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शनिवार, 28 सितंबर 2013

ग़ज़ल


          ग़ज़ल

आज मौसम में कितनी तन्हाई है ।
शायद हो रही कोई रुसवाई है ।

वो गर्म झोंका बनकर गुज़र गए,
अब चल रही ख़ुशनुमा पुरवाई है ।

हर किसी को अपनों में गीनते रहे,
जब परखा तो हर चीज़ पराई है ।  

वो बात जो बीत गई वक़्त के साथ,
क्या कहें अपनी कम ज़्यादा पराई है ।

पूछते हैं तन्हा से जिनका ईमाँ नहीं,
ऐ ! गुनाहगार तेरी कहाँ ख़ुदाई है ।  

मोहसिन तन्हा


अलिबाग़

ग़ज़ल


झूटों के बीच नाक़ाम हो गए ।
कइयों के सच्चे नाम हो गए ।

की ख़िलाफ़त तो हुए बेसहारा,
मेरे सिर कई इल्ज़ाम हो गए ।

जो देखा बेतक़ल्लुफ़ कह दिया,
कहते ही हम बदनाम हो गए ।  

देखते ही बुतख़ाना सिर झुका,
सबने कहा हम हराम हो गए ।

सच कहा तो मिल गए ख़ाक में,
और ऊँचे उनके मक़ाम हो गए ।  




               ग़ज़ल

चुप रहिये कुछ न कहिये मुस्कराते जाइए ।
ये दौर है ज़ुल्मों का बस सहते जाइए ।

कोई जौहर न दिखाए और न चिल्लाए,
वक़्त की धार के सहारे बहते जाइए ।

अब पाएदान औंधा है और रास्ते उल्टे,
चलिये तहख़ानों में उतरते जाइए ।

न हो कोई मज़हब और न ही कोई नाम,
जब भी लगे ख़तरा तो बदलते जाइए ।

काट ली जीने की सज़ा तो इक काम कीजे,
जो जी रहे हैं उनको तसल्ली देते जाइए ।

बढ़ रहे हैं मौत की तरफ़ हम भी तुम भी,
शमा की तरह जलते, पिघलते जाइए ।


ग़ज़ल


मुझको सहुलियतें न थीं,
उनको दिक्क़तें  न  थीं ।

हर शर्त पर सौदा तय हुआ,
चीज़ की  क़ीमतें  न  थीं ।

उनकी ज़िंदगी कितनी अजीब,
जिन्हें कोई  मुसीबतें  न थीं ।

हर बार बुलंदी उनको मिली,
जिनकी ठीक हरकतें न थीं ।

उनको यक़ीं की आदत नहीं,
क्या सच अपनी बातें न थीं



ग़ज़ल

काश के ये मजबूरियां न होतीं,
तो हम में ये दूरियां न होतीं ।

बहोत बिखरा हूँ बिछड़ने के बाद,
तेरे होने से ये दुशवारियां न होतीं ।

तू जो रहता पहलू में मेरे दिन-रात,
तो कैफ़ की ये ख़ुमारियां न होतीं ।


तू न होता गर उजालों के मानिन्द,
मेरी भी ये परछाइयां  न होतीं ।

तू भी कहता सच मेरी ही तरह, 
'तन्हा' से यूँ रुसवाइयां न होतीं ।

ग़ज़ल


हमको  तुम्हारी  कमी  लगने लगी ।
बदली - बदली ज़मीं  लगने  लगी ।

घर की हदों से बाहर किधर जाएँ,
हर शक्ल अजनबी लगने लगी ।

हर रुत से बेअसर बुत से क्यों हो गए,
सांसें रुकीं, धड़कन थमीं लगने लगी ।

इक तेरे होने से दिले-सुकून कितना था,
रूहे-ग़म की बेचैनी अब लगने लगी ।

ख़ुश्क मंज़र, ख़ुश्क सबा, ख़ुश्क मैं भी,
'तन्हा' फ़िर क्यों आँखों में लगने लगी ।
डॉ. मोहसिन तन्हा
सहा.प्राध्यापक हिन्दी
जे.एस.एम. महाविद्यालय,  

अलीबाग (महाराष्ट्र) 

ग़ज़ल

वो कमज़ोर करता है अपनी नज़र को ।
देखना  नहीं चाहता  अपने  घर को । 

अदब का माहिर है, लिखता- पढ़ता है,
उसकी क़ाबलियत  नहीं पता शहर को । 

उसका ज़हन कई दिनों रहता है बेचैन,
बादे दुआ देखता है बीवी की क़बर को ।  

पढ़ता है नमाज़ नियत का है ख़राब,
करेगा निकाह देखता नहीं उमर को ।

आसरा है कई परिंदों की शब का,
तुम गिरने न देना इस शाजर को ।

निकल पड़ता है शाम ही से तन्हा’,
कहाँ जाता है, लौटता है सहर को । 


              ग़ज़ल 

इक उम्र बीत गई तुमको पाने के लिए ।
अब तो जाँ बची है मेरी गँवाने के लिए ।

पढ़कर हथेलियाँ मेरी नजूमी कहता है,
लकीरें नहीं तुम्हारे उसे पाने के लिए ।

करदो हवाले लाश मेरी अपनी क़ौम के,
करलो दिखावा तुम भी ज़माने के लिए ।

तन्हा यह कहता है रोज़ सरपरस्तों से,
कोई तो वजह दो उसे भुलाने के लिए ।  



               ग़ज़ल

इक उम्र लगी है ख़ुद को बनाने में ।
तुम लगे हो क्यों मुझको मिटाने में ।

मैं लौट भी आता पास तेरे लेकिन,
अभी लगे हैं  रिश्ते  निबाहने  में ।

न रश्क़ करो, न इज़्ज़त अफ़जाई,
बड़े बदनाम थे पिछले ज़माने में ।

आवारगियों ने कुछ तो सिला दिया,
मस्जिद की जगह बैठे हैं मैख़ाने में ।

होता है उजाला तो तन ढँक लेते हैं,
एक ही चादर है औढ़ने-बिछाने में ।

बच्चों का देखकर मुँह ढीठ हो जाता हूँ,
वरना आती है शर्म हाथ फैलाने में ।  

तन्हा घर से चला था नमक लेकर,
राह में लुट गए झोलियाँ दिखाने में ।     



मोहसिन तन्हा

अलिबाग़