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शनिवार, 4 जनवरी 2014

ग़ज़ल

तुम ही आँखें हमसे चुराते  रहे ।
हम फ़िर भी हाथ मिलाते रहे ।

तोड़ना  चाहा  रिश्ता  ख़ून का,
जाने क्या सोचकर निभाते रहे ।

तेरे गुनाहों में हम भी हैं शरीक़,
ताले क्यों  ज़ुबाँ पे लगाते  रहे ।

बादे ख़ुदा तुझपे किया ऐतबार,
तेरी पनाहों में सिर झुकाते रहे ।

अपने  बचपन से है  मुझे नफ़रत,
हालात रोटी को भी तरसाते रहे ।

तक़ाज़ों की नोकों से हुआ ज़ख़्मी,
दहलीज़ पे तेरी गिड़गिड़ाते रहे ।

जिस्म से हटकर रूह में चिपकी,
जितनी उतरनें मुझे पहनाते रहे ।

कितना तन्हाथा उन दिनों जब,
शर्म से वालिद मुँह  छुपाते  रहे ।

मोहसिन तन्हा

डॉ. मोहसिन ख़ान
हिन्दी विभागाध्यक्ष  
जे.एस.एम. महाविद्यालय
अलीबाग (महाराष्ट्र) 402201
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