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रविवार, 4 अगस्त 2013

ग़ज़ल

मोहसिनतन्हा
ग़ज़ल
क़ैफ़ की इन ख़ुमारियों से डर लगता है,
मुझको मेरी दुश्वारियों से डर लगता है ।

अबके रमज़ान में भी न गए हम पढ़ने तराबी,
मस्जिद की चहार दीवारियों से डर लगता है ।

क़ौम परस्ती का जज़्बा लिए फिरते हो दिल में,
मुझको मुल्क़ की बीमारियों से डर लगता है ।

न शोलों की परवाह है न ही ख़ाक होने की,
मुझको तो चिंगारियों से डर लगता है ।

अब न जाते हैं अमीर दोस्तों की महफ़िलों में,
मुफ़लिसी में दिलदारियों से डर लगता है ।

रह न जाऊँ कहीं दो राहों के बीच तन्हा’,                                                 
मुझको मेरी ख़ुद्दारियों से डर लगता है ।




 
ग़ज़ल
बात तेरी आँखों की नहीं निगाहों की थी,
तू गुनाहगार नहीं ज़िंदगी गुनाहों की थी ।

चलता रहे उम्रभर कोई मंज़िल न मिले,
ग़लती उसकी थी या राहों की थी ।

सिर झुकाता रहा मैं शान में दूसरों की,
क्या करूँ उम्र सारी मेरी पनाहों की थी ।

मिटाने को कोई क़सर न छोड़ी थी सबने,
साथ मेरे ताक़त उसकी दुआओं की थी ।

डॉ.मोहसिन 'तन्हा'
सहायक प्राध्यापक हिन्दी
जे. एस. एम. महाविद्यालय,
अलिबाग जिला रायगढ़
महाराष्ट्र पिन - ४०२ २०१
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