हमको तुम्हारी कमी लगने लगी ।
बदली - बदली
ज़मीं लगने लगी ।
घर की हदों
से बाहर किधर जाएँ,
हर शक्ल
अजनबी लगने लगी ।
हर रुत से
बेअसर बुत से क्यों हो गए,
सांसें रुकीं, धड़कन थमीं लगने लगी ।
इक तेरे
होने से दिले-सुकून कितना था,
रूहे-ग़म की
बेचैनी अब लगने लगी ।
ख़ुश्क मंज़र, ख़ुश्क सबा, ख़ुश्क मैं भी,
'तन्हा' फ़िर क्यों
आँखों में लगने लगी ।
डॉ.
मोहसिन ‘तन्हा’
सहा.प्राध्यापक
हिन्दी
जे.एस.एम.
महाविद्यालय,
अलीबाग
(महाराष्ट्र)
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