वो
कमज़ोर करता है अपनी नज़र को ।
देखना नहीं चाहता
अपने घर को ।
अदब
का माहिर है, लिखता- पढ़ता है,
उसकी
क़ाबलियत नहीं पता शहर को ।
उसका
ज़हन कई दिनों रहता है बेचैन,
बादे
दुआ देखता है बीवी की क़बर को ।
पढ़ता
है नमाज़ नियत का है ख़राब,
करेगा
निकाह देखता नहीं उमर को ।
आसरा
है कई परिंदों की शब का,
तुम
गिरने न देना इस शाजर को ।
निकल
पड़ता है शाम ही से ‘तन्हा’,
कहाँ
जाता है, लौटता है सहर को ।
ग़ज़ल
इक
उम्र बीत गई तुमको पाने के लिए ।
अब
तो जाँ बची है मेरी गँवाने के लिए ।
पढ़कर
हथेलियाँ मेरी नजूमी कहता है,
लकीरें
नहीं तुम्हारे उसे पाने के लिए ।
करदो
हवाले लाश मेरी अपनी क़ौम के,
करलो
दिखावा तुम भी ज़माने के लिए ।
‘तन्हा’ यह कहता है रोज़ सरपरस्तों से,
कोई
तो वजह दो उसे भुलाने के लिए ।
ग़ज़ल
इक
उम्र लगी है ख़ुद को बनाने में ।
तुम
लगे हो क्यों मुझको मिटाने में ।
मैं
लौट भी आता पास तेरे लेकिन,
अभी
लगे हैं रिश्ते निबाहने में ।
न
रश्क़ करो, न इज़्ज़त अफ़जाई,
बड़े
बदनाम थे पिछले ज़माने में ।
आवारगियों
ने कुछ तो सिला दिया,
मस्जिद
की जगह बैठे हैं मैख़ाने में ।
होता
है उजाला तो तन ढँक लेते हैं,
एक
ही चादर है औढ़ने-बिछाने में ।
बच्चों
का देखकर मुँह ढीठ हो जाता हूँ,
वरना
आती है शर्म हाथ फैलाने में ।
‘तन्हा’ घर से चला था नमक लेकर,
राह में लुट गए झोलियाँ दिखाने में ।
मोहसिन ‘तन्हा’
अलिबाग़