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सोमवार, 30 सितंबर 2013

ग़ज़ल

जब हमने परचम फहराया था ।
तब आँधियों ने बड़ा डराया था ।

हमें अपनों के होने का गुमाँ था,
परखा तो हर कोई पराया था ।

हर मुसिबत में बड़ी शिद्दत से,
दोस्ती का फ़र्ज़ निबाहया था ।

वो हो जाए क़ामयाब और नामवर,
इसीलिए हुनर अपना छुपाया था ।

उसकी रहमतें हैं, पर अब फ़िक्र है,
उसने कल ही एहसान जताया था ।

मंजिल पे पहुँचा हूँ तो याद अता है,
शख़्स जिसने रास्ता दिखाया था ।

न किया तूने एतबार तो क्या करें,
'तन्हा' ने तो तुझको बुलाया था ।

मोहसिन  'तन्हा'
अलीबाग