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'सर्वहारा' में हिन्दी भाषा और देवनागरी लिपि में साहित्य की किसी भी विधा जैसे- कहानी, निबंध, आलेख, शोधालेख, संस्मरण, आत्मकथ्य, आलोचना, यात्रा-वृत्त, कविता, ग़ज़ल, दोहे, हाइकू इत्यादि का प्रकाशन किया जाता है।

रविवार, 30 अक्तूबर 2016

कविता

शहंशाह आलम की कविताएँ, कविता रचने के लिए रची हुई कविता नहीं; बल्कि सामाजिक पीड़ा का बोध और भीतरी तड़पन का गहरे अहसास की काव्यात्मक अभिव्यक्ति है। इनकी कविताएँ आम आदमी के इर्द-गिर्द के ताने के साथ वैश्विक स्तर पर हो रहे अमानवीय उत्पीड़न को नोकदार सेंकेत देकर तानाशाही, फाँसीवादी प्रवृत्तियों का विरोध दर्ज करती हैं। इनकी कविताओं में प्रगतिशीलता का आव्हान होने के साथ मानवीय उत्थान तथा सामाजिक दायित्वों के बोध का खुला ज्ञान है। सांप्रदायिक अलगाव को इनकी कविताएं सामाजिक समन्वय में ढालने की अद्भुत कला का संगम सँजोए हुए है। 

सम्पादक- सर्वहारा (डॉ. मोहसिन ख़ान )
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शहंशाह आलम  (कवि एवं चित्रकार)
रचनाकर का परिचय- शहंशाह आलम

जन्म : 15 जुलाई, 1966, मुंगेर, बिहार। शिक्षा : एम. ए. (हिन्दी)
प्रकाशन : 'गर दादी की कोई ख़बर आए', 'अभी शेष है पृथ्वी-राग', 'अच्छे दिनों में ऊंटनियों का कोरस',  'वितान', 'इस समय की पटकथा' पांच कविता-संग्रह प्रकाशित। सभी संग्रह चर्चित। 'गर दादी की कोई ख़बर आए' कविता-संग्रह बिहार सरकार के राजभाषा विभाग द्वारा पुरस्कृत। 'मैंने साधा बाघ को' कविता-संग्रह शीघ्र प्रकाश्य। 'बारिश मेरी खिड़की है' बारिश विषयक कविताओं का चयन-संपादन। 'स्वर-एकादश' कविता-संकलन में कविताएं संकलित। 'वितान' (कविता-संग्रह) पर पंजाबी विश्वविद्यालय की छात्रा जसलीन कौर द्वारा शोध-कार्य।
हिन्दी की सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं प्रकाशित। बातचीत, अालेख, अनुवाद, लघुकथा, चित्रांकन, समीक्षा भी प्रकाशित।
 पुरस्कार/सम्मान : बिहार सरकार के अलावे दर्जन भर से अधिक महत्वपूर्ण पुरस्कार/सम्मान मिले हैं।

संप्रति, बिहार विधान परिषद् के प्रकाशन विभाग में सहायक हिन्दी प्रकाशन।
संपर्क : हुसैन कॉलोनी, नोहसा बाग़ीचा, नोहसा रोड, पेट्रोल पाइप लेन के नज़दीक, फुलवारीशरीफ़, पटना-801505, बिहार।
मोबाइल :  09835417537, ई-मेल : shahanshahalam01@gmail.com
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चुनौती

सदन की दीर्घा में बैठकर उनकी चुनौती इतनी भर होती है
कि पंक्ति में खड़े सबसे अंतिम आदमी की गुत्थियाँ
वे अनसुलझा छोड़ देते हैं प्रत्येक सत्र के रोज़ो-शब में
चाहे वह ग्रीष्मकालीन हो या शीतकालीन या कोई और सत्र,

उनकी चनौती उनकी चिंता इस बात में अधिक होती है
कि उनके चेहरे जगमग रहें कालिख की कोठरी में रहते हुए,

ये कौन लोग हैं, सोचते हैं आप और मैं भी
ये कौन लोग हैं, सोचता है पंक्ति में अड़ा खड़ा
वह अंतिम आदमी भी जो मुस्कुरा रहा है
अपने दिन-रात की चुनौतियाँ स्वीकारते हुए,

जबकि उस आख़िरी आदमी की सदा कोई नहीं सुनता
न कार्यपालिका न न्यायपालिका न कोई चौथा खंबा
जिनके लिए हँसती हुईं सुब्हें हँसते हुए नए-नए अल्फ़ाज़
सजाए जाते रहे हैं हर बजट-सत्र के सरकारी विज्ञापनों में

उस अंतिम आदमी जोकि होते हैं मुल्क के पहले नागरिक
कोई उसकी गुत्थियाँ सुलझाने की चुनौती स्वीकारता है
तो पॉकेटमार सरकार नगर के न्यायाधीश से कहकर
देशद्रोह के इल्ज़ाम में काल कोठरी की सज़ा सुनवाती है
उन्हें, जो लड़ाई लड़ना जानते हैं हर पिछड़े हर दलित पक्ष की

इसलिए कि हर अंतिम आदमी हर सरकार के लिए
अल्लाह मियाँ की गाय होती है वोटों का दूध देनेवाली

यह चुनौती डरावनी है बरसों-सदियों से हर रात के अंतिम भाग में

यह चुनौती तब भी मैं स्वीकारता हूँ आज की सरकारों से बिना डरे
आज के न्यायाधीश से बिना घबराए जोकि सरकारों का समर्थन करते हैं
और हमें देशद्रोह की सज़ा सुनाते हुए उस अंतिम आदमी का हमदर्द मानते हैं।
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 चुप्पी

चुप्पी कहाँ पर नहीं थी समय के इस खंड में पसरी हुई
कुएँ के भीतर झाँको तो चुप्पी ही बैठी दिखाई देती थी
पूरी तरह शांत पूरी तरह भयहीन पूरी तरह तरोताज़ा

शब्द में वाक्य में व्याकरण में ध्वनि में अलंकार में
धूप में चट्टान में घुन में दीमक में तिलचट्टे में
एक बेचैन कर देनेवाली गहरी चुप्पी ही थी
जो ललकार रही थी मुझे अपना हिस्सा बनाने के लिए

पुल के नीचे छिपकर बजा रहे उस लड़के की शहनाई में
नदी में रह रहे कच्छप में नीले शंख में मछलियों में घास में
रेगिस्तान के ऊँट में ऊँटनी में चींटे-चींटी में छिपकली में
स्टेशन के एकांत में पड़े रेल के डिब्बे में पटरी में
एक बस चुप्पी ही थी जो उछल-कूद मचा रही थी
आदमियों का मुँह चिढ़ाती आदमियों के मुँह लगती हुई

यह भी सच है कि यह चुप्पी खटक रही थी अनगिन बार

अंतत: मैं ही अकेला पुकारता हूँ अपनी पसंद का नाम
भाँय-भाँय साँय-साँय सन्नाटे से घिरी इस गहरी खाई में

अंतत: मैं ही अँधे कुएँ के ठहरे हुए पानी में उच्चारता हूँ
उच्चारता ही जाता हूँ एक जादू भरी भाषा एक जादू भरा शब्द
और तोड़ता हूँ इस कालखंड की चुप्पी को पूरी तरह बोलक्कड़।
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जाँच
उन्होंने हर बार जाँच बिठाई है हर कैबिनेट की बैठक में
आपके और मेरे द्वारा माँगी गईं हर ज़रूरी वस्तुओं पर

यह एक बेहद पुराना मुहावरा हो गया है सत्ता के गलियारे में
हमारी हर माँग पर हर बार नए परीक्षण के त्वरित आदेश का

दुःख की बात यह नहीं कि सत्ता पक्ष हमारे साथ ऐसा करता आया है
दुःख की बात यह है कि हमारी हर जायज़ माँगों के विरुद्ध
देश के हर न्यूज़ चैनल वाले बैठ जाते रहे हैं घबराए हुए
हमारी कोई भी माँग पूरी होने से पहले इस विषय पर
कि इस देश में आप और मेरे जैसे शख़्स की कोई भी माँग
मानी कैसे जा सकती है जो पंक्ति में सबसे पीछे खड़े किए गए हैं

हमारी हर माँगों को आर्थिक फ़ायदे और नुक़सान के तराज़ू पर
तौला जाता रहा है तुष्टिकरण का नाम देते हुए हठधर्मी के साथ

हमें भूख क्यों लगती है और प्यास और जीने की इच्छा हम में क्यों है
और ऐसा होना जाँच का कोई रोचक विषय रहा है उन सब के लिए हर बार

चाहे जितनी बार जाँच बिठाओ हमारे जीवित होने न होने की
चाहे जितनी दफ़ा परीक्षण कराओ हमारी गारंटीयुक्त भूख की
चाहे सेंसेक्स के न बढ़ने का कारण हमें बनाते रहो मुहर लगाकर
चाहे देश के आर्थिक विकास में बाधक मानते रहो बारंबार

तुम्हारी तरफ़ से की जाने वाली जितनी जाँचें हैं हमारे ख़िलाफ़
सभी झूठी हैं और यह तुम बख़ूबी जानते-बुझते हो समझते हो
कि जिस दिन तुम्हारे विरुद्ध जाँच बिठाई गई हम सबके द्वारा
तुम तुम्हारी सत्ता से बेदख़ल किए जाओगे मार भगाए जाओगे

तुम, तुम जो हत्यारे हो बलात्कारी हो चोर हो गिरहकट हो
हमारे हमारे बच्चों के जीवन के हमारे समय के हमारी ज़रूरतों के

तुम मानो न मानो तुम समझो न समझो
तुम चाहे जितने सवाल-दर-सवाल खड़े करो-कराओ
हम तो तुम्हारे ज़ुल्म से तुम्हारे सितम से कुछ ज़्यादा ही
ताक़तवर हो रहे तुम्हारे ख़िलाफ़ खड़े होने के लिए रोज़-बरोज़।
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तानाशाह का क़िला यानी एक अदद क़िस्सा-ए-अमेरिका

तानाशाह के घर की आज सबसे बड़ी ख़बर थी ध्वनित
कि मारा गया लादेन किसी अकेले मकान के एकांत हिस्से में
जिसे जन्म दिया था इसी तानाशाह ने और मारा भी था ख़ुद से

ख़बर पक्की थी इसलिए तानाशाह ख़ुश था अपने क़िले में
तन्मय था यश बटोरने में अपने अपयश को छिपाते हुए

तानाशाह का क़िला बड़ा था हमारे सपनों से भी बड़ा और भव्य
अनगिन तानाशाह समा सकते थे इस दुर्ग में अर्द्धनग्न पूर्णनग्न

तानाशाह का क़िला जादूकथाओं परिकथाओं से भरा होता था
जहाँ इच्छा ज़ाहिर करते ही चीज़ें हाज़िर हो जाती थीं ख़ून से सनीं

लेकिन तानाशाह तानाशाह होते हुए भी डरा रहता था अपनी मृत्यु से
इसी भय में वह रोता रहता था अपनी रातों के अँधरे में सबसे मुँह छिपाए
इसी भय से इस तानाशाह ने अपने क़िले के बाहर और भीतर भी
परमाणुशक्ति युद्धशक्ति कामशक्ति बढ़ाने के विज्ञापन लगा रखे थे चकाचक
पूरी दुनिया से भूख मिटाने का नुस्खा भी टंगवा रखा था अपने हरम में

किसी देश ने इस तानाशाह के बारे में इबारत-आराई कभी नहीं की
न इस तानाशाह के प्रेम के बारे में, जो इसे करना कभी नहीं आया
न इस तानाशाह द्वारा कराए गए मुखमैथुन के बारे में
न इस तानाशाह पर जूते फैंके जाने के बारे में
न इस तानाशाह के भोजन कपड़े-लत्ते पर ख़र्चे के बारे में
न इस तानाशाह के क़िले में दफ़्न लोगों के बारे में

यह तानाशाह किसी आदमख़ोर पशु की मानिंद था दुनिया के नक़्शे में
जो खाता रहता था अपने से कमज़ोर मुल्कों कमज़ोर शहरियों को

लादेन के मारे जाने के बाद तानाशाह के क़िले में हस्बे-मामूल
एक बड़ी सभा रखी गई थी जोकि क़तई विचित्र नहीं थी
इस सभा में विश्व भर के तानाशाह राष्ट्र आमंत्रित थे आनंदित
मगर इस भारी आयोजन में किसी मुल्क की कोई जनता नहीं बुलाई गई थी
न कोई कथाकार न कोई कवि न कोई आलोचक बुलाया गया था

हर तानाशाह ऐसा ही करता आया था सदियों-सदियों से
इन सब बातों को लेकर लेखक बिरादरी का और जनता का
रोना भी सकारण रोना था अलंकृत लच्छेदार शैली में
लेकिन लेखक बिरादरी अमूमन और अकसर यह भूल जाती थी
कि उनके रोने की योजना कभी सफल नहीं हुई किसी सरकार में

जनता तो जनता ही ठहरी किसी भी देश की
जनता अकसर दिन का धागा पकड़ना चाहती थी
अपने-अपने तानाशाह बादशाहों के भयों को भुलाकर
तब तक कुछ वेश्याएँ भिजवा दी जाती थीं
जनता का जी बहलाने और ललचाने और सिहराने

ख़ैर, भाई लोग! इस तानाशाही निरंतरता में इस तानाशाही ऋतुचक्र में
जनता अपने मुल्क की भी ऐसी ही हो गई है पूरी तरह
महँगाई की लात महँगाई का ख़ुशी-ख़ुशी जूता खानेवाली चुपचाप

इस महासभा में अपने मुल्क के भी नेता पहुँचे थे
मगर औरों की तरह वे भी सबसे बड़े तानाशाह का फोता ही सहलाते दिखे
एकदम अभ्यस्त एकदम रोमाँचित एकदम मँजे हुए इस कार्य में
ताकि उनका भी नाम विश्व पटल पर गूँजता रहे शब्दवत

फिर असलियत यह भी थी कि तानाशाह का फोता नहीं सहलानेवाले
तानाशाह के अंडकोश का मसाज नहीं करनेवाले मारे जा रहे थे
अमेरिकी एफ़ बी आई अमेरिकी सी आई ए के हाथों निर्ममता से

आज की तारीख़ में अमेरिकी ज्ञान अमेरिकी विज्ञान के अलावे
भारतीय ज्योतिष की लंपटई की कई-कई शाखाएँ
अपने अमेरिकापरस्त नेताओं की नाभि से निकलने लगी हैं
उनके द्वारा राष्ट्रीय राजमार्ग पर सुबह की दौड़ लगाते हुए

आपको आपके नेताओं के बारे यह सब सुन-जानकर बुरा लगा हो
तो चार झापड़ मार लें हत्या करवा दें फाँसी पर चढ़वा दें मेरी
मैं अपना पुराना स्कूटर रोके खड़ा हूँ इन्हीं राजमार्गों पर

या दादरी टाइप घटना के बहाने मेरे अब्बू को मरवा डालें
इसलिए कि चुनाव फिर नज़दीक है यानी हत्यारों का उत्सव क़रीब है

बॉस, मैं अकसर ग़लत नहीं कहता
और आप अकसर मुझसे नाराज़ हो जाते हैं

बॉस, मैं तो अमेरिका और अमेरिकी नीतियों का विरोध तब भी करूँगा
जब यहाँ की मीडिया उसकी कुनीतियों का समर्थन करेगी पुरज़ोर

इसलिए कि बॉस, यहाँ की मीडिया अमेरिका और अमेरिकी नीतियों का
विरोध करनेवालों को ही तानाशाह घोषित करती आई है लगातार
अपनी एक्सक्लूसिव ख़बरों को दिखाते हुए उत्साहित एकदम
ताकि जिस सरकार के ये चमचे हैं, वह सरकार ख़ुश रहे इनसे

तभी तो ज़्यादातर न्यूज़ चैनल सरकारी प्रवक्ता बने दिखाई देते हैं इन दिनों

जबकि बॉस, आपको तो दुनिया भर में बने और बसे
अमेरिकी सैनिक अड्डों के पैरोकारों की मुख़ालफ़त करनी चाहिए थी

मेरे भाई, सद्दाम हुसैन ने कर्नल गद्दाफ़ी ने अमेरिकी तानाशाही के ख़िलाफ़
अपना सिर ही तो उठाया था अपनी आँखें ही तो दिखाई थीं
बदले में अमेरिका ने उन्हें शहीद किया अपनी राक्षसी प्रवृति दिखाते हुए

बदले में एकदम खबरिया हमने भी तो उन्हें ही आतंकवादी घोषित किया

आप बहुत तेज़ हैं बॉस, आपकी इसी तेज़ी के कारण
हम भी तो मारे जाते रहे हैं अकसर सफ़दर हाशमी की तरह पाश की तरह
तो कभी रोहित वेमुला कभी नरेंद्र दाभोलकर की तरह
तो कभी किसी एनकाउंटर के बहाने

आप बहुत तेज़ हैं बॉस, आप तानाशाह के क़िले में नतमस्तक
बस मल्टीनैशनल की बिकाऊ ज़बान बोलते हैं अपने दिन-रात में
हमारी सचबयानी पर परमाणु हथियार तानते हुए

यही विडंबना है हमारे बीत रहे गुज़र रहे समय की
हमने हमारी स्मृतियाँ तक बेच डाली हैं तानाशाह के हाथों
और हर तानाशाह देश औरत का सीना दाबकर
निकल ले रहा है अपने से बड़े तानाशाह के क़िले की बग़ल से।
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दादरी*

दादरी में मैं रोना चाहता था
जिससे कि पूरी पृथ्वी सुन सके
मेरा रुदन मेरा विलाप

लेकिन मेरे भीतर की अथाह जलराशि
सूख चुकी थी वहाँ की नदी के साथ-साथ

जैसेकि दादरी का जीवंत संगीत
हत्यारे की मृत आत्मा में छटपटा रहा था
किसी जीवंत झरने की खोज में

दादरी जैसे बेसुध था इन दिनों
बेकार-सा महसूस रहा था
वहाँ की गई हत्या का कारण जानकर

लेकिन हत्यारा जो कोई था
उसे दादरी के वर्षों पुराने आपसी रिश्ते को
बचाने से अधिक ख़त्म करने में मज़ा आया

उसे मज़ा आया कवि लोगों की बनाई हुई
इस दुनिया को नष्ट करने में
जिसमें कि रोज़ मुस्कराते हुए चेहरे थे
न त्रासदी थी न शोक था न कुरूपता थी

मगर तय यह भी था उसी दादरी में
कल बिलकुल नया सूरज निकलेगा
एक बिलकुल नई नदी बहेगी झिलमिल
एक बिलकुल नया रिश्ता बनेगा मुहब्बत का

तय यह भी था हत्यारे ही मारे जाएँगे एक दिन
और पृथ्वी पर मेरी हँसी सुनाई देगी
जो मेरे घर के दरवाज़े खिड़कियों से निकल रही होगी

और वह लड़की अपना प्रेम पा लेगी फिर से।

*दादरी उत्तरप्रदेश के उस गाँव का नाम है, जहाँ कि एक मुस्लिम परिवार के घर पर दंगायों ने यह अफ़वाह फैलाकर हमला कर दिया था, कि उस घर में गोमाँस खाया गया है और दंगाइयों ने उस घर के मुखिया की हत्या भी कर दी थी। यह कविता सांप्रदायिक सौहार्द बनाए रखने के लिए यहाँ जारी की जा रही है। ये लेखक की अपनी भावना हैं, सर्वहारा के संपादक के अपने विचार नहीं। 
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राजा से पहले

राजा पहले भी हुआ करते थे
पृथ्वी की सेहत बिगाड़ने वाले
राजा अब भी हुआ करते हैं
पृथ्वी पर ख़ून बहाने वाले

इन राजाओं से पहले जनता हुआ करती थी
अच्छी हालत में अच्छे इतिहास के साथ

सच पूछिए तो इस पृथ्वी पर से
सारे प्रधानमंत्री को सारे राष्ट्राध्यक्ष को
खदेड़ना चाहता हूँ मार भगाना चाहता हूँ
क़ैद कर लेना चाहता हूँ तलातल में

इस पृथ्वी को रखना चाहता हूँ
सेनाओं सिपाहियों से मुक्त

हमारी धरती पर राजा हैं
तो जनता की फ़जीहत है
तिरस्कार है अपमान है

हमारी धरती पर राजा हैं
तो सेनाएँ हैं सरहदें हैं ज़ंजीरें हैं
परमाणु बम हैं घातक मिसाइलें हैं
एक मुल्क की दूसरे मुल्क से लड़ाइयाँ हैं

सिपाही हैं तो चोर हैं उठाईगीर हैं
हत्यारे हैं बलात्कारी भी हैं
इनका संरक्षण पाकर मोटे होते हुए

पृथ्वी को पृथ्वी रखने के लिए
मनुष्य को मनुष्य रहने के लिए
इस पुरातन संविधान को बदलना होगा

हवा को हवा रखने के लिए
पानी को पानी रहने के लिए
राजा को जनता होना ही होगा

ऐसा होना इसलिए भी ज़रूरी है
कि राजा पहले भी हुआ करते थे
राजा अब भी हुआ करते हैं
हमसे पेड़ों की छाया तक छिनते हुए

और सच इतना-सा ही बचा रह गया है
इस पृथ्वी पर इस नंगे आकाश के नीचे।
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शहंशाह आलम की पेंटिंग 

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