सूचना

'सर्वहारा' में हिन्दी भाषा और देवनागरी लिपि में साहित्य की किसी भी विधा जैसे- कहानी, निबंध, आलेख, शोधालेख, संस्मरण, आत्मकथ्य, आलोचना, यात्रा-वृत्त, कविता, ग़ज़ल, दोहे, हाइकू इत्यादि का प्रकाशन किया जाता है।

गुरुवार, 9 जनवरी 2014

ग़ज़ल

एक रास्ता पहुँचता है गाँव के घर को ।
जाने कब छोड़ेंगे हम इस शहर को ।

धूल, धुँआ, तंग गलियाँ और गंदी बस्ती,
जमा करते हैं रोज़ बदन में ज़हर को ।

नामों के साथ शक्लें भी उतरीं ज़हन से,
देखूँ तस्वीरें तो धोखा होता है नज़र को ।

कैसी अजनबीयत और तन्हाई घुल गई,
जैसे कोई खारा कर रहा हो समन्दर को ।

उगता सूरज निकलता चाँद नहीं दिखता,
कोई मौसम भी कहाँ आता है इधर को ।

'तन्हा' यूँ न कोई क़िस्तों में जीना ज़िन्दगी,
मर ही गए बेमौत कैसे पहुँचाएँ ख़बर को ।

मोहसिन 'तन्हा'

हिन्दी विभागाध्यक्ष  
जे.एस.एम. महाविद्यालय
अलीबाग (महाराष्ट्र) 402201
09860657970     

रविवार, 5 जनवरी 2014

ग़ज़ल

ऊँचा उसका क़द हो गया ।
ग़ुरूर उसे बेहद  हो गया ।

ख़ौफ़ से  सिर  झुकवाकर,
अवाम का समद हो गया ।

फैलाकर  सूबे  में  दहशत,
गुनाहों का सनद हो गया ।

जिसने  हाथ रंगे  थे ख़ून से,
गवाहों में नामज़द हो गया ।

खिलाफ़ते क़ौमपरस्तिश में,
'तन्हा'  क्यों  बद हो गया ।


-----------------------------------------------------------------------


क्या बात बुरी लगी ज़माने की ।

जो भुलादी आदत मुस्कुराने की ।



दीवार  बनके  खड़ी  है मुसीबत,


फ़िर हो एक कोशिश गिराने की ।



लगाकर  गले  भुलादो  रंजिशें,


बात हो  नफ़रतें  मिटाने  की ।



दहशदगर्दी  के  नाम पे क़त्ल,


ज़रुरत है  मुद्दआ  उठाने की ।



झुलसा है मुल्क़  कौमी  दंगों में,


चल रही है साज़िश जलाने की।



'तन्हा' करता है दुआ रोज़ रब से,


कोई  न हो वज्ह आज़माने  की ।



 मोहसिन तन्हा
डॉ. मोहसिन ख़ान
सहायक प्राध्यापक हिन्दी 
जे.एस.एम. महाविद्यालय
अलीबाग (महाराष्ट्र) 402201

09860657970     khanhind01@gmail.com

शनिवार, 4 जनवरी 2014

ग़ज़ल

तुम ही आँखें हमसे चुराते  रहे ।
हम फ़िर भी हाथ मिलाते रहे ।

तोड़ना  चाहा  रिश्ता  ख़ून का,
जाने क्या सोचकर निभाते रहे ।

तेरे गुनाहों में हम भी हैं शरीक़,
ताले क्यों  ज़ुबाँ पे लगाते  रहे ।

बादे ख़ुदा तुझपे किया ऐतबार,
तेरी पनाहों में सिर झुकाते रहे ।

अपने  बचपन से है  मुझे नफ़रत,
हालात रोटी को भी तरसाते रहे ।

तक़ाज़ों की नोकों से हुआ ज़ख़्मी,
दहलीज़ पे तेरी गिड़गिड़ाते रहे ।

जिस्म से हटकर रूह में चिपकी,
जितनी उतरनें मुझे पहनाते रहे ।

कितना तन्हाथा उन दिनों जब,
शर्म से वालिद मुँह  छुपाते  रहे ।

मोहसिन तन्हा

डॉ. मोहसिन ख़ान
हिन्दी विभागाध्यक्ष  
जे.एस.एम. महाविद्यालय
अलीबाग (महाराष्ट्र) 402201
09860657970     khanhind01@gmail.com