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बुधवार, 10 जून 2015

ग़ज़ल


लोग जाने कहाँ-कहाँ अपनी नज़र रखते हैं।
खुद  का पता  नहीं, सबकी ख़बर  रखते हैं।

मैं गिन रहा हूँ जेब में पैसे हैं कितने बाक़ी,
ये  दुकानवाले  हसरतें  सजाकर रखते हैं।

फ़िक्र है मुझको, इंतेज़ाम करने हैं और भी,
मुसीबतें आ लिपटीं, पाँव जिधर रखते हैं।

फ़ैसले किये ग़लत तुमने, तो दख़ल दी है,
तजुर्बे  कुछ  हम  तुमसे  बेहतर रखते हैं।

'तनहा' झुलस गया मैं तपती दोपहरों में,
और रोज़ वो मेरी राह में पत्थर रखते हैं।

©-मोहसिन 'तनहा'