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गुरुवार, 9 जनवरी 2014

ग़ज़ल

एक रास्ता पहुँचता है गाँव के घर को ।
जाने कब छोड़ेंगे हम इस शहर को ।

धूल, धुँआ, तंग गलियाँ और गंदी बस्ती,
जमा करते हैं रोज़ बदन में ज़हर को ।

नामों के साथ शक्लें भी उतरीं ज़हन से,
देखूँ तस्वीरें तो धोखा होता है नज़र को ।

कैसी अजनबीयत और तन्हाई घुल गई,
जैसे कोई खारा कर रहा हो समन्दर को ।

उगता सूरज निकलता चाँद नहीं दिखता,
कोई मौसम भी कहाँ आता है इधर को ।

'तन्हा' यूँ न कोई क़िस्तों में जीना ज़िन्दगी,
मर ही गए बेमौत कैसे पहुँचाएँ ख़बर को ।

मोहसिन 'तन्हा'

हिन्दी विभागाध्यक्ष  
जे.एस.एम. महाविद्यालय
अलीबाग (महाराष्ट्र) 402201
09860657970