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'सर्वहारा' में हिन्दी भाषा और देवनागरी लिपि में साहित्य की किसी भी विधा जैसे- कहानी, निबंध, आलेख, शोधालेख, संस्मरण, आत्मकथ्य, आलोचना, यात्रा-वृत्त, कविता, ग़ज़ल, दोहे, हाइकू इत्यादि का प्रकाशन किया जाता है।

गुरुवार, 20 अक्तूबर 2016

संस्मरण- केदारनाथ सिंह : बार-बार (लेखक- दिविक रमेश)

सुप्रतिष्ठित वरिष्ठ कवि, बाल-साहित्यकारअनुवादक एवं चिन्तक दिविक रमेश
20वीं शताब्दी के आठवें दशक में अपने पहले ही कविता-संग्रहरास्ते के बीचसे चर्चित हो जाने वाले आज के सुप्रतिष्ठित हिन्दी-कवि बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं 38 वर्ष की आयु में हीरास्ते के बीचऔरखुली आंखों में आकाशजैसी अपनी मौलिक साहित्यिक कृतियों पर सोवियत लैंड नेहरू एवार्ड जैसा अन्तर्राष्ट्रीय पुरस्कार पाने वाले ये पहले कवि हैं 17-18 वर्षों तक दूरदर्शन के विविध कार्यक्रमों का संचालन किया 1994 से 1997 में भारत सरकार की ओर से दक्षिण कोरिया में अतिथि आचार्य के रूप में भेजे गए जहां इन्होंने साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में कितने ही कीर्तिमान स्थापित किए
प्रमुख पुरस्कार/सम्मान: (1) दिल्ली हिंदी अकादमी का साहित्यिक कृति पुरस्कार, 1983 (2) सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार, 1984 (3)गिरिजा कुमार माथुर स्मृति पुरस्कार, 1997 (4) एनसीईआरटी का राष्ट्रीय बाल-साहित्य पुरस्कार, 1988 (5)दिल्ली हिंदी अकादमी का बाल-साहित्य पुरस्कार, 1990 (6)अखिल भारतीय बाल-कल्याण संस्थान, कानपुर का सम्मान, 1991 (7) राष्ट्रीय नेहरू बाल साहित्य अवार्ड, बालकन-जी-बारी इंटरनेशनल, 1992 (8)इंडो- एशियन लिटरेरी क्लब, नई दिल्ली का सम्मान, 1995, (9) प्रकाशवीर शास्त्री सम्मान, 2002  (10)कोरियाई दूतावास से प्रशंसा-पत्र, 2001 (11)भारतीय विद्या संस्थान, ट्रिनिडाड एंड टोबेगो द्वारा गौरव सम्मान, 2002  (12)दिल्ली हिंदी अकादमी का साहित्यकार सम्मान, 2003 (13)शासी निकाय एवं स्टाफ काउंसिल, मोतीलाल नेहरू कालेज (दिल्ली विश्वविद्यालय) द्वारा भाषा के क्षेत्र में विशिष्ट योगदान के लिए सम्मानित किया गया, 2003 (14)इंस्टीट्यूट ऒफ इकोनॉमिक स्टडीज द्वारा शिक्षा रत्न अवार्ड, 2004, अनुवाद के लिए भारतीय अनुवाद परिषद का द्विवागीश पुरस्कार (2009), भारतीय स्तर का श्रीमती रतन शर्मा बाल-साहित्य पुरस्कार, 2009(101 बाल कविताओं पर), उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान (उत्तर प्रदेश सरकार ) का सर्वोच्च बाल साहित्य पुरस्कार - साहित्य भारती सम्मान (2013)
प्रकाशित कृतियां: (1) कविताः रास्ते के बीच, 1977 और  2003 , खुली आंखों में आकाश, 1983, 1987, 1989 हल्दी-चावल और अन्य कविताएं, 1992 छोटा-सा हस्तक्षेप,2000  फूल तब भी खिला होता(खुली आँखों  में आकाश और हल्दी कावल और अन्य कविताएँ की कविताएं) , 2004 गेहूँ घर आया है (चुनी हुई कविताएँ),2009,  वह भी आदमी तो होता हॆ, 2010, बाँचो लिखी इबारत,2012,  माँ गाँव में है, 2015 (कविता-संग्रह) खण्ड-खण्ड अग्नि (काव्य-नाटक),1994 फेदर (अंग्रेजी में अनूदित कविताएं),1983, 1994 से दल अइ ग्योल होन (कोरियाई भाषा में अनूदित कविताएं), 1997 अष्टावक्र (मराठी में अनूदित कविताएं), 1988
आलोचना:(1) कविता के बीच से, किताबघर, नई दिल्ली,1992  (2)नए कवियों के काव्य-शिल्प सिद्धांत, अभिरूचि प्रकाशन, शाहदरा, दिल्ली, 1991  (3)साक्षात् त्रिलोचन, सिद्धार्थ प्रकाशन, नई दिल्ली,1990 (4)संवाद भी विवाद भी, ग्रंथलोक, शाहदरा, दिल्ली,2008, समझा  परखा , किताबवाले , दरियागंज, नई दिल्ली, 2015, हिन्दी का बाल-साहित्य: कुछ पड़ाव , प्रकाशन विभाग, (भारत सरकार), नई दिल्ली,2015
बाल साहित्य: कविता संग्रह : जोकर मुझे बना दो जी, 1980, हंसे जानवर हो हो हो, 1987, कबूतरों की रेल,1988,  छतरी से गपशप,1989,  अगर खेलता हाथी होली,2004 , तस्वीर और मुन्ना, 1997, मधुर गीत भाग-3 और भाग-4,1999,  अगर पेड़ भी चलते होते,2003,  खुशी लौटाते हैं त्योहार,2003,मेघ हंसेंगे जोर-जोर से, 2003 , 101 बाल कविताएं (2008), 2012 , खूब जोर से बारिश आई (2009) , समझदार हाथी: समझदार चींटी, 2014,2015,बंदर मामा, 2014, 2015, छुट्कल- मुट्कल बाल कविताएं, 2016   कहानी  संग्रह :धूर्त साधु और किसान,1984,  सबसे बड़ा दानी, 1992,  शेर की पीठ पर, 2003, बादलों के दरवाजे,2003,  घमंड की हार,2003,  ओह पापा, 2003, बोलती डिबिया,2003 (ग्रंथलोक) ,बोलती डिबिया, 2010 (नेशनल बुक ट्र्स्ट ),  ज्ञान परी, 2003, बादलों के दरवाजे,2003, गोपाल भांड के किस्से, 2008, त से तेनाली राम ब से बीरबल, 2007, देशभक्त डाकू, 2011, लू लू की सनक, 2014 , अपने भीतर झांको, 2014 बचपन की शरारत ( सम्पूर्ण बाल-गद्य रचनाएं, 2016), मेरे मन की बाल कहाँनियाँ (2016), स्टोरीज फॉर चिल्ड्रन, 1996
लोक कथाएं : सच्चा दोस्त, अभिरूचि प्रकाशन, दिल्ली ,1996, और पेड़ गूंगे हो गए (विश्व की लोक कथाएं), 1992, जादुई बांसुरी और अन्य कोरियाई कथाएं, 2009 , कोरियाई लोक-कथाएं, पीताम्बर पब्लिकेशन, दिल्ली, 2000, 2012  
आत्मीय संस्मरण : फूल भी और फल भी (लेखकों से संबद्ध),1994,  लू लू की सनक (कहानी संग्रह), 2014,  बचपन की शरारत ( सम्पूर्ण बाल-गद्य रचनाएं, 2016), मेरे मन की बाल कहाँनियाँ (2016) 
बाल नाटक :  बल्लू हाथी का बाल घर,  2012)
अन्य:खंड-खंड अग्नि के मराठी, गुजराती, कन्नड़  और अंग्रेजी अनुवाद अनेक भारतीय तथा विदेशी भाषाओं में रचनाएं अनूदित हो चुकी हैं रचनाएं पाठ्यक्रमों में निर्धारित
अनुवाद :(1) कोरियाई कविता-यात्रा (कोरियाई कविताएं), साहित्य अकादमी, दिल्ली , 1999 (2)(टिमोथी वांगुसा की कविताएं) सुनो अफ्रीका, साहित्य अकादमी, दिल्ली,   (3)कोरियाई बाल कविताएं, नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली,2001  (4) डे ब्रेक्स इंडिया (श्रीमती किम यांग शिक की कविताओं का हिंदी अनुवाद), अजंता बुक्स इंटरनेशनल, दिल्ली, 1999  (5)  ख़लनायक ( यी मुन योल का कोरियाई उपन्यास), राजकमल प्रकाशन प्रा0 लिमिटेड,2015
उपर्युक्त के अतिरिक्त बल्गारियाई, रूसी, चीनी आदि भाषाओं के साहित्य का समय-समय पर अनुवाद और उनका प्रकाशन
संपादित :(1) निषेध के बाद (आठवें दशक की कविता), विक्रांत प्रेस, दिल्ली, 1981  (2)हिंदी कहानी का समकालीन परिवेश, 1980 और 2006, ग्रंथलोक, शाहदरा, दिल्ली  (3)आन्साम्बल (कविताएं एवं रेखा चित्र), विक्रांत प्रेस, दिल्ली,1992  (4)कथा पड़ाव, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, 1991 (5)दूसरा दिविक (कविता), 1973, विक्रांत प्रेस, नई दिल्ली (6)दिशा बोध( पत्रिका), विक्रांत प्रेस, दिल्ली, 1978, 1980 (7)बहरहाल,सौजन्य संपादक, 1981,  चंडीगढ़, व्यंग्य एक और एक , 1975, दूसरा दिविक, 1973बालकृष्ण भट्ट, वाणी प्रकाशन, 2009, प्रताप नारायण मिश्र, वाणी प्रकाशन, 2012, माँ गाँव में है (कविता संग्रह), यश पब्लिकेशंस, 1/11848, पंचशील गार्डन, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032, समझा परखा(आलोचना), किताबवाले,22/4735 प्रकाश दीप बिल्डिंग, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली-110002, खलनायक (कोरियाई उपन्यास काअनुवाद), राजकमल प्रकाशन प्रा.लि., 1-बी, नेताजी सुभाष मार्ग,दिल्ली।  

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केदारनाथ सिंह : बार-बार
     -दिविक रमेश

दिल्ली में होने के कारण कवि केदारनाथ सिंह को जानने-समझने का बार-बार अवसर मिला है। उनके मिलने पर हुए अनुभवों को कभी -कभार डायरी में लिखित रूप में उतारा है। उतारा इसलिए कि बाद में असल में नकल का तड़का न लग जाए। जब जॆसा महसूस किया, वॆसा लिख दिया। यूं मैं डायरी नियमित रूप से नहीं लिखता। अपने अनुभव से इतना अवश्य कह सकता हूं कि एक व्यक्ति के व्यक्तित्व का एक सामान्यरूप खोजा जा सकता है लेकिन एक व्यक्ति के व्यक्तित्व का अनुभव हमेशा एक जॆसा ही हो यह जरूरी नहीं। मेरे संदर्भ में केदार जी भी एकदम अपवाद नहीं हैं। यहां मैं  डायरी के पन्नों से कुक सामग्री ज्यों क्या त्यों उतारने जा रहा हूं ताकि मुझसे होते हुए उनके व्यक्तित्व की कुछ सच्ची-कच्ची झलक मिल सके। हाँ, उनके साथ ही कुछ अन्य महानुभावों के भी दर्शन हो जाएं तो कृपया अन्यथा न लीजिए। यूं समझ लीजिए कि उनके बीच से भी केदार जी के व्यक्तित्व क कोई न कोई आयाम उभरा ही। यह भी बता दूं कि उन दिनों मैं शमशेर, केदारनाथ अग्रवाल, त्रिलोचन और नागार्जुन की कविताओं में डूबा हुआ था और  अज्ञेय के मोहजाल से भरसक निकलने का प्रयत्न कर रहा था। केदारनाथ सिंह की कविताओं के बारे में त्रिलोचन जी से बातें होती थीं लेकिन जमीन पक रही हैकी कविताओं से अभी बहुत प्रभावित नहीं हो सका था-शायद अपनी तात्कालिक रुचि और  तॆयारी के चलते। थोड़ा रुक कर बता दूं कि जब 1983 में राधाकृष्ण प्रकाशन से प्रकाशित केदार जी का संग्रह यहां से देखोपढ़ा तो वे मेरे रुचि के कवियों में सम्मिलित हो गए। इसी संग्रह की एक कविता पृथ्वी रहेगीमेरी निगाह में आज तक की एक उत्कृष्ट कविता है। इसके बारे में मैं ने "कवि केदारनाथ सिंह: (सं० भारत यायावर, राजा खुगशाल) नामक पुस्तक में लिखा था-"मेरे इने-गिने प्रिय कवियों में से एक हैं -केदारनाथ सिंह।  केदारजी की किसी एक कविता का जब भी मुझे ललक के साथ ध्यान आता है तो वह होती है -पृथ्वी रहेगी। हर बार। पृथ्वी रहेगीको मैं ने बर-बार पढ़ा है  और  हर बार मानों संवेदना की एक नई फड़फड़ाहट से भर गई है  काया और  आत्मा...।सोचता हूं कि कवि को इस कृति पर साहित्य अकादमी का पुरस्कार क्यों नहीं मिल सका? मुझे जाने क्यों लगता रहा है  कि अकाल में सारससे बेहतर यहां से देखो है। यहां मैं  अपनी डायरी, दिनांक 22-4-1990 का सहारा लेना चाहूंगा जिसमें केदार जी का एक बहुत ही घरेलू या कहूं आत्मीय रूप भी उभर कर आता है और  उनके कविता-संग्रहों की चर्चा भी जिसमें केदार जी का एक बहुत ही घरेलू या कहूं आत्मीय रूप भी उभर कर आता है  लिखा है --"अपने इस घर (बी-295, सॆक्टर-20, नोएडा) में, डॉ. श्रीमती निर्मला जॆन, डॉ. नामवर सिंह, डॉ. केदारनाथ सिंह, डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी और  डॉ. नित्यानन्द तिवारी को बुलाने की इच्छा काफी वर्षों से थी। 1986  में हम अपने इस नए घर  में आ गए थे। इस बीच  बुलाए जाने की बात कई बार चली लेकिन किसी न किसी कारण योजना सफल न हो सकी। मन में कितनी ही बातें थीं।.........केदार जी ने इधर मेरे तीसरे संग्रह के लिए कविताएं चुनी थीं। वे मेरे प्रिय कवियों में से एक हैं। खॆर, 22-4-90 का दिन आ ही गया।...शाम बहुत ही खूबसूरत बन गई और  हमार घर तो गॊरान्वित हो उठा--शायद असहज भी-सहज होने की कोशिश में। ...बातों-बातों में पता चला कि सम्भवत: 1966 के आसपास सुरेश अवस्थी के यहां नामवर जी ने शराब चखी थी। दुनिया भर की बातें हुईं। खाना खाने के बाद प्रस्थान का समय आ गया। (सब) गेट से बाहर आ गए थे। निर्मला जी, द्विवेदी जी (कमलाकांत द्विवेदी) की गाड़ी में बॆठ चुकी थीं और  कदाचित नामवर जी भी। तभी केदार जी ने कहा -घर पूरा तो देख लिया जाए। मैं  संकोचवश इस बारे में कुछ नहीं कह सका था। मुझे केदार जी की इच्छा बहुत ही प्रीतिकर लगी। द्विवेदी जी पहले ही घर देख चुके थे--जब वे पहली बार आए थे। केदार जी जब मेरी बेटी दिशा के कमरे में गए तो वहां उन्होंने उसका एक खिलॊना टेडी बीयरदेखा। बहुत ही स्नेह से उन्होंने उसे छूआ। मुझे बहुत ही अच्छा लगा। अद्भुत हृदय था--एक बड़े कवि का बड़ा व्यवहार। द्विवेदी जी ने बच्चों को विशेषरूप से बुलवाया और  उनसे विदा ली। हॉ., बातचीत में मेंने कहा था कि "अकाल में सारसऔर यहां से देखोंमें कॊन सी कृति उत्तम है, इस पर विवाद है। नामवर जी इस पर कहा था कि दोनों एक ही कवि की रचना हैं और किसी भी कवि के लिए यह जरूरी नहीं होता कि वह एक जॆसी रचना ही करता रहे।सोचता हूं, केदार जी की कृतियों के बारे में जिस कहनमें नामवर जी ने बात रखी थी उससे केदार जी प्रति नामवर जी का भाव भी प्रकट हुआ और उनका अपना अन्दाज भी। यही, साहित्य अकादमी पुरस्कार से जुड़ा वह संदर्भ भी याद हो आया है  जिसने केदार जी को बहुतों की निगाह में पुरस्कार की औकात से भी ऊंचा उठा दिया था। पुरस्कार की घोषण के बाद केदार जी ने अपने की बात व्यक्त की थी कि उनसे पहले श्री गिरिजा कुमार माथुर को पुरस्कृत किया जाना चाहिए था। डायरी के पन्ने उलटता-पुलटता हू तो एक और खास पन्ना सामने आ गया है।       
"रविवार (15-3-1982)। सुबह दस बजे के लगभग केदारनाथ सिंह के घर पर पहुंच गया हूं। जे.एन.यू. का पूर्वांचल, (जहां उनका घर था), बहुत ही रमणीक इलाके में है। चाय-वाय आ गई। कुछ बातें शुरु हुईं। केदारनाथ अग्रवाल, त्रिलोचन, नागार्जुन और शमशेर पर बातें शुरु हो गई थीं। त्रिलोचन जी से ली गई (मेरी एक बहुत लंबी) भेंटवार्ता जो जनयुग में छपी थी, उसकी एक प्रति केदार जी को देनी थी। केदार जी के अनुसार नागार्जुन अपनी और दूसरों की कविताओं में अच्छे-बुरे का विवेक रखने में, सब से आगे हैं। उसके बाद त्रिलोचन हैं। उनकी निगाह में ये सभी कवि मेजरकवि हैं। (लेकिन) केदारनाथ अग्रवाल के बारे में उनकी मान्यता थी कि उनकी कविताओं के चयन की आवश्यकता है। उनके अनुसार हे मेरी तुममें से केवल पाँच कविताएं ही लेने लायक हैं। "मुझे उनका वह खरा -सा रूप अच्छा लगा था। मेरा तो मानना था कि चयन की आवश्यकता तो नागार्जुन की कविताओं को भी है।
प्रसंग बदला। जीवन के बारे में बातें शुरु हुईं। "केदार जी ने पूछा कि तुम्हारा (मेरा) अगला कविता-संग्रह कब तक आ रहा है ? अब आ जाना चाहिए। उन्होंने आगे कहा कि आवेग  में छपी (मेर) पंख कविता उन्हें बहुत ही पसन्द आयी है । उसे देखकर उन्होंने सोचा था कि अब दूसरा संकलन आना चाहिए।" केदार जी मेरे प्रति वह सरोकार किताना आत्मीय था और  अविस्मरणीय भी, इसे अलग से कहने की जरूरत तो नहीं है न?
याद तो मुझे 14.3.82 वाला पन्ना भी याद हो पाया है । इसी दिन मैं  नामवर जी के घर गया था --लगभग सुबह के 11 बजे। पता चला था कि उन्हें चोट लगी थी। दरवाजे में घुसते-घुसते ही केदारनाथ सिंह जी भी मिल गए थे। उस दिन जनवादी मंच और भॆरवप्रसाद गुप्त के बारे में बातें हुई। नामवर जी के पास हमेशा फस्टहैं ड समाचार रहे हैं, यह मैं ने जाना। उनका आनन्द लेऊ और  दिलाऊ लहजा भी बहुत आकर्षक था। विस्तार से फिर कभी। मैं ने पाया कि केदार जी विवादित बातों में अपनी ओर से कुछ कहने की दृष्टि से न के बराबर शरीक हुए थे। वहां से सफदरजंग एन्क्लेव तक केदार जी मेरे साथ मेरे (दो पहिया) स्कूटर पर बॆठ कर आए थे। उन्हें  एक काम के सिलसिले में साहित्य अकादमी पहुंचना था। अगले दिन उनके घर पर मिलना भी तय हो गया था।
विवादों से परे रहने की उनके स्वभाव की एक और  घटना याद आ रही है। बात काफी पहले की है। इंदॊर में प्रगतिशिल लेखक संघ की ओर से इन्दॊर में "त्रिलोचन महत्त्व" का कार्यक्रम आयोजित किया गया था। मैं  भी आंमंत्रित था। पहले भोपाल चाना था और वहीं से इंदॊर। केदारनाथ सींह को भी कार्यक्रम में शरीक होना था। हम दोनॊं ही भोपाल में थे --भगवत रावत के घर पर। उन दिनों अशोक वाजपेयी भोपाल में ही अधिकारी थे। केदार जी उनसे मिलने उनके कार्यालय गए तो मुझे भी साथ ले गए। थोड़ी देर बात हम अशोक जी के कार्यालय स्थित उनके कमरे में उनकी मेज के समीप उनके सामने बॆठे थे। मुझे इतना भर याद आ रहा है कि अशोक जी के चेहरे पर क्रोध उमड़ रहा था और  हाथ में पकड़ा पेपरवेट घूम रहा था। असल में उन्हें इंदौर कार्यक्रम मे सम्मिलित होने का निमंत्रण नहीं मिला था। अशोक जी को प्रगतिशील लेखक संघ, मध्य प्रदेश के आयोजकों में से कृत्घनता की बू आ रही थी। मैं तो क्या बोलता --यूं भी उस समय न अशोक जी मुझे कुछ मानते थे और न ही (मेरी समझ में) मुझे जानते थे। केदार जी के चेहरे पर छाया भाषागत आदि नियंत्रण और  शांत भाव अद्भुत था। एक मित्र से कॆसे मिला जाना चाहिए उसका एक अच्छा उदाहरण। मेंने केदार जी में, अनचाही स्थितियों में भी सहज रहने की कला के दर्शन कई बार किए हैं। एक बार तो अपने संदर्भ में भी। बात तब की है  जब हिन्दी अकादमी से उनके संपादन में कविता-संग्रह निकला था। हिन्दी अकादमी से मेरी कविताओं का संग्रह "खुली आँखों में आकाश" पुरस्कृत हो चुका था। मेरा तीसरा संग्रह "हल्दी-चावल और  अन्य कविताएं" प्रकाशित हो चुका था जिसकी कविताओं की विशिष्टता केदार जी लिख कर उजागर कर चुके थे। केदार जी ने अक्सर मुझे सार्वजनिक रूप से कई अवसरों पर अपना प्रिय कवि भी कहा है --आज तक। लेकिन उस समय मुझे लगभग आघात पहुंचा जब मैं ने हिन्दी अकादमी के संकलन में खुद को नदारद पाया। उस समय के सचिव से तो मुझे कुछ खास उम्मीद तो थी नहीं जो मुझे अहंकारी और  एक खेमे विशेष को प्रोमोटर अधिक लगते थे। यह सोचकर खुद को तसल्ली देनी चाही कि जरूर सचिव महोदय ने ही खुराफात की होगी।  लेकिन जब एक बार मैं ने केदार जी से ही किसी प्रसंग में, हिन्दी अकादमी से पुरस्कृत होने के बावजूद उस संकलन में अपनी कविताओं के न होने की बात रखी तो उन्होंने बहुत ही सहज ढ़ंग से अपना अचम्भा व्यक्त किया और एक कारण भी खोज निकाला यह कहते हुए कि चयन के काम में जे.एन.यू. के एक विद्यार्थी ने मदद की थी, उसी से भूल हो गई होगी। अब कोई क्या बोलता। यही तो केदारनाथ सिंह की केदारियत है -कदाचित।       
स्कूटर पर बॆठने वाली बात ने एक और  घटना की याद दिला दी है। मैं ने पी-एच.डी की उपाधि के लिए अपना कार्य नॊकरी लगने के काफी बाद किया था। कविता के क्षेत्र में में पहचाना तो जानेही लगा था। केदार जी से भी परिचय हो चुका था। उपाधि के लिए दिल्ली विश्वविद्यालय में मौखिकी (वायवाया) का आयोजन किया गया था। पता चला था कि परीक्षा के लिए केदारनाथ सिंह जी को हि आना है। जहां तक मुझे याद है, उस दिन केदारनाथ सिंह अमर कालोनी स्थित मेरे घर पर आ गए थे और  वहां से मेरे स्कूटर पर बॆठकर ही विश्वविद्यालय पहुंचे थे। उन्होंने ही नहीं मैं ने भी उन से परीक्षा को लेकर कोई बात नहीं की। हां इतना जरूर अनुरोध कर लिया था कि वे मेन गेट पर ही उतर जाएं ताकि किसी को यह न लगे कि परीक्षार्थी और  परीक्षक एक साथ आए हैं। लगभग ऎसी ही घटना तब घटी थी जब मैं  आई.सी.सी.आर के कार्यालय में साक्षात्कार देने गया था और  केदारजी साक्षातकार लेने वाली समिति के सदस्य थे। अंतर केवल इतना था कि तब मेरे पास एक पुरानी कार हो चुकी थी। उस अवसर पर भी केदार जी ने साक्षात्कार को छोड़ शेष बातें ही की थीं। उनका वह निष्पक्ष रूप मुझे बहुत ही प्रेरणादायी लगा था। मैं ने पाया है  कि केदार जी एक भावुक व्यक्ति हैं  जो सकारात्मक सोच में विश्वास रखते हैं। उनमें कभी अहंकार का भाव, कम से कम, मैं ने तो नहीं देखा। उनके साथ बहुत ही सहज भाव से रहा जा सकता है। उनकी सहजता कोलेकर एक और  किस्सा याद आया। उन दिनों मैं  दिल्ली विश्वविद्यालय के एक महाविद्यालय में प्राचार्य था।  एक दिन अचानक केदार नाथ सिंह जी मेरे कमरे में प्रकट हुए तो एक ओर आश्चर्य था तो दूसरी ओर अपार खुशी। उन्होंने बताया कि आपसे मिलने का मन हुआ तो इधर चला आया। उनकी सहजता से तो मैं  पहले ही परिचित था।  उस दिन अच्छी मुलाकात हुई। झटपट सम्मानित करने का मोह नहीं त्याग सकता था। सहयोगियों ने इसमें मेरी मदद की। उस दिन का एक फोटो हाथ आ गया है, लगा रहा हूं। 

अनेक अनुभव हैं। कितनी ही बार मेरे घर, उनके घर और  अन्य स्थानों पर मुलाकातें हुई हैं। मेरी पुस्तकों पर बोले हैं। संकेत दे चुका हूं कि मेरे तीसरे कविता-संग्रह "हल्दी-चावल और अन्य कविताएं" के लिए न केवल कविताओं का चयन किया था बल्कि एक अच्छी टिप्पणी भी लिखी थी। मेरी चुनी हुई कविताओं के संग्रह "गेहूं घर आया है" पर बोलते हुए उन्होंने जो कहा था जो रिपोर्ट के रूप में भी प्रकाशित है और  उसी से एक अंश यहां दे रहा हूं- "यह चेहरा-विहीन कवि नहीं है बल्कि भीड़ में भी पहचाना जाने वाला कवि है। यह संकलन परिपक्व कवि का परिपक्व संकलन है और इसमें कम से कम 15-20 ऐसी कविताएँ हैं जिनसे हिंदी कविता समृद्ध होती है। इनकी कविताओं का हरियाणवी रंग एकदम अपना और विशिष्ट है। शमशेर और त्रिलोचन पर लिखी कविताएँ विलक्षण हैं। दिविक रमेश मेरे आत्मीय और पसन्द के कवि हैं।विशिष्ट अतिथि केदारनाथ सिंह ने इस संग्रह को रेखांकित करने और याद करने योग्य माना। कविताओं की भाषा को महत्त्वपूर्ण मानते हुए उन्होंने कहा कि दिविक ने कितने ही ऐसे शब्द हिंदी को दिए हैं जो हिंदी में पहली बार प्रयोग हुए हैं। उन्होंने अपनी बहुत ही प्रिय कविताओं में से पंखऔर पुण्य के काम आएका पाठ भी किया। कार्यक्रम के अध्यक्ष प्रोफेसर नामवर सिंह ने कहा कि वे किसी बात को दोहराना नहीं चाहते और उन्हें कवि केदारनाथ सिंह के विचार सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण लगे। उन्होंने यह भी कहा कि वे केदारनाथ सिंह के मत पर हस्ताक्षर करते हैं। उनके अनुसार एक कवि की दूसरे कवि को जो प्रशंसा मिली है उससे बड़ी बात और क्या हो सकती है। "इस उद्धहरण को कृपया आत्मप्रशंसा के रूप में लेकर न देखा जाए( क्योंकि मुझे अपने बाअरे में कभी जरूरर से ज्यादा भ्रम नहीं रहा है ) बल्कि इस रूप में देखा जाए कि एक अगली पीढ़ी का अपने पीछे आने वाली पीढ़ी के प्रति कॆसा उत्साहवर्धक व्यवहार होना चाहिए। तभी इसकी सार्थकता है।

मैं त्रिलोचन जी के बहुत करीब रहा हूं। उन्होंने केदार जी से सीखने की सलाह, बराबर दी थी। अपने अनुभवों के आधार पर कहा जा सकता है कि कवि केदारनाथ सिंह के व्यक्तित्व से बहुत कुछ सीखा जा सकता है ।
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ये लेखक की अपनी संस्मरण रचना है, जिससे सहमत-असहमत हुआ जा सकता है। (संपादक-सर्वहारा)