई अपने यहाँ नहीं रखा सकता है, लेकिन लचर कानून व्यवस्था, असंतुलित सामाजिक व्यवस्था और गरीबी के कारण बाल मजदूरों की संख्या में इजाफा ही हुआ है कोई भी रोक न लग पाई है। लोगो का भारत में मजदूरों के प्रति भेदभाव भी देखा जाता है पुरुष मजदूर को अधिक रुपयों की मजदूरी प्राप्त होती है जबकि स्त्री मजदूरों को कम रुपयों की मजदूरी प्राप्त होती है यह समानता और भेद लिंग भेद पर ही आधारित नजर आता है। 

  
जगद्गुरू श्री रामानुजाचार्य
समाज में श्रम की संस्कृति के साथ हमें संतों के सामाजिक आंदोलनों को भी निरंतर याद रखना चाहिए। ऐसे ही सामाजिक, धार्मिक आंदोलनकर्ताविशिष्टद्वैतवाद दर्शन के प्रवर्तक तथा संत रामानुजाचार्य थे, जिनका जन्म १०१७ ईसवी सन् में दक्षिण भारत के तमिलनाडु प्रान्त में हुआ था। बचपन में उन्होंने कांची जाकर अपने गुरू यादव प्रकाश से वेदों की शिक्षा ली। रामानुजाचार्य आलवार सन्त यमुनाचार्य के प्रधान शिष्य थे। रामानुजाचार्य जी ने विधिवत दीक्षा के पश्चात धर्म के क्षेत्र में समान तत्व की स्थापना के लिए समाज में नई चेतना जगाई और उन्होंने समाज के दलित शोषित पीड़ित लोगों के लिए समान भक्ति भाव की स्थापना के लिए आवाज उठाई। मैसूर के श्रीरंगम् से चलकर रामानुज शालिग्राम नामक स्थान पर रहने लगे। रामानुज ने उस क्षेत्र में बारह वर्ष तक वैष्णव धर्म का प्रचार किया। उसके बाद तो उन्होंने वैष्णव धर्म के प्रचार के लिये पूरे भारतवर्ष का ही भ्रमण किया। ११३७ ईसवी सन् में १२० वर्ष की आयु पाकर वे शरीर त्याग गए। उन्होंने कई ग्रन्थों की रचना की किन्तु ब्रह्मसूत्र के भाष्य पर लिखे उनके दो मूल ग्रन्थ सर्वाधिक लोकप्रिय हुए - श्रीभाष्यम् एवं वेदान्त संग्रहम्। यूं तो संतो का अध्यात्मिक महत्व धार्मिक, दार्शनिक, सांप्रदायिक महत्त्व माना जाता है, परंतु इससे भी कहीं अधिक इन संतों का सामाजिक दायित्व और समाज को नई दिशा देने का प्रयास हमें याद रखना चाहिए। रामानुजाचार्य अपने समय के ऐसे ही संत आचार्य हुए हैं; जिन्होंने समाज में दलित शोषित लोगों को भक्ति के अधिकार प्रदान किए और पश्चात में उनके शिष्य रामानंद ने तो सभी के लिए भक्ति के द्वार खोल दिए थे। इस महत्वपूर्ण संत को आज 1000 वर्ष हो चुके हैं और 1000 वर्ष में रामानुजाचार्य के धार्मिक, दार्शनिक, सांप्रदायिक मतों से कहीं अधिक उनके सामाजिक मूल्य के महातम्य पर विचार करना आज बेहद जरूरी हो जाता है। आज 1 मई से रामानुजाचार्य का जन्म-शताब्दी वर्ष मनाया जा रहा है, उनकी स्मृति को पुनः ताज़ा करने के लिए डाक टिकिट का 1 मई 2017 को लोकार्पण हुआ है। 
महाराष्ट्र 

महाराष्ट्र स्थापना दिवस  भी 1 मई को मनाया जाता है। देश की आज़ादी के बाद मध्य भारत के सभी मराठी भाषा के स्थानों का समीकरण करके एक राज्य बनाने को लेकर बड़ा आंदोलन चला और 1 मई, 1960 को कोंकण, मराठवाडा, पश्चिमी महाराष्ट्र, दक्षिण महाराष्ट्र, उत्तर महाराष्ट्र (खानदेश) तथा विदर्भ, सभी संभागों को जोड़ कर महाराष्ट्र राज्य की स्थापना की गई। महाराष्ट्र राज्य का गठन देश के राज्‍यों के भाषायी पुनर्गठन के फलस्‍वरूप 1 मई, 1960 को महाराष्ट्र राज्‍य का प्रशासनिक प्रादुर्भाव हुआ। यह राज्‍य आस-पास के मराठी भाषी क्षेत्रों को मिलाकर बनाया गया था, जो पहले चार अलग अलग प्रशासनों के नियंत्रण में था। इनमें मूल ब्रिटिश मुंबई प्रांत में शामिल दमन तथा गोवा के बीच का ज़िला, हैदराबाद के निज़ाम की रियासत के पांच ज़िले, मध्‍य प्रांत (मध्य प्रदेश) के दक्षिण के आठ ज़िले तथा आस-पास की ऐसी अनेक छोटी-छोटी रियासतें शामिल थी, जो समीपवर्ती ज़िलों में मिल गई थी। शुरू में महाराष्ट्र में २६ जिले थे। उसके बाद १० नये जिले बनाएँ गये है। वर्तमान के महाराष्ट्र में ३६ जिले है। इन जिलों को छह प्रशासनिक विभागों में विभाजित किया गया है। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार जनसंख्या की दृष्टि से देश का दूसरा सबसे बड़ा राज्य है, 2011 के अनुसार जनसंखाया 112,374,333 है। महामहिम राज्यपाल कातीकल शंकरनारायणनन तथा मुख्यमंत्री श्री देवेंद्र फड़नवीस हैं। महाराष्ट्र पश्चिम में अरब सागर से, उत्तर-पश्चिम में गुजरात से, उत्तर में मध्य प्रदेश से, दक्षिण में कर्नाटक से और पूर्व में छत्तीसगढ़ और तेलंगाना से घिरा है। महाराष्ट्र का कुल क्षेत्रफल 3,07,713 वर्ग किमी. है। लगभग 80% साक्षारता की दर यहाँ पर है। लगभग 1000 पुरुषों पर 925 महिलाए हैं।  अपनी स्थापना से वर्तमान तक की प्रगतिपूर्ण यात्रा में महाराष्ट्र भारत में सबसे अधिक प्रगतिशील और विकासशील प्रांत माना जा रहा है। जहां महाराष्ट्र में अपनी लोक संस्कृति की अनूठी पहचान और विशिष्ट भाषा है, वहीं यह आर्थिक स्तर पर अत्यंत समृद्ध नजर आता है। भारत की आर्थिक स्थिति को को देखते हुए मुंबई को भारत की आर्थिक राजधानी का दर्जा प्राप्त हुआ है। समुद्री तट होने के कारण यहां से सामुद्रिक व्यापार की अच्छी खासी प्रगति की जा चुकी है और व्यापार में अंतरराष्ट्रीय मार्का बन चुका है। आज महाराष्ट्र ऊर्जा, उत्खनन, रेलवे, परमाणु अनुसंधान, उच्च शिक्षा, खेलकूद, मनोरंजन, स्वास्थ्य सेवाओं, विमान सेवाओं, सैन्य बल, सूचना प्रौद्योगिकी, आर्थिक क्षेत्र, पर्यटन, संचार साधनों, रोजगार क्षेत्र में देश का प्रतिनिधि राज्य माना जाता है।
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संपादक- सर्वहारा 
©डॉ. मोहसिन ख़ान
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