ग़ज़ल
आज
मौसम में कितनी तन्हाई है ।
शायद
हो रही कोई रुसवाई है ।
वो गर्म झोंका बनकर गुज़र गए,
अब चल
रही ख़ुशनुमा पुरवाई है ।
हर
किसी को अपनों में गीनते रहे,
जब
परखा तो हर चीज़ पराई है ।
वो
बात जो बीत गई वक़्त के साथ,
क्या
कहें अपनी कम ज़्यादा पराई है ।
पूछते
हैं ‘तन्हा’ से
जिनका ईमाँ नहीं,
ऐ ! गुनाहगार तेरी कहाँ ख़ुदाई है ।
मोहसिन ‘तन्हा’
अलिबाग़
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