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शनिवार, 28 सितंबर 2013

ग़ज़ल


झूटों के बीच नाक़ाम हो गए ।
कइयों के सच्चे नाम हो गए ।

की ख़िलाफ़त तो हुए बेसहारा,
मेरे सिर कई इल्ज़ाम हो गए ।

जो देखा बेतक़ल्लुफ़ कह दिया,
कहते ही हम बदनाम हो गए ।  

देखते ही बुतख़ाना सिर झुका,
सबने कहा हम हराम हो गए ।

सच कहा तो मिल गए ख़ाक में,
और ऊँचे उनके मक़ाम हो गए ।  




               ग़ज़ल

चुप रहिये कुछ न कहिये मुस्कराते जाइए ।
ये दौर है ज़ुल्मों का बस सहते जाइए ।

कोई जौहर न दिखाए और न चिल्लाए,
वक़्त की धार के सहारे बहते जाइए ।

अब पाएदान औंधा है और रास्ते उल्टे,
चलिये तहख़ानों में उतरते जाइए ।

न हो कोई मज़हब और न ही कोई नाम,
जब भी लगे ख़तरा तो बदलते जाइए ।

काट ली जीने की सज़ा तो इक काम कीजे,
जो जी रहे हैं उनको तसल्ली देते जाइए ।

बढ़ रहे हैं मौत की तरफ़ हम भी तुम भी,
शमा की तरह जलते, पिघलते जाइए ।


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