हमने ख़ुद ही आफ़त की,
जब भी नई उलफ़त की ।
औरों की तरह शाद होते,
अपने हाथों ये हालत की ।
बेगुनाहों का गुनहगार हूँ,
किसी से न अदावत की ।
न हूँ मैं संगदिल ऐ दोस्त,
ग़लती है मेरी आदत की ।
मैं ख़ाक, तुम रहो बुलंद,
फ़िक्र नहीं शोहरत की ।
छीनकर सब बख़्श दी जाँ,
क्या मिसाल दी रहमत की ।
सज़ा-ए-बुतपरसती बेखोफ़
हर शै में तेरी इबादत की ।
मैं हूँ बादाख़्वार, न मुसलमां
क्यों उठाने की ज़हमत की ।
दिल मेरा सामने तोड़ देते,
कर गए बात मोहलत की ।
‘तन्हा’ मुंतज़िर
है सदियों से,
बात नहीं कहते क़यामत की ।
मोहसिन ‘तन्हा’
अलिबाग़