ग़ज़ल
तुझको मेरी अब ख़बर कहाँ ।
एक राह का अब सफ़र कहाँ ।
जिसकी ख़ामोशी गुनगुनाती थी,
बातों में उसकी अब असर कहाँ ।
मैं न देखकर भी देख लेता हूँ,
उसकी ऐसी अब नज़र कहाँ ।
की अदावत सारी दुनिया से,
मेरी उसको अब क़दर कहाँ ।
‘तन्हा’ उताश
ही रहता है सदा,
पहली सी अब अज़हर कहाँ ।
ग़ज़ल
आदमी कितना कमज़ोर हुआ है ।
सच की आवाज़ सुन नहीं सकते ,
झूटों का कितना शोर हुआ है ।
बचते हैं सब हरेक निगाह से,
इंसान क्यों आदमख़ोर हुआ है ।
कोइ रोशनी नहीं, बस्ती जलती है ,
किस क़दर धुँआ घनघोर हुआ है ।
फ़िज़ाओं में कैसा बारूद घुला है,
अब ये धमाका किस ओर हुआ है ।
इस कहानी का कोई अन्त नहीं,
यहाँ सिपाही ख़ुद चोर हुआ है ।
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