आंदोलनों,
विमर्शों और गुटों
से मुक्त हो साहित्य
डॉ. मोहसिन ख़ान
अभी
कुछ समय पहले से हिन्दी साहित्य में आंदोलनों और
विमर्शों का एक ज्वार उठा और उस ज्वार के तहत साहित्याकाश में या तो ज़बरदस्ती या
फ़ैशन के तौर पर या एक होड़ में कई रचनात्मक तथा आलोचनात्मक कृतियों की उछाल देखी गई
है। ऐसे आंदोलनों में दलित विमर्श, नारी विमर्श,
सांप्रदायिक विमर्श, मुस्लिम विमर्श आदिवासी विमर्श इत्यादि विमर्श केंद्र में रहे, परंतु
वे सब केवल विमर्श और सेमिनार के विषय बनकर ही रह गए उनसे समाज
का कोई चेहरा न बदला अंतत: रचनाकार अब इस विमर्शों से तंग आकार थकने और ऊबने लगे
तो स्वर सुनाई देने लगा कि अब यह विमर्श बंद किए जाएँ। स्वयं नामवर सिंह ऐसा कहते
हैं यह बात उन्होंने कई बार कई स्थलों पर की है, लेकिन इस लीक पर अब भी बहुत से
साहित्यकार अपने को घिसटते हुए चला रहे हैं और गौरव का अनुभव कर रहे हैं। इन
विमर्शों और आंदोलनों से उन्होंने अपना उल्लू बख़ूबी बड़ी चालाकी से सीधा कर लिया और
खूब प्रसिद्धि भी पाई। लेकिन ग़ौर करने कि बात यह है कि आचरण और भाषण में कोई
साम्यता उनके व्यवहार में नहीं देखी जा सकती है। आज भी दलित विमर्श की दो धड़ों
(दलित लेखक और गैर दलित लेखक) को किसी वास्तविक दलित से न तो कोई सरोकार है और न
ही उसकी व्यावहारिक हित-चिंता। ऐसा ही नारी विमर्श के साथ है,
मंच पर पूरी स्वतन्त्रता से बोलने वाली/वाला रचनाकार अथवा आलोचक अपने परिवार या
संबंधियों के प्रति सचेत है कि अधिक नारी स्वतन्त्रता किस प्रकार घातक है। जहां वह
मंच से पुरज़ोर पुकार लगा रहा है नारी स्वतन्त्रता की,
वहीं वह घर में जाकर निषेध की भूमिका अदा कर रहा है। मेकअप किए सोने से लदी-फदी
महिलाएँ आदिवासी स्त्रियों की चिंताएँ ज़ाहिर कर रही हैं। मुस्लिम विमर्शों को ग़ैरमुस्लिम
सांप्रदायिकता सद्भाव के तहत चला रहे हैं और भीतर से अब भी उतने ही विषैले बने हुए
हैं। यह सब देखकर सिर चकरा जाता है कि साहित्य का इतना लाभ उठाकर ये लोग साहित्य
का किस प्रकार भला कर सकते हैं। साहित्य की राजनीति तो जगज़ाहिर ही है कि किस
प्रकार गुटों और दलों का विभाजन हो गया है और दुर्ग द्वार पर रक्षक तैनात करते हुए
दुर्ग की रक्षा की जा रही है। साथ ही साहित्य की सत्ता का भी हस्तांतरण जारी है।
कहने का अभिप्राय यह है कि आज एक साहित्यकार दोहरे छल-छद्म की भूमिका अदा करते हुए
आत्म-मुग्ध है और अपने पट्ठों को भी पाल रहा है। वर्तमान में हिन्दी साहित्य में
बाज़ारवाद की दुहाई देकर बाज़ार को हेय, अनुपयोगी,
घातक और विनाशकारी सिद्ध करते हुए उसे एक
प्रेत के रूप में चित्रित किया जा रहा है। रचनाकार और आलोचक अपनी चिंताओं में इस
बाज़ार को कोस रहे हैं उसे एक भयानक वस्तु
बता रहे हैं, परंतु सचाई यह है कि वह स्वयं इस
बाज़ार की चपेट से मुक्त नहीं हैं और दूसरों को मुक्त करने का बीड़ा उठाए हुए हैं।
मेरा प्रश्न यही है कि क्यों एक रचनाकार इतनी दोहरी भूमिका का निर्वाह कर रहा है?
वह स्वयं बाज़ार से गुज़रते हुए बाज़ार की चमकदार वस्तुओं को देखकर ललचा रहा है और
अवसर आने पर नि:संकोच उसे प्राप्त भी कर रहा है। बाज़ार के इस शोर में मुझे कुछ और
भी सकारात्मक सुनाई दे रहा है। वह यह है
कि बाज़ार आज की शक्ति बनकर उभरा है, उसने प्रतिस्पर्धा में नई उन्नत
वस्तुएँ भी प्रदान की हैं और जीवन को सरल, सहज भी बनाया है। बाज़ार की अपनी एक
शक्ति है और सभ्यता अर्थ केन्द्रित होने के कारण बाज़ार का निर्माण और संचालन करती
है तथा करती रहेगी। सारे उत्पाद उद्योगों से निकलकर सीधे घर नहीं आ जाते,
उपभोक्ता तक पहुँचने का मात्र माध्यम बाज़ार ही है। बाज़ार कोई आज की संकल्पना तो
नहीं है, हाँ आज बाज़ार विकसित होते हुए अंतरराष्ट्रीय
स्तर पर पहुँच गया है। आज भारत और उसके नागरिक के समक्ष चुनौती भी है और अवसर भी
हैं, अब उसे निर्णय लेना है कि चुनौतियों के रहते कैसे
अवसर का लाभ ग्रहण किया जाए। यहाँ हिन्दी के साहित्यकारों ने बाज़ार का ऐसा रूप गठन
किया है कि अब बाज़ार को लेकर कुछ रचना साहित्यिक फ़ैशन बन गया है। जो रचनाएँ सहज
जीवन की बात करें उन पर अब बलात रूप से किसी न किसी विमर्श को जोड़ा जा रहा है या
बाज़ार के नाम के हवाले किया जा रहा है। साहित्यकार बाज़ार का लाभ बराबर उठा रहा है
परंतु अपनी कृतियों में निरंतर उसके अपयश को लेकर सक्रिय और सजग है। इधर
भूमंडलीकरण को लेकर तो साहित्य एकदम नकारात्मक भूमिका का निर्वाह करते हुए
भूमंडलीकरण को एक विदेशी भूत की संज्ञा दे रहा है। भूमंडलीकरण के सकारात्मक पक्षों
की कोई चर्चा नहीं कर रहा है। साहित्यकार यदि इसका विरोध कर रहा है तो इसके विकल्प
को क्यों नहीं प्रस्तुत कर रहा है। विकल्पों की खोज पहले करनी चाहिए और फिर उसका
विरोध करना उचित होगा। यदि आप किसी को ख़ारिज कराते हैं,
तो आपके पास स्थापना क्या है और उस स्थापना में कितने प्रतिशत विश्वसनीयता और विकास का
लक्षण है। मेरा मत यह है कि साहित्य को किसी ढर्रे, आंदोलन,
विमर्श, गुटों पर सक्रिय करने की बजाए उसे
जीवन से सहज स्फुरित किया जाए, उसे मानवीय संवेदना से गहरे स्तर
पर जोड़ा जाए ताकि साहित्य में जीवन का अब विलग स्वर भी सुनाई दे। हर कहानी,
कविता, उपन्यास को बड़ी चालाकी के साथ विमर्शों से,
आंदोलनों से, बाज़ार से जोड़ दिया जाता है,
रचनाकर भी यह मान लेता है कि यह कृति/रचना साहित्यिक धरातल पर चल निकलेगी
और आलोचक तो इसी प्रतीक्षा में बैठे है कि इन उपकरणों को कब काम में लाया जाए। आलोचक
अपनी समस्त लेखन शक्ति लगाकर उसे वर्तमान में चल रहे आंदोलनों से जोड़ देता है और
अपने कर्म की इतिश्री समझ लेता है। जिस तरह से साहित्य में गुटों का निर्माण हो गया
है उससे रचनात्मक ऊर्जा, दृष्टिकोण और विभिन्न आयामों को सीधा-सीधा
नुकसान है, यह बात साहित्यकार समझ नहीं पा रहे
हैं। देखने में आया है कि आधुनिक काल की शुरुआत से है हिन्दी साहित्य नकल और ढर्रे
पर चला, हमारी नवीन विधाओं के आविर्भाव की पृष्ठभूमि में पश्चिम के साहित्य की विधाओं
की नकल की गयी। कई वादों को भी यहाँ देखा जा सकता है चाहे भारत की परिस्थितियाँ रही
हों या न रही हों वैसा साहित्य यहाँ अनुकृति के आधार पर रचा गाय जैसे- अस्तितत्ववादी
साहित्य, उत्तरआधुनिकतावादी साहित्य। अस्तित्ववाद
की उपज और उसके साहित्य के पदार्पण का कारण प्रथम और द्वितीय विश्व-युद्ध के प्रभाव
की उपज था, जिससे भारत बहुत अधिक प्रभावित न हुआ
और न ही उसने सीधे-सीधे युद्ध में हिस्सा लिया। तब तो भारत उपनिवेशवाद से गुज़र रहा
था, पश्चात में वह अस्तित्ववाद से प्रभावित होता है
और साहित्य में अभिव्यक्ति प्रदान करता है। यह अभिव्यक्ति तात्कालिक न होकर पश्चिम
की नकल पर कई वर्षों बाद प्रारम्भ की गयी। अब ऐसा ही उत्तरआधुनिकतावाद के साथ हो रहा
है। साहित्यकार ज़बरदस्ती उत्तरआधुनिकतावाद को भारत में धकेल लाये और अंधाधुंध रूप से
उत्तरआधुनिकतावाद का गीत गाना प्रारम्भ कर दिया, जबकि भारत अभी आधुनिकतावाद की प्रक्रिया
से ही गुज़र रहा है और साहित्यकारों ने आलोचना में और रचनात्मक साहित्य में अपना योगदान
आँख मूंदकर देना प्रारम्भ कर दिया। जिस तरह से साहित्य को साहित्यकार जो रूप दे रहे
हैं वह वास्तव में प्रगतिशील कम और अपना स्वार्थ सिद्ध करनेवाला अधिक दिखाई दे रहा
है। जबकि वास्तव में होना ऐसा चाहिए कि साहित्यकार चौकन्ना होकर समाज के भीतर धँसे
और सामाजिक, राजनीतिक,
आर्थिक, सांस्कृतिक टकराहटों को खोज निकाले और
मानवीय जीवन की दुर्दशा, अत्याचार,
संघर्ष, शोषण का यथार्थ चित्र अंकित करे। यदि
वह ऐसा करता है तो ही साहित्य की सार्थकता, उचितता और उपयोगिता को निश्चित कर
पाएगा वरना विमर्शों की आड़ में वह लेखन करता रहेगा और आनेवाले समय में नई पीढ़ियाँ उसे
कालजयी साहित्य की श्रेणियों में कभी स्थापित न करेंगी और साहित्य कचरा बनकर रह जाएगा।
इसलिए बहुत ज़रूरी हो जाता है कि लेखक अपनी मौलिकता को पहचानते हुए उस दिशा में आगे
बढ़े जहां से वह मानव और उसके जीवन का वह रूप चित्रित कर सके जिससे उसके जीवन में बदलाव
आने के साथ विकास की दिशा भी तय कर सके। भले ही साहित्य जीवन को सीधे तौर पर बदल न
सके, लेकिन उस बदलाव की ओर संकेत तो कर ही सकता है।
डॉ. मोहसिन ख़ान
स्नातकोत्तर हिन्दी विभागाध्यक्ष
एवं शोध निर्देशक
जे.एस.एम. महाविद्यालय,
अलीबाग, ज़िला रायगढ़ (महाराष्ट्र) 402201
मोबाइल – 09860657970