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रविवार, 22 सितंबर 2013

ग़ज़ल

ग़ज़ल 

क्यूंकर जीता हूँ परेशानी में,
बस  एक  बल है  पानी  में ।

दुनिया क्या समझेगी हाल मेरा,
वो जी ती है  अपनी  रवानी में ।

डर लगता है कहीं अब ढह न जाए,
नयी कील ठुकी दीवार पुरानी में । 

माँ पास होती तो आज पी जाती,
शल जो पड़े हैं कब से पेशानी में ।

वक़्त ने लिखा हक़ीक़त का फ़साना,
दिल न लगा पारियों की कहानी में ।

अबकी नस्ल में क्यों नहीं जोश,
हरेक लगता है बूढ़ा जवानी में ।

‘तन्हा’ था मर गया नामवर शायर,
दो क़लाम छोड़ गया निशानी में 


ग़ज़ल 

बाँट दिया बाप ने बच्चों को  घर,
कहकर ये तेरा घर, ये तेरा घर ।

हमारा क्या है आज हैं कल नहीं,
पड़े रहेंगे कभी इधर कभी उधर ।

ख़ुद पढ़ा न पाया अपने बच्चों को,
था बड़ा उस्ताद जानता है शहर ।

कमी न थी पहले ही नफ़रतों की,
बीवी ने तेरी घोल दिया ज़हर । 

'तन्हा'  मुंतज़िर है  मौत का अब 
जाने कब मिल जाए तुम्हें ख़बर । 


मोहसिन 'तन्हा'
अलीबाग़ 

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