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रविवार, 22 सितंबर 2013

ग़ज़ल

हमने ख़ुद ही आफ़त की,

जब भी नई उलफ़त की ।

औरों की तरह शाद होते,
अपने हाथों ये हालत की ।

बेगुनाहों का गुनहगार हूँ,
किसी से न अदावत की ।

न हूँ मैं संगदिल ऐ दोस्त,
ग़लती है मेरी आदत की ।

मैं ख़ाक, तुम रहो बुलंद,
फ़िक्र नहीं शोहरत की ।

छीनकर सब बख़्श दी जाँ,
क्या मिसाल दी रहमत की ।

सज़ा-ए-बुतपरसती बेखोफ़
हर शै में तेरी इबादत की ।

मैं हूँ बादाख़्वार, न मुसलमां
क्यों उठाने की ज़हमत की ।

दिल मेरा सामने तोड़ देते,
कर गए बात मोहलत की ।

तन्हा मुंतज़िर है सदियों से,
बात नहीं कहते क़यामत की ।
    
मोहसिन तन्हा

अलिबाग़

ग़ज़ल

ग़ज़ल

तुझको मेरी अब ख़बर कहाँ ।
एक राह का अब सफ़र कहाँ ।

जिसकी ख़ामोशी गुनगुनाती थी,
बातों में उसकी अब असर कहाँ ।

मैं न देखकर भी देख लेता हूँ,
उसकी ऐसी अब नज़र कहाँ ।

की अदावत सारी दुनिया से,
मेरी उसको अब क़दर कहाँ ।

तन्हा उताश ही रहता है सदा,
पहली सी अब अज़हर कहाँ ।


 ग़ज़ल


अबके जाने  कैसा  दौर हुआ है ।
आदमी कितना कमज़ोर हुआ है ।

सच की आवाज़ सुन नहीं सकते ,
झूटों का कितना शोर हुआ है ।

बचते हैं सब  हरेक  निगाह से,
इंसान क्यों आदमख़ोर हुआ है ।

कोइ रोशनी नहीं, बस्ती जलती है ,
किस क़दर धुँआ घनघोर हुआ है ।

फ़िज़ाओं में कैसा बारूद घुला है,
अब ये धमाका किस ओर हुआ है ।

इस कहानी का कोई अन्त नहीं,
यहाँ सिपाही ख़ुद चोर हुआ है ।

ग़ज़ल

ग़ज़ल 

क्यूंकर जीता हूँ परेशानी में,
बस  एक  बल है  पानी  में ।

दुनिया क्या समझेगी हाल मेरा,
वो जी ती है  अपनी  रवानी में ।

डर लगता है कहीं अब ढह न जाए,
नयी कील ठुकी दीवार पुरानी में । 

माँ पास होती तो आज पी जाती,
शल जो पड़े हैं कब से पेशानी में ।

वक़्त ने लिखा हक़ीक़त का फ़साना,
दिल न लगा पारियों की कहानी में ।

अबकी नस्ल में क्यों नहीं जोश,
हरेक लगता है बूढ़ा जवानी में ।

‘तन्हा’ था मर गया नामवर शायर,
दो क़लाम छोड़ गया निशानी में 


ग़ज़ल 

बाँट दिया बाप ने बच्चों को  घर,
कहकर ये तेरा घर, ये तेरा घर ।

हमारा क्या है आज हैं कल नहीं,
पड़े रहेंगे कभी इधर कभी उधर ।

ख़ुद पढ़ा न पाया अपने बच्चों को,
था बड़ा उस्ताद जानता है शहर ।

कमी न थी पहले ही नफ़रतों की,
बीवी ने तेरी घोल दिया ज़हर । 

'तन्हा'  मुंतज़िर है  मौत का अब 
जाने कब मिल जाए तुम्हें ख़बर । 


मोहसिन 'तन्हा'
अलीबाग़