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शुक्रवार, 7 मार्च 2014

ग़ज़ल

मुल्क़ को कभी हिन्दू कभी मुसलमान बना रहे हैं ।
ये सियासती इसकी  कैसी  पहचान  बना रहे हैं ।

तक़सीम हुआ है आदमी गुमराहियों के खंजर से,
क्यों यहाँ लोग चेहरे पे ऐसे निशान बना रहे हैं ।

लूटना ही जिनकी फ़ितरत हो वो और क्या जानें,
सिर्फ़  दौलत को ही अपना  ईमान  बना  रहे हैं ।

गढ़कर  ग़लत  इबारतों  और नापाक़  इरादों से,
कुछ लोग यहाँ दूसरा ही संविधान बना  रहे हैं ।

ख़ाली हाथ किसी हथियार से कम नहीं होता है,
थमाने को उसके  हाथों में  सामान  बना रहे हैं ।

चालाक़ी से बोई  नफ़रतों  की फ़सल दिलों में,
किसी को राम किसी को रहमान  बना रहे हैं ।

बँट गया है मुल्क़  कितने छोटे छोटे  इलाक़ों में,
कहीं हिंदुस्तान, कहीं  पाकिस्तान  बना रहे हैं ।

'तन्हा' देखता है तस्वीर बादे आज़ादी की गौर से,
कुछ  दरिन्दे  मिलकर  यहाँ हैवान  बना  रहे हैं ।

               मोहसिन 'तनहा'
                 09860657970
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क्या इलज़ाम धरें ओहदेदारों पर ।
किश्तियाँ डूब रहीं हैं किनारों पर ।

छत के साथ मेरा होंसला भी टूटा,
कैसे करें भरोसा हम दीवारों पर ।

मुझे क़ातिल बना दिया क़ातिलों ने,
मुक़दमा  कैसे करें क़ुसूरवारों  पर ।

वो क्या जानेंगे आग की तपिश को,
बस्तियाँ सुलगीं जिनके इशारों पर ।

एक हम ही नहीं मुहाजिर शहर में,
रोज़ बस रहे  हैं लोग हज़ारों पर ।

बस भूख ही सबब है उसके आने का,
जब  लंगर  बँटता  है मज़ारों  पर ।

'तन्हा' कैसे जिएँ उनके चले जाने से,
ज़िन्दा थे हम जिनके सहारों पर ।

         
मोहसिन 'तनहा'
         09860657970