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शनिवार, 10 दिसंबर 2016

कविता

डॉ. भरत प्रसाद

डॉ. भरत प्रसाद की कविताओं में मानवीय अस्तित्त्व के कई संदर्भों का मिलना; कविता के माध्यम से जीवन की स्थापना और चुनौतियों के समक्ष अकेले खड़े हो जाने के साहस के समान है। सत्ता, स्वार्थ और शासन व्यक्ति की स्वतन्त्रता को लील रहा है, भरत प्रसाद की कविताएँ इस प्रकार की घृणित अवस्था के विरुद्ध संघर्ष की आग को जलाए रखने का समर्थन करती हैं और व्यक्ति के भीतर सोये हुए उस अहम को जाग्रत करती हैं, जिसने अभी कुछ खोया नहीं, बल्कि पाने के लिए सारी दुनिया से संघर्ष करना है। 

सम्पादक- सर्वहारा (डॉ. मोहसिन ख़ान)
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1. प्रतिरोध अमर है

जब फुफकारती हुई मायावी सत्ता का आतंक
जहर के मानिंद हमारी शिराओं में बहने लगे,
जब झूठ की ताकत सच के नामोनिशान मिटाकर
हमारी आत्मा पर घटाटोप की तरह छा जाय,
जब हमारी जुबान फ़िजाओं में उड़ती दहशत की सनसनी से
गूंगी हो जाय,
जब हमारा मस्तक सैकड़ों दिशाओं में मौजूद तानाशाही की माया से
झुकते ही चले जाने का रोगी हो जाय,
तो प्रतिरोध अनिवार्य है!!!
अनिवार्य है वह आग जिसे इन्कार कहते हैं,
बेवशी वह जंजीर है जो हमें मुर्दा बना देती है
विक्षिप्त कर देती है वह पराजय,
जो दिन रात चमड़ी के नीचे धिक्कार बनकर टीसती है
गुलामी का अर्थ
अपने वजूद की गिरवी रखना भर नहीं है,
न ही अपनी आत्मा को बेमौत मार डालना है
बल्कि उसका अर्थ
अपनी कल्पना को अंधी बना देना भी है
अपने इंसान होने का मान यदि रखना है,
तो आँखें मूँद कर कभी भी पीछे पीछे मत चलना
हाँ हाँ की आदत अर्थहीन कर देती है हमें
जी जी कहते कहते एक दिन नपुंसक हो जाते हैं हम
तनकर खड़ा न होने की कायरता
एक दिन हमें जमीन पर रेंगने वाला कीड़ा बना देती है
जरा देखो ! कहीं अवसरवादी घुटनों में घुन तो नहीं लग गए हैं
पंजों की हड्डियां कहीं खोखली तो नहीं हो गयी हैं
हर वक्त झुके रहने से,
रीढ़ की हड्डी गलने तो नहीं लगी है
पसलियाँ चलते फिरते ढाँचे में तब्दील तो नहीं होने लगी हैं
जरा सोचो !
दोनों आँखें कहीं अपनी जगह से पलायन तो नहीं करने लगी हैं
अपमान की चोट सहकर जीने का दर्द
पूछना उस आदमी से
जो अपराध तो क्या अन्याय तो क्या
सूई की नोंक के बराबर भी झूठ बोलते समय
रोवां रोवां कांपता है। 
याद रखना
आज भी जालसाज की प्रभुसत्ता
सच्चाई के सीने पर चढ़कर उसकी गर्दन तोड़ते हुए
खूनी विजय का नृत्य करती है,
आज भी ऐय्याश षड्यंत्र के गलियारे में
काटकर फेंक दी गयी ईमानदारी की आत्मा
मरने से पहले सौ सौ आंसू रोती है
अपनी भूख मिटाने के लिए,
न्याय को बेंच बांचकर खा जाने वाले व्यापारी
फैसले की कुर्सी पर पूजे जाते हैं आज भी
आज का आदमी,
उन्नति के बरगद पर क्यों उल्टा नजर आता है। 
आज दहकते हुए वर्तमान के सामने
उसका साहसिक सीना नहीं
सिकुड़ी हुई पीठ नजर आती है
आज हम सबने अपनी अपनी सुरक्षित बिल ढूंढ ली है
जमाने की हकीकत से भागकर छिपने के लिए
इससे पहले कि तुम्हारे जीवन में
चौबीस घंटे की रात होने लगे
रोक दो मौजूदा समय का तानाशाह पहिया
मोड़ दो वह अंधी राह
जो तुम्हें गुमनामी के पागलखाने के सिवाय
और कहीं नहीं ले जाती
फिज़ा में खींच दो न बन्धु !
इन्कार की लकीर
आज तनिक लहरा दो न !
ना कहने वाला मस्तक
बर्फ की तरह निर्जीव रहकर
सब कुछ चुपचाप सह जाने का वक्त नहीं है यह।
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2. आत्म हत्या की सदी

मृत्यु का एहसास
मेरे हर दिन की हकीकत है
इसमें मैं हर पल जीता हूँ
यह मुझे हर पल खाती है
नसों में लावा की तरह बहती
कोई आग है यह
जिसे हर सांस पीता हूँ,
मुझसे कहिये न मौन
मैं काठ बन जाऊँगा
मुझसे कहिये न त्याग
मैं मिट्टी हो जाऊंगा,
मगर मुझसे मत कहियेगा हंसो
मैं रो भी नहीं पाऊंगा
पेट फ़ैल गया है शरीर में
माया की तरह,
भूख जैसी पीड़ा पूरे बदन से उठती है
हड्डी दर हड्डी में
मस्तक में इंच इंच
नाचती है भूख
आत्मा में गूंजता है मौत का अनहदपन
ह्रदय से धिक्कार उठती है अपने ही जीने पर
पानी अब पानी नहीं पेट का अन्न है
पत्थर मन भूला है
श्मशानी अतीत,
भूला है ह्रदय दीयों का बुझ जाना
देखा है देखा है
गांवों की अकाल मृत्यु
जीते जी टूटना ए टूट कर बिखर जाना।
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3. गूंगी आँखों का विलाप

आओ ए आओ !
तनिक उठाओ मेरी आत्मा को
सुलगा दो मेरी चेतना
झकझोर दो मेरी जड़ता
चूर चूर कर डालो मेरा पत्थर पन
तुम्हें पहचानने में कहीं देर न हो जाय
नहीं चलने दूंगा
तुम्हारे खिलाफ अपने मन की बेईमानी
नहीं बढ़ने दूंगा
तुम्हारे खिलाफ अपने उठे हुए कदम
नहीं सोने दूंगा
तुमसे बेफिक्र रहकर जीती हुई शरीर
मजाल क्या कि
तुम्हारे सपनों का सपना देखे बगैर
मेरी आँखें चैन से सो जाएँ
गहरी लकीरों से पटे
तुम्हारे निष्प्राण चेहरे का
असली गुनहगार कौन है ?
जीवन के हर मोर्चे पर
तुम्हारी शरीर को ढाल बनाने वाला
मेरे सिवा कौन है?
यह मैं ही हूँ
जो तुम्हें तुम्हारे ही देश से
बेदखल करता रहा हूँ निरंतर
भीतर बाहर से
टूट- टाट चुकी तुम्हारी शरीर को
सहलाने का जी क्यों करता है?
क्या है तुम्हारी आँखों में कि
सदियाँ विलाप करती हैं
तुम्हारा मौन चेहरा
हमें धिक्कारता ही क्यों रहता है ?
तुम्हारे मुड़े तुड़े ढाँचे को देखकर
मैं अपनी ही नजरों में क्यों गिरने लगता हूँ ?
रोम रोम पर दर्ज है
तुम्हारे खून पसीने का कर्ज
मिट ही नहीं सकते पृथ्वी से
तुम्हारे पैरों के निशान
गूंजता है सीने में
तुम्हारे सीधेपन का इतिहास
मचलता है मेरी आँखों में
तुम्हारी गूंगी आँखों का विलाप। 
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4. पहरेदार हूँ मैं

अगर कातिल के खिलाफ कुछ भी न बोलने की
तुमने ठान ली है
अगर हत्यारों को पहचानने से इन्कार करने पर
तुम्हें कोई आत्म ग्लानि नहीं होती
अगर लुटेरों को न ललकारने का
तुम्हें कोई पक्षतावा नहीं
अगर अन्धकार में जीना तुम्हें प्यारा लगने लगा है
तो जरा होश में आ जाओ
मेरे शब्द चौकीदार की तरह
तुम्हारे चरित्र के एक एक पहलू पर रात दिन पहरा देते हैं
तुम्हारी करतूतों के पीछे घात लगाए बैठे हैं वे
तुम तो क्या तुम्हारी ऊँची से ऊँची
धोखेबाज कल्पना भी
उनकी पकड़ से बच नहीं पायेगी
परत-दर-परत एक दिन खोल खालकर
तुम्हें नंगा कर देंगे मेरे शब्द
तुम दोनों हाथों से बर्बादी के बीज बोते हो
पता है मुझे
तुम्हारी दोनों आँखों को
बेहिसाब नफरत करने का रोग लग चुका है
तुम्हारे पैरों में रौंदने की सनक सवार है
तुम्हारी जीभ से हर वक्त ये लाल लाल क्या टपकता है ?
तुम्हारी सुरक्षा के लिए सत्ता ने पूरी ताकत झोंक दी है
आज तुम सबसे ज्यादा सुरक्षित हो
तुम्हारे इर्द गिर्द हवा भी
तुम्हारे विपरीत बहने से कांपती है
तुमने इंच दर.इंच
अपने बचाव के लिए दीवारें तो खड़ी कर दी हैं
फिर भी… फिर भी… फिर भी….
अपनी आसन्न मौत के भय से
सूखे पत्ते की तरह हाड़ हाड़ कांपते हो
पता है मुझे
यहाँ यहाँ इधर सीने के भीतर
रह रहकर लावा फूटता है
नाच नाच उठता है सिर
तुम्हारे खेल को समझते बूझते हुए भी
जड़ से न उखाड़ पाने के कारण
अन्दर अन्दर लाचार धधकता रहता है
अपने पेशे के माहिर खिलाड़ी हो लेकिन
अपने मकसद में कामयाब रहते हो लेकिन
घोषित तौर पर विजेता जरूर हो लेकिन
विचारों की मार भी कोई चीज होती है
सच की धार भी कोई चीज होती है
तुमसे लड़ लड़कर मर जाने के बाद
मैं न सही
मेरी कलम से निकला हुआ एक एक शब्द
तुम्हारी सत्ता और शासन के खिलाफ
मोर्चा दर मोर्चा बनाता ही रहेगा।
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5. मुस्कुराता है हत्यारा


हत्यारे आजकल हत्यारे नहीं लगते
हिंसक नहीं दिखते
अपराधी भी नहीं
अनपढ़ तो बिल्कुल नहीं
सिर से पाँव तक आदर्श की प्रतिमा लगते हैं हत्यारे
वे खूब समझते हैं प्राणों की कीमत
उन्हें पता है, मौत का दर्द
इंसानियत का ऐसा कोई पाठ नहीं
जो उनकी समझ से बाहर हो
परन्तु इन्हीं के पैरों तले मर रही है पृथ्वी
इन्हीं की छायाएँ नाच रही हैं लाल धरती पर
इतिहास के पन्ने-दर- पन्ने पर
पंजों के निशान
नफरत फूटती है इनकी आँखों से
साहसी आँखों के खिलाफ
दहकती है सीने में
तनी हुई गर्दनों की प्यास
हत्यारे कभी रोते नहीं
जल्दी हँसते भी नहीं
बस मुस्कुरा देते हैं,
अपने सपनों की सफलता पर
कभी भी, कहीं भी
किसी भी देश और किसी भी युग में
छाया की तरह होते हैं हत्यारे
हत्या से अधिक भयानक होती है
हत्यारों की मुस्कान।
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रचनाकार का परिचय- 
नाम - भरत प्रसाद
जन्म - 25 जनवरी, 1970 ई., ग्राम - हरपुर, जिला - संत कबीर नगर (उत्तर प्रदेश)
शिक्षा - एम. ए., एम. फिल. और पीएच. डी. जवाहरलाल नेहरू वि. वि. नई दिल्ली।
रुचियाँ - साहित्य, सामाजिक कार्य और पेंटिंग।
पुस्तकें - 1. और फिर एक दिन (कहानी संग्रह) इन्द्रप्रस्थ प्रकाशन, दिल्ली,2004 ई. (पुरस्कृत), 2. देसी पहाड़ परदेसी लोग (लेख संग्रह) शिल्पायन प्रकाशन, दिल्ली, (उ. प्र.) वर्ष - 2007 ई. (पुरस्कृत), 3. एक पेड़ की आत्मकथा (काव्य संग्रह) अनामिका प्रकाशन, इलाहाबाद, (उ. प्र.) वर्ष - 2009 ई. (पुरस्कृत)
4. नई कलम: इतिहास रचने की चुनौती (आलोचना) अनामिका प्रकाशन, इलाहाबाद, (उ. प्र.) वर्ष - 2012 ई., 5. सृजन की इक्कीसवीं सदी (लेख संग्रह) नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली, (उ. प्र.) वर्ष - 2013 ई., 6. बीच बाजार में साहित्य: (लेख संग्रह), शिल्पायन पब्लिशर्स एण्ड डिस्टीªब्यूटर्स, दिल्ली, 2016 ई., 7. चौबीस किलो का भूत: (कहानी संग्रह), साहित्य भंडार, इलाहाबाद, 2016 ई.,8. कहना जरूरी है (विचार ) प्रतिश्रुति प्रकाशन , कलकत्ता , २०१६ ई.
प्रकाशित रचनाएं: हिन्दी साहित्य की लगभग सभी महत्वपूर्ण पत्रिकाओं में लेखों, कविताओं एवं कहानियों का निरंतर प्रकाशन।
सम्पादन : ‘जनपथ’ पत्रिका के युवा कविता विशेषांक - ‘सदी के शब्द प्रमाण’ का सम्पादन - 2013 ई.।
पुरस्कार : 
1. सृजन-सम्मान - 2005 ई. रायपुर (छत्तीसगढ़)
2. अम्बिका प्रसाद दिव्य रजत अलंकरण, वर्ष- 2008 ई. भोपाल (मध्यप्रदेश)
3. युवा शिखर सम्मान - 2011, शिमला (हिमाचल प्रदेश)
4. मलखान सिंह सिसौदिया कविता पुरस्कार - 2014 ई., अलीगढ़, (उ.प्र.)
5. पूर्वोत्तर साहित्य परिषद् पुरस्कार, शिलांग (मेघालय)
स्तम्भ-लेखन : 
1. ‘परिकथा’ पत्रिका के लिए ‘ताना-बाना’ शीर्षक से स्तम्भ-लेखन (200
2 . ‘लोकोदय’ पत्रिका के लिए ‘गहरे पानी पैठि’ शीर्षक से स्तम्भ लेखन।
रचना-अनुवाद : लेख और कविताओं का अंग्रेजी, बांग्ला एवं पंजाबी भाषाओं में अनुवाद।
स्थायी पता : 
ग्राम-हरपुर, पोस्ट - पचनेवरी, जिला- संतकबीर नगर, 272271 (उ.प्र.)
संप्रति एवं वर्तमान पता: 
एसोसिएट प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, पूर्वोत्तर पर्वतीय विश्वविद्यालय,
शिलांग, 793022 (मेघालय)
फोन - 0364-2726520 (आवास), मो. 09863076138, 09774125265
ई-मेल: deshdhar@gmail.com
bharatprasadnehu@gmail.com

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