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शुक्रवार, 20 जुलाई 2018

गोपालदास 'नीरज' श्रद्धांजलि!!!


गोपालदास 'नीरज' 
श्रद्धांजलि!!!
गोपालदास सक्सेना 'नीरज' का जन्म 4 जनवरी 1925 को ब्रिटिश भारत के संयुक्त प्रान्त आगरा एवं अवध, जिसे अब उत्तर प्रदेश के नाम से जाना जाता है, में इटावा जिले के पुरावली गाँव में बाबू ब्रजकिशोर सक्सेना के यहाँ हुआ था। मात्र 6 वर्ष की आयु में पिता गुजर गये। सन 1942 में एटा से हाई स्कूल परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। शुरुआत में इटावा की कचहरी में कुछ समय टाइपिस्ट का काम किया उसके बाद सिनेमाघर की एक दुकान पर नौकरी की। लम्बी बेकारी के बाद दिल्ली जाकर सफाई विभाग में टाइपिस्ट की नौकरी की। वहाँ से नौकरी छूट जाने पर कानपुर के डी.ए.वी. कॉलेज में क्लर्की की। फिर बाल्कट ब्रदर्स नाम की एक प्राइवेट कम्पनी में पाँच वर्ष तक टाइपिस्ट का काम किया। नौकरी करने के साथ प्राइवेट परीक्षाएँ देकर 1949 में इण्टरमीडिएट, 1951 में बी.ए. और 1953 में प्रथम श्रेणी में हिन्दी साहित्य से एम.ए. किया।
मेरठ कॉलेज मेरठ में हिन्दी प्रवक्ता के पद पर कुछ समय तक अध्यापन कार्य भी किया किन्तु कॉलेज प्रशासन द्वारा उन पर कक्षाएँ न लेने व रोमांस करने के आरोप लगाये गये, जिससे कुपित होकर नीरज ने स्वयं ही नौकरी से त्यागपत्र दे दिया। उसके बाद वे अलीगढ़ के धर्म समाज कॉलेज में हिन्दी विभाग के प्राध्यापक नियुक्त हो गये और मैरिस रोड जनकपुरी अलीगढ़ में स्थायी आवास बनाकर रहने लगे।
कवि सम्मेलनों में अपार लोकप्रियता के चलते नीरज को बम्बई के फिल्म जगत ने गीतकार के रूप में नई उमर की नई फसल  के गीत लिखने का निमन्त्रण दिया जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया। पहली ही फ़िल्म में उनके लिखे कुछ गीत जैसे कारवाँ गुजर गया गुबार देखते रहे  और देखती ही रहो आज दर्पण न तुम, प्यार का यह मुहूरत निकल जायेगा  बेहद लोकप्रिय हुए जिसका परिणाम यह हुआ कि वे बम्बई में रहकर फ़िल्मों के लिये गीत लिखने लगे। फिल्मों में गीत लेखन का सिलसिला मेरा नाम जोकरशर्मीली और प्रेम पुजारी जैसी अनेक चर्चित फिल्मों में कई वर्षों तक जारी रहा।
किन्तु बम्बई की ज़िन्दगी से भी उनका जी बहुत जल्द उचट गया और वे फिल्म नगरी को अलविदा कहकर फिर अलीगढ़ वापस लौट आये। तब से आज तक वहीं रहकर स्वतन्त्र रूप से मुक्ताकाशी जीवन व्यतीत कर रहे हैं। आज 90 की आयु में भी वे देश विदेश के कवि-सम्मेलनों में उसी ठसक के साथ शरीक होते हैं। बीड़ी, शराब और शायरी उनके जीवन की अभिन्न सहचरी बन चुकी हैं।19 जुलाई 2018 को वे इस नश्वर संसार को विदा कर गये।
अपने वारे में उनका यह शेर आज भी मुशायरों में फरमाइश के साथ सुना जाता है:
प्रमुख काव्य संग्रह-
·         संघर्ष (1944)
·         अन्तर्ध्वनि (1946)
·         विभावरी (1948)
·         प्राणगीत (1951)
·         दर्द दिया है (1956)
·         बादर बरस गयो (1957)
·         मुक्तकी (1958)
·         दो गीत (1958)
·         नीरज की पाती (1958)
·         गीत भी अगीत भी (1959)
·         आसावरी (1963)
·         नदी किनारे (1963)
·         लहर पुकारे (1963)
·         कारवाँ गुजर गया (1964)
·         फिर दीप जलेगा (1970)
·         तुम्हारे लिये (1972)
·         नीरज की गीतिकाएँ (1987)
नीरज जी को अब तक कई पुरस्कार व सम्मान प्राप्त हो चुके हैं-
·         विश्व उर्दू परिषद् पुरस्कार
·         पद्म श्री सम्मान (1991), भारत सरकार
·         यश भारती एवं एक लाख रुपये का पुरस्कार (1994), उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ
·         पद्म भूषण सम्मान (2007), भारत सरकार

फिल्म फेयर पुरस्कार

नीरज जी को फ़िल्म जगत में सर्वश्रेष्ठ गीत लेखन के लिये उन्नीस सौ सत्तर के दशक में लगातार तीन बार यह पुरस्कार दिया गया। उनके द्वारा लिखे गये पुररकृत गीत हैं-
·         1970: काल का पहिया घूमे रे भइया! (फ़िल्म: चन्दा और बिजली)
·         1971: बस यही अपराध मैं हर बार करता हूँ (फ़िल्म: पहचान)
·         1972: ए भाई! ज़रा देख के चलो (फ़िल्म: मेरा नाम जोकर)

कवि जीवन

'नीरज' का कवि जीवन विधिवत मई, 1942 से प्रारम्भ होता है। जब वह हाई स्कूल में ही पढ़ते थे तो उनका वहाँ पर किसी लड़की से प्रणय सम्बन्ध हो गया। दुर्भाग्यवश अचानक उनका बिछोह हो गया। अपनी प्रेयसी के बिछोह को वह सहन न कर सके और उनके कवि-मानस से यों ही सहसा ये पंक्तियाँ निकल पड़ीं: कितना एकाकी मम जीवन, किसी पेड़ पर यदि कोई पक्षी का जोड़ा बैठा होता, तो न उसे भी आँखें भरकर मैं इस डर से देखा करता, कहीं नज़र लग जाय न इनको। और इस प्रकार वह प्रणयी युवक 'गोपालदास सक्सेना' कवि होकर 'गोपालदास सक्सेना 'नीरज' हो गया। पहले-पहल 'नीरज' को हिन्दी के प्रख्यात लोकप्रिय कवि श्री हरिवंश राय बच्चन का 'निशा नियंत्रण' कहीं से पढ़ने को मिल गया। उससे वह बहुत प्रभावित हुए था। इस सम्बन्ध में 'नीरज' ने स्वयं लिखा है -
'मैंने कविता लिखना किससे सीखा, यह तो मुझे याद नहीं। कब लिखना आरम्भ किया, शायद यह भी नहीं मालूम। हाँ इतना ज़रूर, याद है कि गर्मी के दिन थे, स्कूल की छुटियाँ हो चुकी थीं, शायद मई का या जून का महीना था। मेरे एक मित्र मेरे घर आए। उनके हाथ में 'निशा निमंत्रण' पुस्तक की एक प्रति थी। मैंने लेकर उसे खोला। उसके पहले गीत ने ही मुझे प्रभावित किया और पढ़ने के लिए उनसे उसे मांग लिया। मुझे उसके पढ़ने में बहुत आनन्द आया और उस दिन ही मैंने उसे दो-तीन बार पढ़ा। उसे पढ़कर मुझे भी कुछ लिखने की सनक सवार हुई।.....'

हरिवंशराय 'बच्चन का प्रभाव-

'बच्चन जी से मैं बहुत अधिक प्रभावित हुआ हूँ। इसके कई कारण हैं, पहला तो यही कि बच्चन जी की तरह मुझे भी ज़िन्दगी से बहुत लड़ना पड़ा है, अब भी लड़ रहा हूँ और शायद भविष्य में भी लड़ता ही रहूँ।' ये पंक्तियाँ सन् 1944 में प्रकाशित 'नीरज' की पहली काव्य-कृति 'संघर्ष' से उद्धत की गई हैं। 'संघर्ष' में 'नीरज' ने बच्चन जी के प्रभाव को ही स्वीकार नहीं किया, प्रत्युत यह पुस्तक भी उन्हें समर्पित की थी।

गुलाबराय की भविष्यवाणी-

'संघर्ष' की भूमिका में प्रख्यात समालोचक डॉ.गुलाबराय ने उन दिनों कवि 'नीरज' के काव्य की भाव-भूमि के सम्बन्ध में जो भविष्यवाणी की थी, वह आज भी उनकी रचनाओं को पढ़कर सत्य उतरती मालूम होती है। उन्होंने लिखा था - 'नीरज' जी के रुदनमय गानों में निराशा की अंतर्धारा स्पष्ट रूप से झलकती है और वह जीवन के कटु अनुभवों से नि:सृत हुई प्रतीत होती है। जहाँ अमृत ही विष बन जाय वहाँ निराशा का होना स्वाभाविक ही है। अमृत को विष बनाने वाली कौन सी घटनाएँ हैं, और कहाँ तक वे सत्य हैं, यह उनके वैयक्तिक जीवन का प्रश्न है। किंतु इन कविताओं से एक ठेस का अनुमान होता है।
उसकी दूसरी कृति 'अंतर्ध्वनि' सन् 1946 में प्रकाशित हुई थी। उसमें 'बच्चन' के प्रभाव से युक्त होने का प्रयत्न किया है और विभावरी' तक आते-आते तो उसने अपना स्वतंत्र जीवन-दर्शन ही अपना लिया।

काव्यगत विशेषता-

'नीरज' का काव्यकलागत दृष्टिकोण भाषा, शब्दों के प्रयोग, छ्न्द, लय, सन्दर्भ, वातावरण और प्रतीत-योजना आदि सभी दृष्टि से इस पीढ़ी के कवियों में सर्वथा अलग और विशिष्ट स्थान रखता है। 'नीरज' ने अपनी रचनाओं में सभी प्रकार की भाषा का व्यवहार किया है। वह अपनी अनुभूतियों के आधार पर ही शब्दों, मुहावरों और क्रियाओं का प्रयोग करता है। यही कारण हैं कि उसके काव्य में हमें जहाँ संस्कृतनिष्ठ शैली दृष्टिगत होती है, वहाँ उर्दू जैसी सरल और सादी शब्दावली का व्यवहार ही देखने को मिलता है। उसकी रचनाओं को हम शैली की दृष्टि से दार्शनिक, लोकगीतात्मक, चित्रात्मक, परुष और संस्कृतनिष्ठ आदि विभिन्न रूपों में विभक्त कर सकते हैं।

शैली

दार्शनिक शैली में वह प्रतीक प्रधान व्यंजना के द्वारा सीधे-सादे ढंग से अपनी बात कहते चलते है। उसकी रचनाएँ संगीत, अलंकार और विशेषणों आदि विहीन सीधी-सादी होती हैं। लोकगीतात्मक शैली में प्राय: फक्कड़पन रहता है, और ऐसी रचनाओं में वह प्राय: ह्रस्व-ध्वनि प्रधान शब्द ही प्रयुक्त करते हैं। उनकी लोकगीत-प्रधान शैली से लिखी गई रचनाओं में माधुर्य भाव की प्रचुरता देखने को मिलती है। चित्रात्मक शैली में लिखी गई रचनाओं में वह शब्दों द्वारा चित्र-निर्माण करने की ही रचनाएँ हैं, जो ओज, तारुण्य और बलिदान का संदेश देने के लिए लिखी गई हैं। ओज लाने के लिए कठोर शब्दों का प्रयोग नितांत वांछनीय है। ऐसी रचनाओं में 'नीरज' ने जीवन के निटकतम प्रतीकों का प्रयोग ही बहुलता से किया है। संस्कृतनिष्ठ शैली वाली रचनाओं में 'नीरज' की अनुभूति का आधार प्राचीन भारतीय परंपरा रही है।

लोकप्रियता

'नीरज' की लोकप्रियता का सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि वह जहाँ हिन्दी के माध्यम से साधारण स्तर के पाठक के मन की गहराई में उतरे हैं वहाँ उन्होंने गम्भीर से गम्भीर अध्येताओं के मन को भी गुदगुदा दिया है। इसीलिए उनकी अनेक कविताओं के अनुवाद गुजराती, मराठी, बंगाली, पंजाबी, रूसी आदि भाषाओं में हुए हैं। यही कारण है कि 'भदन्त आनन्द कौसल्यायन' यदि उन्हें हिन्दी का 'अश्वघोष' घोषित करते हैं, तो 'दिनकर' जी उन्हें हिन्दी की 'वीणा' मानते हैं। अन्य भाषा-भाषी यदि उन्हें 'संत कवि' की संज्ञा देते हैं, तो कुछ आलोचक उन्हें निराश मृत्युवादी समझते हैं।
गीत-
छिप-छिप अश्रु बहाने वालों, मोती व्यर्थ बहाने वालों
कुछ सपनों के मर जाने से, जीवन नहीं मरा करता है।

सपना क्या है, नयन सेज पर
सोया हुआ आँख का पानी
और टूटना है उसका ज्यों
जागे कच्ची नींद जवानी
गीली उमर बनाने वालों, डूबे बिना नहाने वालों
कुछ पानी के बह जाने से, सावन नहीं मरा करता है।

माला बिखर गयी तो क्या है
खुद ही हल हो गयी समस्या
आँसू गर नीलाम हुए तो
समझो पूरी हुई तपस्या
रूठे दिवस मनाने वालों, फटी कमीज़ सिलाने वालों
कुछ दीपों के बुझ जाने से, आँगन नहीं मरा करता है।

खोता कुछ भी नहीं यहाँ पर
केवल जिल्द बदलती पोथी
जैसे रात उतार चांदनी 
पहने सुबह धूप की धोती
वस्त्र बदलकर आने वालों! चाल बदलकर जाने वालों!
चन्द खिलौनों के खोने से बचपन नहीं मरा करता है।

लाखों बार गगरियाँ फूटीं,
शिकन न आई पनघट पर,
लाखों बार किश्तियाँ डूबीं,
चहल-पहल वो ही है तट पर,
तम की उमर बढ़ाने वालों! लौ की आयु घटाने वालों!
लाख करे पतझर कोशिश पर उपवन नहीं मरा करता है।

लूट लिया माली ने उपवन,
लुटी न लेकिन गन्ध फूल की,
तूफानों तक ने छेड़ा पर,
खिड़की बन्द न हुई धूल की,
नफरत गले लगाने वालों! सब पर धूल उड़ाने वालों!
कुछ मुखड़ों की नाराज़ी से दर्पन नहीं मरा करता है!
गीत का संदेश-
“जीवन कभी मारा नहीं करता” गीत नीरज की अदम्य जीवटता को दर्शाने वाला गीत है, जिसमें उनकी आशावादी भावना का पल्लवन हुआ है। नीरज जी अपने गीत के माध्यम से सकारात्मक प्रवृत्तियों को मनुष्य के भीतर जगाते हुए पिछली बातों पर दुख न प्रकट करने का संदेश मूल रूप से अभिव्यक्त किया है। वे कहते हैं कि जो गुज़र चुका और जिस चीज़ की हानि हो चुकी है, उसकी पूर्ति तो नहीं की जा सकती है, लेकिन इस हानि को सीने से लगाए रखने से कोई लाभ नहीं होने वाला। इसलिए हमें आगे बढ़ाना चाहिए और जीवन के सकारात्मक पक्ष को देखना चाहिए। नुकसान होना जीवन का ही एक हिस्सा है, उसका हमें दुख न मनाना चाहिए और छोटी-मोटी हानियाँ जीवन को प्रभावित कर सकती हैं, लेकिन जीवन को समाप्त नहीं कर सकती हैं। वे लिखते हैं कि- “किसी दीप के बुझ जाने से आँगन नहीं मारा करता।” अर्थात किसी वस्तु की क्षति से समस्त एकदम समाप्त नहीं हो जाता है। हमें अपने को सबल बनाकर तूफानों के आगे खड़ा करना है और तूफानों का सामना करना है। उनका मानना है कि खोने के लिए हमारे पास अधिक नहीं, लेकिन पाने के लिए बहुत कुछ है और इस पाने के प्रयत्न को जीवन से किसी भी विपत्ति के होते तिरोहित नहीं करना चाहिए।
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डॉ. मोहसिन ख़ान