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शनिवार, 28 सितंबर 2013

ग़ज़ल


हमको  तुम्हारी  कमी  लगने लगी ।
बदली - बदली ज़मीं  लगने  लगी ।

घर की हदों से बाहर किधर जाएँ,
हर शक्ल अजनबी लगने लगी ।

हर रुत से बेअसर बुत से क्यों हो गए,
सांसें रुकीं, धड़कन थमीं लगने लगी ।

इक तेरे होने से दिले-सुकून कितना था,
रूहे-ग़म की बेचैनी अब लगने लगी ।

ख़ुश्क मंज़र, ख़ुश्क सबा, ख़ुश्क मैं भी,
'तन्हा' फ़िर क्यों आँखों में लगने लगी ।
डॉ. मोहसिन तन्हा
सहा.प्राध्यापक हिन्दी
जे.एस.एम. महाविद्यालय,  

अलीबाग (महाराष्ट्र) 

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