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मंगलवार, 22 जनवरी 2013

कविता


भूमि और पौधे  बनाम  माँ और सन्तानें                                                                               

और बीजों की तरह
भूमि के भीतर से
उग आया था, एक बीज !
भूमि की छाती पर ।
जो बीज अभी फूटा था
अंकुर बनकर,
इससे पहले पैदा हुए पौधों से
वह कहीं अधिक छोटा था ।
भूमि के भीतर से एक ही नस्ल के
पैदा हुए थे सभी पौधे,
लेकिन कुछ कांटेदार हुए,
कुछ हरे तो रहे, केवल ऊपर से
रहे रसहीन, गन्धहीन !
उन सबने सींचा था बहुत
भूमि की छाती का रक्त
और वह लहराये भी तो अपनी मस्ती में,
पर कभी नहीं फैंकी उनकी टहनियों ने
भूमि की सूखती, झुलसती छाती के लिये
एक भी पत्र की सुख भरी छांह !
भूमि ने कभी न मीचा था
अपने नेत्रों को उनके लिये
और न ही मुख फेरा था उनसे कभी ।
अपनी छाती पर, उनकी जड़ों को
मज़बूती से पकड़कर
उनको सदैव गाडे़ रखा !
उन कंटिले  हरे, केवल ऊपर से
सूखे, रसहीन, गन्धहीन पौधों को ।
भूमि ने किया था वर्षों उत्सर्ग उनके लिये
कितना ही शीतल और तरल रस
उनके भीतर भरती रही
और सहती रही आशाओं की अग्नि
अभिलाशाओं के धुंए ।
उस नए बीज ने देखा था सब कुछ
और भूमि की झुलसती छाती को,
जो हरे, केवल ऊपर से  कंटिले  सूखे,
रसहीन, गन्धहीन थे ।
उन पौधों से भूमि की कुचली मृतिका ने
दम तोडा़ था,
गहरी छांव देने को, मीठे फल देने को ।
पौधे विकृत हो गये थे
भूमि पर गडे़-गडे़ !
और रह गये बौने,
कूबड़ और विकलांग से
भूमि ने उस नए अंकुर से भी
नहीं की थी कोई आशा
और उसे वैसे ही उगने दिया,
जैसे सब उग गये थे,
वैसे ही सींचा
जैसे सबको सींचा था ।
जो हो गये थे ऊपर से हरे, पर सूखे,
रसहीन, गन्धहीन और कंटिले ।
समय के साथ सब पौधे
एक-एक करके मुड़ गये
अपनी ही जडो़ं  की और
भूमि ने अपने में ही समा लिया
अपने ही अंगों को ।
फिर समय के साथ नया अंकुर
बन गया पौधा !
अकेले ही वह खोजता रहा
कई प्रहरों, कई वर्षों, कोई उपाए
ताकि एक क्षण झूलसती भूमि को
चैन की छांह दे सके ।
वह भी गडा़ रहा भूमि की छाती पर
लेकिन बडी़ ही आस्था के साथ
उसने अपनी गम्भीर साधना से
कई टहनियों को दूर तक फैलाया
और कई हरे-हरे पत्र समेटे अपने में ।
सधना हुई पूर्ण
और सफलता का आया मौसम
तो खोल दिये अपने पत्रों के
अगणित हरे-हरे पंखों को
और बहा दिया शीतल पवन
देने को राहत
जलती, झुलसती भूमि को,
जो वर्षों से तप रही थी अपनों के लिये ।
आज वह अंकुर तना है बनकर वृक्ष सबल
भूमि की छाति पर
स्वयं वहन कर धूप को
नहीं झुलसने, तपने देता है
भूमि को एक क्षण के लिये भी
जब भी धूप झुलसाती है
भूमि का कोई कोना
तो फैला देता है
अपने हरे-हरे छोटे पंख ।
भूमि अब प्रसन्न है
उसकी चैन की छांह पाकर
उसे देखकर वृक्ष प्रतिदिन
उस पर  पुष्प बरसा देता है
और भूमि भूल जाती है
वर्षों की तपन,जलन, झुलसन
पाकर उसका हरापन, रसीलापन और गन्ध
भूमि होती जाती है
शीतल, शांत और नम्र !
डॉ॰ मोहसिन ख़ान
सहायक प्राध्यापक हिन्दी
जे. एस. एम. महाविद्यालय,
आलीबाग- जिला-रायगड़
( महाराष्ट्र ) 402201






सोमवार, 21 जनवरी 2013

कविता 'युग-चिंता'



 युग-चिंता

कितनी पीड़ा सही होगी
ईसा के साथ उन हाथों ने,
सच को मारने के लिये !
जिन्होंने ठोंकी थीं कीलें,
झूट,अन्याय, अत्याचार की
आतताइयों के आदेश पर
ईसा के हाथों और पैरों में ।
दर्द सहा होगा हर नस में,
पर ज़्यादा न सहा होगा ईसा ने ।
हो सकता है, मेरे पूर्वजों ने
उस दर्द का हिस्सा किया होगा वहन
भीतर कायर की तरह
और तड़पा होगा, ईसा की तड़पन से भी अधिक
सही होगी पीड़ा,
ईसा की पीड़ा से भी अधिक
जब तक दर्द की अंतिम सांस
न हो गई होगी पूरी,
क्योंकि वह मजबूर थे
उन कीलों को गाड़ देने के लिये, ईसा में
और ईसा में थी ताक़त सहने की
हर मुसीबत, हर विरोध के साथ
इसीलिये मेरे पूर्वज नहीं बने ईसा
क्योंकि वह पंगु थे, ग़ुलाम थे ।
मेरे पंगु, ग़ुलाम  पूर्वजों ने सहा होगा
कितने ही दिनों तक
उस घिनौने कर्म को
और सहा होगा दु:ख मरती सत्यता का ।
आज मैं भी ऐसा ही घिनौना कर्म करना चाहता हूं !
मैं लिये फिर रहा हूं, सदियों से
अपने हाथों में कीलें और हथौड़ी
मेरे पास कीलें और हथौड़ी तो हैं
लेकिन एक बौझ और व्यर्थता के साथ !
मैं भी गाड़ देना चाहता हूं
हाथ और पैरों में कीलें
लेकिन कोई ईसा नहीं मेरे युग में
जिसके शरीर में ठोंककर कीलें
मैं उसकी सच्चाई को अमर बनादूं !
मैं जानता हूं,
मेरी यह तलाश
कभी न होगी पूरी
क्योंकि यहां ईसा हो ही नहीं सकता है कोई !
सब पंगु और ग़ुलाम हैं,
मेरे पंगु, ग़ुलाम  पूर्वजों की तरह
इसलिये कभी बड़ी ही चिंता के साथ
मैं हँस देता हूं ख़ुद पर
और कहता हूं, ख़ुद से
क्यों व्यर्थ काम की तलाश है तुझे
और मैं मान भी लेता हूं
यह काम जीतेजी
कभी नहीं कर पाऊंगा!  

 डॉ. मोहसिन ख़ान
 अलीबाग
09860657970