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शनिवार, 28 सितंबर 2013

ग़ज़ल

वो कमज़ोर करता है अपनी नज़र को ।
देखना  नहीं चाहता  अपने  घर को । 

अदब का माहिर है, लिखता- पढ़ता है,
उसकी क़ाबलियत  नहीं पता शहर को । 

उसका ज़हन कई दिनों रहता है बेचैन,
बादे दुआ देखता है बीवी की क़बर को ।  

पढ़ता है नमाज़ नियत का है ख़राब,
करेगा निकाह देखता नहीं उमर को ।

आसरा है कई परिंदों की शब का,
तुम गिरने न देना इस शाजर को ।

निकल पड़ता है शाम ही से तन्हा’,
कहाँ जाता है, लौटता है सहर को । 


              ग़ज़ल 

इक उम्र बीत गई तुमको पाने के लिए ।
अब तो जाँ बची है मेरी गँवाने के लिए ।

पढ़कर हथेलियाँ मेरी नजूमी कहता है,
लकीरें नहीं तुम्हारे उसे पाने के लिए ।

करदो हवाले लाश मेरी अपनी क़ौम के,
करलो दिखावा तुम भी ज़माने के लिए ।

तन्हा यह कहता है रोज़ सरपरस्तों से,
कोई तो वजह दो उसे भुलाने के लिए ।  



               ग़ज़ल

इक उम्र लगी है ख़ुद को बनाने में ।
तुम लगे हो क्यों मुझको मिटाने में ।

मैं लौट भी आता पास तेरे लेकिन,
अभी लगे हैं  रिश्ते  निबाहने  में ।

न रश्क़ करो, न इज़्ज़त अफ़जाई,
बड़े बदनाम थे पिछले ज़माने में ।

आवारगियों ने कुछ तो सिला दिया,
मस्जिद की जगह बैठे हैं मैख़ाने में ।

होता है उजाला तो तन ढँक लेते हैं,
एक ही चादर है औढ़ने-बिछाने में ।

बच्चों का देखकर मुँह ढीठ हो जाता हूँ,
वरना आती है शर्म हाथ फैलाने में ।  

तन्हा घर से चला था नमक लेकर,
राह में लुट गए झोलियाँ दिखाने में ।     



मोहसिन तन्हा

अलिबाग़

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