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रविवार, 22 सितंबर 2013

ग़ज़ल

हमने ख़ुद ही आफ़त की,

जब भी नई उलफ़त की ।

औरों की तरह शाद होते,
अपने हाथों ये हालत की ।

बेगुनाहों का गुनहगार हूँ,
किसी से न अदावत की ।

न हूँ मैं संगदिल ऐ दोस्त,
ग़लती है मेरी आदत की ।

मैं ख़ाक, तुम रहो बुलंद,
फ़िक्र नहीं शोहरत की ।

छीनकर सब बख़्श दी जाँ,
क्या मिसाल दी रहमत की ।

सज़ा-ए-बुतपरसती बेखोफ़
हर शै में तेरी इबादत की ।

मैं हूँ बादाख़्वार, न मुसलमां
क्यों उठाने की ज़हमत की ।

दिल मेरा सामने तोड़ देते,
कर गए बात मोहलत की ।

तन्हा मुंतज़िर है सदियों से,
बात नहीं कहते क़यामत की ।
    
मोहसिन तन्हा

अलिबाग़

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