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रविवार, 27 नवंबर 2016

कविता

1. कुछ समुदाय हुआ करते हैं  ( रोहित वेमुला को समर्पित )
सुशांत सुप्रिय

                                                          
कुछ समुदाय हुआ करते हैं
जिनमें जब भी कोई बोलता है
' हक़ ' से मिलता-जुलता कोई शब्द
उसकी ज़ुबान काट ली जाती है,
जिनमें जब भी कोई अपने अधिकार माँगने
उठ खड़ा होता है
उसे ज़िंदा जला दिया जाता है। 

कुछ समुदाय हुआ करते हैं
जिनके श्रम के नमक से
स्वादिष्ट बनता है औरों का जीवन
किंतु जिनके हिस्से की मलाई
खा जाते हैं,
कुल और वर्ण की श्रेष्ठता के
स्वयंभू ठेकेदार कुछ अभिजात्य वर्ग। 


सबसे बदहाल, सबसे ग़रीब
सबसे अनपढ़ , सबसे अधिक
लुटे-पिटे करोड़ों लोगों वाले
कुछ समुदाय हुआ करते हैं,
जिन्हें भूखे-नंगे रखने की साज़िश में
लगी रहती है एक पूरी व्यवस्था। 

वे समुदाय
जिनमें जन्म लेते हैं बाबा साहेब अंबेडकर
महात्मा फुले और असंख्य महापुरुष
किंतु फिर भी जिनमें जन्म लेने वाले
करोड़ों लोग अभिशप्त होते हैं,
अपने समय के खैरलाँजी या मिर्चपुर की
बलि चढ़ जाने को। 

वे समुदाय
जो दफ़्न हैं
शॉपिंग माॅल्स और मंदिरों की नींवों में
जो सबसे क़रीब होते हैं मिट्टी के
जिनकी देह और आत्मा से आती है,
यहाँ के मूल बाशिंदे होने की महक
जिनके श्रम को कभी पुल, कभी नाव-सा
इस्तेमाल करती रहती है,
एक कृतध्न व्यवस्था
लेकिन जिन्हें दूसरे दर्ज़े का नागरिक
बना कर रखने के षड्यंत्र में
लिप्त रहते हैं कई वर्ग। 


आँसू, ख़ून और पसीने से सने
वे समुदाय माँगते हैं,
अपने अँधेरे समय से
अपने हिस्से की धूप
अपने हिस्से की हवा
अपने हिस्से का आकाश
अपने हिस्से का पानी
किंतु उन एकलव्यों के
काट लिए जाते हैं अंगूठे
धूर्त द्रोणाचार्यों के द्वारा। 

वे समुदाय
जिनके युवकों को यदि
हो जाता है प्रेम
समुदाय के बाहर की युवतियों से,
तो सभ्यता और संस्कृति का दंभ भरने वाली
असभ्य सामंती महापंचायतों के मठाधीश
उन्हें दे देते हैं मृत्यु-दंड। 

वे समुदाय
जिन से छीन लिए जाते हैं
उनके जंगल, उनकी नदियाँ , उनके पहाड़
जिनके अधिकारों को रौंदता चला जाता है,
कुल-शील-वर्ण के ठेकेदारों का तेज़ाबी आर्तनाद। 

वे समुदाय जो होते हैं
अपने ही देश के भूगोल में विस्थापित
अपने ही देश के इतिहास से बेदख़ल
अपने ही देश के वर्तमान में निषिद्ध
किंतु टूटती उल्काओं की मद्धिम रोशनी में,
जो फिर भी देखते हैं सपने
विकल मन और उत्पीड़ित तन के बावजूद
जिन की उपेक्षित मिट्टी में से भी
निरंतर उगते रहते हैं सूरजमुखी। 

सुनो द्रोणाचार्यो
हालाँकि तुम विजेता हो अभी
सभी मठों पर तैनात हैं,
तुम्हारे ख़ूँख़ार भेड़िए
लेकिन उस अपराजेय इच्छा-शक्ति का दमन
नहीं कर सकोगे तुम
जो इन समुदायों की पूँजी रही है सदियों से
जहाँ जन्म लेने वाले हर बच्चे की
आनुवंशिकी में दर्ज है,
अन्याय और शोषण के विरुद्ध
प्रतिरोध की ताक़त। 

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 2. मासूमियत
                                   
मैंने अपनी बाल्कनी के गमले में
वयस्क आँखें बो दीं
वहाँ कोई फूल नहीं निकला
किंतु मेरे घर की सारी निजता
भंग हो गई। 

मैंने अपनी बाल्कनी के गमले में
वयस्क हाथ बो दिए
वहाँ कोई फूल नहीं निकला
किंतु मेरे घर के सारे सामान
चोरी होने लगे। 

मैंने अपनी बाल्कनी के गमले में
वयस्क जीभ बो दी
वहाँ कोई फूल नहीं निकला
किंतु मेरे घर की सारी शांति
खो गई। 

हार कर मैंने अपनी बाल्कनी के गमले में
एक शिशु मन बो दिया
अब वहाँ एक सलोना सूरजमुखी
खिला हुआ है। 
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3. जो नहीं दिखता दिल्ली से
                              
बहुत कुछ है जो
नहीं दिखता दिल्ली से,

आकाश को नीलाभ कर रहे पक्षी और
पानी को नम बना रही मछलियाँ
नहीं दिखती हैं दिल्ली से। 

विलुप्त हो रहे विश्वास
चेहरों से मिटती मुस्कानें
दुखों के सैलाब और
उम्मीदों की टूटती उल्काएँ
नहीं दिखती हैं दिल्ली से। 

राष्ट्रपति भवन के प्रांगण
संसद भवन के गलियारों और
मंत्रालयों की खिड़कियों से,
कहाँ दिखता है सारा देश,

मज़दूरों-किसानों के
भीतर भरा कोयला और
माचिस की तीली से,
जीवन बुझाते उनके हाथ
नहीं दिखते हैं दिल्ली से,

मगरमच्छ के आँसू ज़रूर हैं यहाँ
किंतु लुटियन का टीला
ओझल कर देता है आँखों से
श्रम का ख़ून-पसीना और
वास्तविक ग़रीबों का मरना-जीना। 

चीख़ती हुई चिड़ियाँ
नुचे हुए पंख
टूटी हुई चूड़ियाँ और
काँपता हुआ अँधेरा
नहीं दिखते हैं दिल्ली से। 

दिल्ली से दिखने के लिए
या तो मुँह में जयजयकार होनी चाहिए
या फिर आत्मा में धार होनी चाहिए। 
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4. कठिन समय में
                       
बिजली के नंगे तार को छूने पर
मुझे झटका लगा
क्योंकि तार में बिजली नहीं थी। 

मुझे झटका लगा इस बात से भी कि
जब रोना चाहा मैंने तो आ गई हँसी
पर जब हँसना चाहा तो आ गई रुलाई। 

बम-विस्फोट के मृतकों की सूची में
अपना नाम देख कर फिर से झटका लगा मुझे :
इतनी आसानी से कैसे मर सकता था मैं,

इस भीषण दुर्व्यवस्था में
इस नहीं-बराबर जगह में
अभी होने को अभिशप्त था मैं ...
जब मदद करना चाहता था दूसरों की
लोग आशंकित होते थे यह जानकर
संदिग्ध निगाहों से देखते थे मेरी मदद को
गोया मैं उनकी मदद नहीं
उनकी हत्या करने जा रहा था। 

बिना किसी स्वार्थ के मैं किसी की मदद
कैसे और क्यों कर रहा था
यह सवाल उनके लिए मदद से भी बड़ा था

ग़लत जगह पर सही काम करने की ज़िद लिए
मैं किसी प्रहसन में विदूषक-सा खड़ा था!!!

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रचनाकर का परिचय 
नाम : सुशांत सुप्रिय
जन्म : 28 मार्च , 1968 शिक्षा : अमृतसर ( पंजाब ) , व दिल्ली में ।
प्रकाशित कृतियाँ :
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# हत्यारे ( 2010 ) , हे राम ( 2013 ) , दलदल ( 2015 ) : तीन कथा - संग्रह ।
# इस रूट की सभी लाइनें व्यस्त हैं ( 2015 ) ,अयोध्या से गुजरात तक ( 2016 ): दो काव्य-संग्रह ।
सम्मान :
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भाषा विभाग ( पंजाब ) तथा प्रकाशन विभाग ( भारत सरकार ) द्वारा रचनाएँ पुरस्कृत। कमलेश्वर-कथाबिंब कहानी प्रतियोगिता ( मुंबई ) में लगातार दो वर्ष  प्रथम पुरस्कार। स्टोरी-मिरर.कॉम कथा प्रतियोगिता , 2016 में कहानी पुरस्कृत ।
अन्य प्राप्तियाँ :
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# कई कहानियाँ व कविताएँ अंग्रेज़ी , उर्दू , पंजाबी, उड़िया, मराठी, असमिया , कन्नड़ , तेलुगु व मलयालम आदि भाषाओं में अनूदित व प्रकाशित । कहानियाँ केरल के कलडी वि.वि. ( कोच्चि ) के एम.ए. (हिंदी), तथा मध्यप्रदेश , हरियाणा व महाराष्ट्र के कक्षा सात व नौ के हिंदी पाठ्यक्रम में शामिल । कविताएँ पुणे वि. वि. के बी. ए.( द्वितीय वर्ष ) के पाठ्य-क्रम में शामिल । कहानियों पर आगरा वि. वि. , कुरुक्षेत्र वि. वि. , पटियाला वि. वि. , व गुरु नानक देव वि. वि. , अमृतसर के हिंदी विभागों में शोधार्थियों द्वारा शोध-कार्य ।
# अंग्रेज़ी व पंजाबी में भी लेखन व प्रकाशन । अंग्रेज़ी में काव्य-संग्रह  ' इन गाँधीज़ कंट्री ' प्रकाशित । अंग्रेज़ी कथा-संग्रह ' द फ़िफ़्थ डायरेक्शन ' और अनुवाद की पुस्तक 'विश्व की श्रेष्ठ कहानियाँ' प्रकाशनाधीन ।
ई-मेल : sushant1968@gmail.com
मोबाइल : 8512070086

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पता: A-5001,गौड़ ग्रीन सिटी, वैभव खंड, इंदिरापुरम ,
ग़ाज़ियाबाद - 201014 ( उ. प्र. )

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शनिवार, 12 नवंबर 2016

लेख- मीडिया की स्वतन्त्रता और जनतन्त्र

तेजस पूनिया
वर्तमान समय वाक़ई टीवी की दुनिया के लिए अँधेरा बनकर सामने आ रहा है। एक ओर अभिव्यक्ति की आजादी और दूसरी और उन्हीं पर बैन, वो भी किसी एक ही चैनल या व्यक्ति, समुदाय विशेष पर। हालिया दिनों में घट रही घटनाओं पर नज़र दौड़ाई जाए और उनके बारे में अथॉरिटी (सरकार) से आप पूछने जाएँ तो आपका मिलेगा। "बाबा जी का ठुल्लू" राजनीति की आड़ में पत्रकार सबसे पहले निशाना बनाए जाते हैं। तेजस पुनिया का आलेख वर्तमान संदर्भों में मीडिया पर हो रहे अमानवीय आक्रमणों के संदर्भ में देखा जा सकता है।
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लोकतंत्र की गाड़ी के तीन पहिए होते हैं- विधायिका, कार्यपालिका, न्याय पालिका और इसके बाद चौथा स्तम्भ आता है, जिसे मीडिया कहते हैं। जिनको चलाने वाला गाड़ीवान बना- संविधान। संविधान की आत्मा है- न्याय भाव। भारत में इसी तरह जीवन के चार पुरुषार्थ बताये गए हैं। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष। इनका संचालक है धर्म। धर्म की आत्मा है। मंगलभाव। संविधान साधुमत होता है, जो लोकमत को अनुशासित रखता है। धर्म, नैतिक मूल्य होता है, जो अर्थ और काम को नियंत्रित रखता है। जिसे हम साहित्य, कथा-दर्शन आदि कहते हैं, उनका संबंध 'साधुमत' और 'नैतिक मूल्य' से जुड़ता है। (दस्तावेज- 114 जनवरी-मार्च 2007)
21वीं सदी सूचना तंत्र की है। सूचना के नवीन उपकरण सामाजिक आधिपत्य, सायबर साम्राज्यवाद एवं सामाजिक संरचनाओं तथा उत्तर आधुनिक सामाजिक क्रिया कलापों के वाहक हैं। 21वीं सदी की केंद्रीय धूरी ही जनसंचार है। यह एक ऐसा कौशल तथा भौतिक उपक्रम है; जो सूचना को एकत्र करके उनका प्रसंस्करण, हस्तांतरण व सृजन करता है तथा पुरानी सूचनाओं को सुरक्षित रख नवीन सूचनाओं के पुनः उत्पादन का कार्य करता है। आधुनिक मिडिया ने बढ़ते वैश्विक बाजारों को देखते हुए विश्व स्तर पर अमेरिकीकरण की प्रक्रिया को प्रोत्साहित व प्रोन्नत किया है। 1999 के सियेटल प्रतिवाद की प्रौद्योगिकी व्याख्या से अलग अंतर्दृष्टि विकसित करें तो नवीन मीडिया संस्कृति का राजनीतिक-आर्थिक विश्लेषण आज अत्यावश्यक है। पूर्व उत्तराधिकारियों की तरह नवीन प्रौद्योगिकी का उद्भव तथा आदर्श, विरोधाभासी व संघर्ष युक्त है। भारत में सूचना क्रांति और संचार क्रांति का आर्थिक उदारीकरण की प्रक्रिया से गहरा संबंध है। आर्थिक उदारीकरण के परिणाम स्वरूप बहुराष्ट्रीय संचार एवं सूचना कम्पनियों को देश में अबाध व्यापार करने की छूट मिली और आज सूचना तकनीक का प्रवेश आत्मनिर्भरता और राष्ट्रीय संप्रभुता के लिए खतरे पैदा कर रहा है। राष्ट्रीय हितों की चिंता किये बगैर मनमाने ढंग से सूचना तकनीकी रूपों को देश में व्यवहार में लाया जा रहा है।
जनसंपर्क के ऐतिहासिक विकास का काल विभाजन करने पर हम निम्न प्रकार से उसे देख पाते हैं। जनसम्पर्क का प्रारम्भ अर्थात आदिकाल / अथवा जिसे आप प्राचीनकाल भी कह सकते हैं। आरम्भ से 1500 ई० तक चला। तत्पश्चात मध्यकाल 1500 से 1900 ई० और फ़िर आया आधुनिककाल जो अब तक चल रहा है। किन्तु इसमें भी दो भाग बने स्वतंत्रता से पूर्व का काल पूर्व स्वातंत्र्य काल 1901 से 1947 इसके बाद का काल उत्तर स्वातंत्र्य काल  जी कि आज़ादी के ठीक बाद से निरन्तर प्रगति करता हुआ आ रहा है। आज़ादी के बाद के काल ने हमें मोबाइल, कम्प्यूटर, टी.वी., रेडियो, इंटरनेट इत्यादि सभी उपकरण एवं मीडियाई माध्यम से आधुनिक से उत्तर आधुनिक बनाया। उत्तर आधुनिकता को लेकर ही "कलम कैमरा और बलात्कार लेख में वर्तिका नन्दा लिखती हैं- "तुरंत हंगामा करना और फिर भूल जाना मीडिया की फ़ितरत है। याद कीजिए 15 अक्टूबर 2003 का वह दिन जब न्यूज़ मीडिया के हाथ एक धमाकेदार खबर लगी थी। ख़बर थी - सिरीफोर्ट ऑडिटोरियम के पार स्विट्जरलैंड की एक राजनयिक का बलात्कार होना।"
वर्तिका नंदा के अन्य लेख मुंबई काण्ड : जाग गया हिंदुस्तान, पकती खबर में अधकचरे सच, खुद की खबर पर खामोश मीडिया। इत्यादि सभी भीतरी सच्चाइयाँ बयाँ करते नज़र आते हैं। मीडिया के आधुनिकरण की ओर लौटते कदमों को ध्यान में एखकर ही शायद धूमिल और अकबर इलाहाबादी ने यह सब कहा होगा- 
"लोकतंत्र हमारे यहाँ
एक ऐसी धानी है।
जिसमें आधा तेल
आधा पानी है।"
(धूमिल)
"जब तोप मुक़ाबिल हो तो अख़बार निकालो।" 

(अकबर इलाहाबादी)

और वहीं इसके दूसरे और लोकतंत्र का मख़ौल उड़ाते हुए 'रघुवीर सहाय' लिखते हैं।
"लोकतंत्र का अंतिम क्षण है!
कहकर आप हँसे!"

'जी हाँ हुजूर मैं ख़बर बेचता हूँ, किस्म-किस्म की ख़बर बेचता हूँ। लेख में डॉ० लता शिरोडकर खबरों के बाजारीकरण से बाजारू बन रही भाषा पर चिंता व्यक्त करती हैं और कहती हैं। आज की संचार क्रांति बाजारोन्मुख है। जहाँ ज्ञान, सूचना, जनता की अभिव्यक्त आदि बातें गौण हैं। इसी कड़ी में आगे सुधीर पचौरी अपनी किताब 'मीडिया जनतंत्र और आतंकवाद' के पहले ही अध्याय में कारगिल युद्ध का वर्णन करते हुए उसके प्रसारण के इलेक्ट्रानिक मीडिया को मुखरता से अभिव्यक्त करते हुए लिखते हैं। जो आज की सच्चाई भी है- "एक दैनिक एक्शन सीरियल की तरह आता है। कारगिल युद्ध। अट्ठाईस साल बाद एक नायक, एक सचमुच का हीरो मिल रहा है हमें। बहुत आराम से हम उसे बनता और मरता देखते हैं। जो जाता है तिरंगों के कफ़न में लिपटकर आता है। इससे अधिक दारुण कुछ नहीं हो सकता। कि अठारह बीस साल के बच्चे लाशों में बदल जाते हैं। और कुछ किस्से बचे रह जाते हैं। जिन्हें हम फिर सीरियलों या फिल्मों में देखेंगे। हर तरफ़ की धोखाधड़ी के जीवन में अब भी ऐसे मासूम लोग बचे हैं। जो वाकई जान पर खेल जाते हैं' ...... आखिर ऐसी नोबत आई क्यूँ? जब सुधीर पचौरी के इस लेख को अध्याय को पढ़ते हैं। तो वर्तमान समय में पत्रकारों की खो रही आवाज़ भी मद्धिम सी दिखाई पड़ती हैं। जहाँ पूरे देश में आज बामुश्किल 10-20 स्वतंत्र पत्रकार बचे हैं। वर्तमान समय वाक़ई टीवी की दुनिया के लिए अँधेरा बनकर सामने आ रहा है। एक ओर अभिव्यक्ति की आजादी और दूसरी और उन्हीं पर बैन। वो भी किसी एक ही चैनल या व्यक्ति, समुदाय विशेष पर। हालिया दिनों में घट रही घटनाओं पर नज़र दौड़ाई जाए और उनके बारे में अथॉरिटी (सरकार) से आप पूछने जाएँ तो आपका मिलेगा। "बाबा जी का ठुल्लू" राजनीति की आड़ में पत्रकार सबसे पहले निशाना बनाए जाते हैं। क्योंकि एक पत्रकार ही हमें न जाने कहाँ कहाँ से खबरें लाकर दिखाता है, बताता है। उसी पर जब पाबंदियां लगने लगें तो आप समझ सकते हैं। हवा केवल दिल्ली की ही नहीं अपितु सम्पूर्ण भारत की ख़राब बह रही है। जिसमें हुकूमत का डर सबसे ज़्यादा है। आधुनिक से उत्तर आधुनिक होते इस मीडिया युग में आज हजारों,लाखों की तादात में समाचार कई तरह से जनता के समक्ष दिन भर आते रहते हैं। जिसमें सबसे बड़ा हाथ मोबाइल का है। जहाँ एक क्लिक पर दुनिया तबाह हो जाने का खतरा तक है। आज हमें तय करना ही होगा किस ओर हैं हम। और हमारी पॉलिटिक्स क्या है?
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परिचय 
नाम- तेजस पूनिया
जन्म- 7 नवम्बर 1992 श्री गंगानगर (राजस्थान)
प्रारम्भिक शिक्षा - श्री गंगानगर
उच्च शिक्षा/ स्नातक - बी.ए हिंदी ऑनर्स (किरोड़ीमल महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय)
स्नातकोत्तर- हिंदी विभाग , भाषा एवं मानविकी अध्ययन केंद्र, राजस्थान केंद्रीय विश्विद्यालय
विविध- कई राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय सेमिनारों में भागीदारी एवं पेपर प्रस्तुति, कविताएँ अंतरराष्ट्रीय ई-पत्रिका जनकृति (विमर्श केंद्रित अंतरराष्ट्रीय मासिक ई-पत्रिका) में प्रकाशित
कुछ अन्य कविताएँ राष्ट्रीय त्रैमासिक ई- पत्रिका में प्रकाशित एवं अन्य लेख आदि।

संपर्क 
तेजस पुनिया 
स्नातकोत्तर हिंदी (पूर्वार्ध)
हिंदी विभाग
भाषा एवं मानविकी अध्ययन केंद्र
राजस्थान केंद्रीय विश्वविद्यालय,

किशनगढ़- अजमेर
सम्पर्क +919166373652
+918802707162
ईमेल- tejaspoonia@gmail.com

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यह लेखक के अपने विचार हैं, जिससे सहमत-असहमत हुआ जा सकता है। सर्वहारा इन विचारों के प्रकाशन के प्रति ज़िम्मेदार है न कि मान्यताओं के। 

शनिवार, 5 नवंबर 2016

कविता

डॉ. प्रवीण चंद्र बिष्ट
                  बिखरते संबंध





आज मेरे सामने बार-बार एक प्रश्न खड़ा होता है।

विश्वासों की नींव पर खड़े रिश्ते,

क्यों बिखरने के लिए बेताब दिखते हैं,

क्या इस बिखराव के पीछे आपको 

कोई अतृप्त इच्छा की बू नहीं आती ?

और आज के औद्यौगीकरण के दौर में

बाजार की चकाचौंध को घर में समेट पाना,

सामान्य व मध्य वर्ग के लिए टेड़ी खीर नहीं है ?

लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं कि

तुम किसी भी कीमत पर औरों से

अपनों के विश्वास का गला घोंटकर, 

जो दिलों जान से चाहता है तुम्हें

जिसने अपनी इंद्रियों को नियंत्रित रखने के लिए,

अपने आप को रात-दिन व्यस्त रखा है,

क्या उसके साथ यह विश्वासघात नहीं ?

आपने कभी सोचा भी है कि

औरों के साथ अकेले में बिताए

ये क्षणिक खुशी के पल

आपके सम्पूर्ण जीवन की खुशियों पर सेंध लगा सकती हैं,

माना की आज संपर्क साधने के लिए

जन-संचार जैसा  सशक्त माध्यम हमारे बीच है,

जो हमारे शैतानी दिमाग को

मर्यादाओं को लांघने के लिए विवश करता है

और यदि हम इसके शिकार हो गए तो

आपनों का विश्वास छूट जाता है, प्रेम रूठ जाता है

यदि कुछ बचता है तो वह है,

अकेलापन, क्षत-विक्षत प्रेम और ग्लानि भरी मायूसी ।

अथवा सदा अपनों का साथ छूटने का भय ।
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संपर्क-

डॉ. प्रवीण चंद्र बिष्ट

अध्यक्ष, हिन्दी विभाग

रामनारायण रुइया महाविद्यालय

माटुंगा, मुम्बई 

दोहे

विश्वम्भर पाण्डेय 'व्यग्र'
बादल में बिजुरी छिपी,अर्थ छिपा ज्यूँ छन्द।
वैसे जीवन में छिपा , नर तेरा प्रारब्ध।।

रिश्ते, रिसते ही रहे , रीत गया इंसान।
आपाधापी स्वार्थ की,भूल गया पहचान।।

देह-नेह की कचहरी, मन से मन की रार।
क्या फर्क पड़ता उसे, जीत मिले या हार।।

चूल्हा अपनी आग से, सदा मिटाये भूख।
लगी आग विद्वेष की, राख हुये सब रूख।।

प्रश्नचिह्न से दिन लगे , सम्बोधन सी रात।
अल्पविराम सी शाम है,विस्मय हुआ प्रभात।।

सपनों सी लगने लगी , वो रात की नींद।
मानों बूढ़े पेड़ की , नहीं रही उम्मीद।।

तारे गिनते बीत गई ,उस बूढ़े की रात।
तन से ना मन से सही, यादों की बारात।।

बिना ज्ञान के आदमी,प्राण बिना ये देह।
जैसे मरघट सा लगे , सूना -सूना गेह।।

बिन अनुभव का आदमी,बिना लक्ष्य की नाव।
क्या जाने उसका भला, कहाँ होय ठहराव।।

आप-आप की रटन में, है लौकिक व्यवहार।
'
तुम' में आता झलकता, सच अंदर का प्यार।।
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संपर्क - 
विश्वम्भर पाण्डेय 'व्यग्र'
कर्मचारी कालोनी, गंगापुर सिटी,
स.मा. (राज.)322201