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'सर्वहारा' में हिन्दी भाषा और देवनागरी लिपि में साहित्य की किसी भी विधा जैसे- कहानी, निबंध, आलेख, शोधालेख, संस्मरण, आत्मकथ्य, आलोचना, यात्रा-वृत्त, कविता, ग़ज़ल, दोहे, हाइकू इत्यादि का प्रकाशन किया जाता है।

रविवार, 30 अक्तूबर 2016

कविता

शहंशाह आलम की कविताएँ, कविता रचने के लिए रची हुई कविता नहीं; बल्कि सामाजिक पीड़ा का बोध और भीतरी तड़पन का गहरे अहसास की काव्यात्मक अभिव्यक्ति है। इनकी कविताएँ आम आदमी के इर्द-गिर्द के ताने के साथ वैश्विक स्तर पर हो रहे अमानवीय उत्पीड़न को नोकदार सेंकेत देकर तानाशाही, फाँसीवादी प्रवृत्तियों का विरोध दर्ज करती हैं। इनकी कविताओं में प्रगतिशीलता का आव्हान होने के साथ मानवीय उत्थान तथा सामाजिक दायित्वों के बोध का खुला ज्ञान है। सांप्रदायिक अलगाव को इनकी कविताएं सामाजिक समन्वय में ढालने की अद्भुत कला का संगम सँजोए हुए है। 

सम्पादक- सर्वहारा (डॉ. मोहसिन ख़ान )
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शहंशाह आलम  (कवि एवं चित्रकार)
रचनाकर का परिचय- शहंशाह आलम

जन्म : 15 जुलाई, 1966, मुंगेर, बिहार। शिक्षा : एम. ए. (हिन्दी)
प्रकाशन : 'गर दादी की कोई ख़बर आए', 'अभी शेष है पृथ्वी-राग', 'अच्छे दिनों में ऊंटनियों का कोरस',  'वितान', 'इस समय की पटकथा' पांच कविता-संग्रह प्रकाशित। सभी संग्रह चर्चित। 'गर दादी की कोई ख़बर आए' कविता-संग्रह बिहार सरकार के राजभाषा विभाग द्वारा पुरस्कृत। 'मैंने साधा बाघ को' कविता-संग्रह शीघ्र प्रकाश्य। 'बारिश मेरी खिड़की है' बारिश विषयक कविताओं का चयन-संपादन। 'स्वर-एकादश' कविता-संकलन में कविताएं संकलित। 'वितान' (कविता-संग्रह) पर पंजाबी विश्वविद्यालय की छात्रा जसलीन कौर द्वारा शोध-कार्य।
हिन्दी की सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं प्रकाशित। बातचीत, अालेख, अनुवाद, लघुकथा, चित्रांकन, समीक्षा भी प्रकाशित।
 पुरस्कार/सम्मान : बिहार सरकार के अलावे दर्जन भर से अधिक महत्वपूर्ण पुरस्कार/सम्मान मिले हैं।

संप्रति, बिहार विधान परिषद् के प्रकाशन विभाग में सहायक हिन्दी प्रकाशन।
संपर्क : हुसैन कॉलोनी, नोहसा बाग़ीचा, नोहसा रोड, पेट्रोल पाइप लेन के नज़दीक, फुलवारीशरीफ़, पटना-801505, बिहार।
मोबाइल :  09835417537, ई-मेल : shahanshahalam01@gmail.com
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चुनौती

सदन की दीर्घा में बैठकर उनकी चुनौती इतनी भर होती है
कि पंक्ति में खड़े सबसे अंतिम आदमी की गुत्थियाँ
वे अनसुलझा छोड़ देते हैं प्रत्येक सत्र के रोज़ो-शब में
चाहे वह ग्रीष्मकालीन हो या शीतकालीन या कोई और सत्र,

उनकी चनौती उनकी चिंता इस बात में अधिक होती है
कि उनके चेहरे जगमग रहें कालिख की कोठरी में रहते हुए,

ये कौन लोग हैं, सोचते हैं आप और मैं भी
ये कौन लोग हैं, सोचता है पंक्ति में अड़ा खड़ा
वह अंतिम आदमी भी जो मुस्कुरा रहा है
अपने दिन-रात की चुनौतियाँ स्वीकारते हुए,

जबकि उस आख़िरी आदमी की सदा कोई नहीं सुनता
न कार्यपालिका न न्यायपालिका न कोई चौथा खंबा
जिनके लिए हँसती हुईं सुब्हें हँसते हुए नए-नए अल्फ़ाज़
सजाए जाते रहे हैं हर बजट-सत्र के सरकारी विज्ञापनों में

उस अंतिम आदमी जोकि होते हैं मुल्क के पहले नागरिक
कोई उसकी गुत्थियाँ सुलझाने की चुनौती स्वीकारता है
तो पॉकेटमार सरकार नगर के न्यायाधीश से कहकर
देशद्रोह के इल्ज़ाम में काल कोठरी की सज़ा सुनवाती है
उन्हें, जो लड़ाई लड़ना जानते हैं हर पिछड़े हर दलित पक्ष की

इसलिए कि हर अंतिम आदमी हर सरकार के लिए
अल्लाह मियाँ की गाय होती है वोटों का दूध देनेवाली

यह चुनौती डरावनी है बरसों-सदियों से हर रात के अंतिम भाग में

यह चुनौती तब भी मैं स्वीकारता हूँ आज की सरकारों से बिना डरे
आज के न्यायाधीश से बिना घबराए जोकि सरकारों का समर्थन करते हैं
और हमें देशद्रोह की सज़ा सुनाते हुए उस अंतिम आदमी का हमदर्द मानते हैं।
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 चुप्पी

चुप्पी कहाँ पर नहीं थी समय के इस खंड में पसरी हुई
कुएँ के भीतर झाँको तो चुप्पी ही बैठी दिखाई देती थी
पूरी तरह शांत पूरी तरह भयहीन पूरी तरह तरोताज़ा

शब्द में वाक्य में व्याकरण में ध्वनि में अलंकार में
धूप में चट्टान में घुन में दीमक में तिलचट्टे में
एक बेचैन कर देनेवाली गहरी चुप्पी ही थी
जो ललकार रही थी मुझे अपना हिस्सा बनाने के लिए

पुल के नीचे छिपकर बजा रहे उस लड़के की शहनाई में
नदी में रह रहे कच्छप में नीले शंख में मछलियों में घास में
रेगिस्तान के ऊँट में ऊँटनी में चींटे-चींटी में छिपकली में
स्टेशन के एकांत में पड़े रेल के डिब्बे में पटरी में
एक बस चुप्पी ही थी जो उछल-कूद मचा रही थी
आदमियों का मुँह चिढ़ाती आदमियों के मुँह लगती हुई

यह भी सच है कि यह चुप्पी खटक रही थी अनगिन बार

अंतत: मैं ही अकेला पुकारता हूँ अपनी पसंद का नाम
भाँय-भाँय साँय-साँय सन्नाटे से घिरी इस गहरी खाई में

अंतत: मैं ही अँधे कुएँ के ठहरे हुए पानी में उच्चारता हूँ
उच्चारता ही जाता हूँ एक जादू भरी भाषा एक जादू भरा शब्द
और तोड़ता हूँ इस कालखंड की चुप्पी को पूरी तरह बोलक्कड़।
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जाँच
उन्होंने हर बार जाँच बिठाई है हर कैबिनेट की बैठक में
आपके और मेरे द्वारा माँगी गईं हर ज़रूरी वस्तुओं पर

यह एक बेहद पुराना मुहावरा हो गया है सत्ता के गलियारे में
हमारी हर माँग पर हर बार नए परीक्षण के त्वरित आदेश का

दुःख की बात यह नहीं कि सत्ता पक्ष हमारे साथ ऐसा करता आया है
दुःख की बात यह है कि हमारी हर जायज़ माँगों के विरुद्ध
देश के हर न्यूज़ चैनल वाले बैठ जाते रहे हैं घबराए हुए
हमारी कोई भी माँग पूरी होने से पहले इस विषय पर
कि इस देश में आप और मेरे जैसे शख़्स की कोई भी माँग
मानी कैसे जा सकती है जो पंक्ति में सबसे पीछे खड़े किए गए हैं

हमारी हर माँगों को आर्थिक फ़ायदे और नुक़सान के तराज़ू पर
तौला जाता रहा है तुष्टिकरण का नाम देते हुए हठधर्मी के साथ

हमें भूख क्यों लगती है और प्यास और जीने की इच्छा हम में क्यों है
और ऐसा होना जाँच का कोई रोचक विषय रहा है उन सब के लिए हर बार

चाहे जितनी बार जाँच बिठाओ हमारे जीवित होने न होने की
चाहे जितनी दफ़ा परीक्षण कराओ हमारी गारंटीयुक्त भूख की
चाहे सेंसेक्स के न बढ़ने का कारण हमें बनाते रहो मुहर लगाकर
चाहे देश के आर्थिक विकास में बाधक मानते रहो बारंबार

तुम्हारी तरफ़ से की जाने वाली जितनी जाँचें हैं हमारे ख़िलाफ़
सभी झूठी हैं और यह तुम बख़ूबी जानते-बुझते हो समझते हो
कि जिस दिन तुम्हारे विरुद्ध जाँच बिठाई गई हम सबके द्वारा
तुम तुम्हारी सत्ता से बेदख़ल किए जाओगे मार भगाए जाओगे

तुम, तुम जो हत्यारे हो बलात्कारी हो चोर हो गिरहकट हो
हमारे हमारे बच्चों के जीवन के हमारे समय के हमारी ज़रूरतों के

तुम मानो न मानो तुम समझो न समझो
तुम चाहे जितने सवाल-दर-सवाल खड़े करो-कराओ
हम तो तुम्हारे ज़ुल्म से तुम्हारे सितम से कुछ ज़्यादा ही
ताक़तवर हो रहे तुम्हारे ख़िलाफ़ खड़े होने के लिए रोज़-बरोज़।
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तानाशाह का क़िला यानी एक अदद क़िस्सा-ए-अमेरिका

तानाशाह के घर की आज सबसे बड़ी ख़बर थी ध्वनित
कि मारा गया लादेन किसी अकेले मकान के एकांत हिस्से में
जिसे जन्म दिया था इसी तानाशाह ने और मारा भी था ख़ुद से

ख़बर पक्की थी इसलिए तानाशाह ख़ुश था अपने क़िले में
तन्मय था यश बटोरने में अपने अपयश को छिपाते हुए

तानाशाह का क़िला बड़ा था हमारे सपनों से भी बड़ा और भव्य
अनगिन तानाशाह समा सकते थे इस दुर्ग में अर्द्धनग्न पूर्णनग्न

तानाशाह का क़िला जादूकथाओं परिकथाओं से भरा होता था
जहाँ इच्छा ज़ाहिर करते ही चीज़ें हाज़िर हो जाती थीं ख़ून से सनीं

लेकिन तानाशाह तानाशाह होते हुए भी डरा रहता था अपनी मृत्यु से
इसी भय में वह रोता रहता था अपनी रातों के अँधरे में सबसे मुँह छिपाए
इसी भय से इस तानाशाह ने अपने क़िले के बाहर और भीतर भी
परमाणुशक्ति युद्धशक्ति कामशक्ति बढ़ाने के विज्ञापन लगा रखे थे चकाचक
पूरी दुनिया से भूख मिटाने का नुस्खा भी टंगवा रखा था अपने हरम में

किसी देश ने इस तानाशाह के बारे में इबारत-आराई कभी नहीं की
न इस तानाशाह के प्रेम के बारे में, जो इसे करना कभी नहीं आया
न इस तानाशाह द्वारा कराए गए मुखमैथुन के बारे में
न इस तानाशाह पर जूते फैंके जाने के बारे में
न इस तानाशाह के भोजन कपड़े-लत्ते पर ख़र्चे के बारे में
न इस तानाशाह के क़िले में दफ़्न लोगों के बारे में

यह तानाशाह किसी आदमख़ोर पशु की मानिंद था दुनिया के नक़्शे में
जो खाता रहता था अपने से कमज़ोर मुल्कों कमज़ोर शहरियों को

लादेन के मारे जाने के बाद तानाशाह के क़िले में हस्बे-मामूल
एक बड़ी सभा रखी गई थी जोकि क़तई विचित्र नहीं थी
इस सभा में विश्व भर के तानाशाह राष्ट्र आमंत्रित थे आनंदित
मगर इस भारी आयोजन में किसी मुल्क की कोई जनता नहीं बुलाई गई थी
न कोई कथाकार न कोई कवि न कोई आलोचक बुलाया गया था

हर तानाशाह ऐसा ही करता आया था सदियों-सदियों से
इन सब बातों को लेकर लेखक बिरादरी का और जनता का
रोना भी सकारण रोना था अलंकृत लच्छेदार शैली में
लेकिन लेखक बिरादरी अमूमन और अकसर यह भूल जाती थी
कि उनके रोने की योजना कभी सफल नहीं हुई किसी सरकार में

जनता तो जनता ही ठहरी किसी भी देश की
जनता अकसर दिन का धागा पकड़ना चाहती थी
अपने-अपने तानाशाह बादशाहों के भयों को भुलाकर
तब तक कुछ वेश्याएँ भिजवा दी जाती थीं
जनता का जी बहलाने और ललचाने और सिहराने

ख़ैर, भाई लोग! इस तानाशाही निरंतरता में इस तानाशाही ऋतुचक्र में
जनता अपने मुल्क की भी ऐसी ही हो गई है पूरी तरह
महँगाई की लात महँगाई का ख़ुशी-ख़ुशी जूता खानेवाली चुपचाप

इस महासभा में अपने मुल्क के भी नेता पहुँचे थे
मगर औरों की तरह वे भी सबसे बड़े तानाशाह का फोता ही सहलाते दिखे
एकदम अभ्यस्त एकदम रोमाँचित एकदम मँजे हुए इस कार्य में
ताकि उनका भी नाम विश्व पटल पर गूँजता रहे शब्दवत

फिर असलियत यह भी थी कि तानाशाह का फोता नहीं सहलानेवाले
तानाशाह के अंडकोश का मसाज नहीं करनेवाले मारे जा रहे थे
अमेरिकी एफ़ बी आई अमेरिकी सी आई ए के हाथों निर्ममता से

आज की तारीख़ में अमेरिकी ज्ञान अमेरिकी विज्ञान के अलावे
भारतीय ज्योतिष की लंपटई की कई-कई शाखाएँ
अपने अमेरिकापरस्त नेताओं की नाभि से निकलने लगी हैं
उनके द्वारा राष्ट्रीय राजमार्ग पर सुबह की दौड़ लगाते हुए

आपको आपके नेताओं के बारे यह सब सुन-जानकर बुरा लगा हो
तो चार झापड़ मार लें हत्या करवा दें फाँसी पर चढ़वा दें मेरी
मैं अपना पुराना स्कूटर रोके खड़ा हूँ इन्हीं राजमार्गों पर

या दादरी टाइप घटना के बहाने मेरे अब्बू को मरवा डालें
इसलिए कि चुनाव फिर नज़दीक है यानी हत्यारों का उत्सव क़रीब है

बॉस, मैं अकसर ग़लत नहीं कहता
और आप अकसर मुझसे नाराज़ हो जाते हैं

बॉस, मैं तो अमेरिका और अमेरिकी नीतियों का विरोध तब भी करूँगा
जब यहाँ की मीडिया उसकी कुनीतियों का समर्थन करेगी पुरज़ोर

इसलिए कि बॉस, यहाँ की मीडिया अमेरिका और अमेरिकी नीतियों का
विरोध करनेवालों को ही तानाशाह घोषित करती आई है लगातार
अपनी एक्सक्लूसिव ख़बरों को दिखाते हुए उत्साहित एकदम
ताकि जिस सरकार के ये चमचे हैं, वह सरकार ख़ुश रहे इनसे

तभी तो ज़्यादातर न्यूज़ चैनल सरकारी प्रवक्ता बने दिखाई देते हैं इन दिनों

जबकि बॉस, आपको तो दुनिया भर में बने और बसे
अमेरिकी सैनिक अड्डों के पैरोकारों की मुख़ालफ़त करनी चाहिए थी

मेरे भाई, सद्दाम हुसैन ने कर्नल गद्दाफ़ी ने अमेरिकी तानाशाही के ख़िलाफ़
अपना सिर ही तो उठाया था अपनी आँखें ही तो दिखाई थीं
बदले में अमेरिका ने उन्हें शहीद किया अपनी राक्षसी प्रवृति दिखाते हुए

बदले में एकदम खबरिया हमने भी तो उन्हें ही आतंकवादी घोषित किया

आप बहुत तेज़ हैं बॉस, आपकी इसी तेज़ी के कारण
हम भी तो मारे जाते रहे हैं अकसर सफ़दर हाशमी की तरह पाश की तरह
तो कभी रोहित वेमुला कभी नरेंद्र दाभोलकर की तरह
तो कभी किसी एनकाउंटर के बहाने

आप बहुत तेज़ हैं बॉस, आप तानाशाह के क़िले में नतमस्तक
बस मल्टीनैशनल की बिकाऊ ज़बान बोलते हैं अपने दिन-रात में
हमारी सचबयानी पर परमाणु हथियार तानते हुए

यही विडंबना है हमारे बीत रहे गुज़र रहे समय की
हमने हमारी स्मृतियाँ तक बेच डाली हैं तानाशाह के हाथों
और हर तानाशाह देश औरत का सीना दाबकर
निकल ले रहा है अपने से बड़े तानाशाह के क़िले की बग़ल से।
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दादरी*

दादरी में मैं रोना चाहता था
जिससे कि पूरी पृथ्वी सुन सके
मेरा रुदन मेरा विलाप

लेकिन मेरे भीतर की अथाह जलराशि
सूख चुकी थी वहाँ की नदी के साथ-साथ

जैसेकि दादरी का जीवंत संगीत
हत्यारे की मृत आत्मा में छटपटा रहा था
किसी जीवंत झरने की खोज में

दादरी जैसे बेसुध था इन दिनों
बेकार-सा महसूस रहा था
वहाँ की गई हत्या का कारण जानकर

लेकिन हत्यारा जो कोई था
उसे दादरी के वर्षों पुराने आपसी रिश्ते को
बचाने से अधिक ख़त्म करने में मज़ा आया

उसे मज़ा आया कवि लोगों की बनाई हुई
इस दुनिया को नष्ट करने में
जिसमें कि रोज़ मुस्कराते हुए चेहरे थे
न त्रासदी थी न शोक था न कुरूपता थी

मगर तय यह भी था उसी दादरी में
कल बिलकुल नया सूरज निकलेगा
एक बिलकुल नई नदी बहेगी झिलमिल
एक बिलकुल नया रिश्ता बनेगा मुहब्बत का

तय यह भी था हत्यारे ही मारे जाएँगे एक दिन
और पृथ्वी पर मेरी हँसी सुनाई देगी
जो मेरे घर के दरवाज़े खिड़कियों से निकल रही होगी

और वह लड़की अपना प्रेम पा लेगी फिर से।

*दादरी उत्तरप्रदेश के उस गाँव का नाम है, जहाँ कि एक मुस्लिम परिवार के घर पर दंगायों ने यह अफ़वाह फैलाकर हमला कर दिया था, कि उस घर में गोमाँस खाया गया है और दंगाइयों ने उस घर के मुखिया की हत्या भी कर दी थी। यह कविता सांप्रदायिक सौहार्द बनाए रखने के लिए यहाँ जारी की जा रही है। ये लेखक की अपनी भावना हैं, सर्वहारा के संपादक के अपने विचार नहीं। 
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राजा से पहले

राजा पहले भी हुआ करते थे
पृथ्वी की सेहत बिगाड़ने वाले
राजा अब भी हुआ करते हैं
पृथ्वी पर ख़ून बहाने वाले

इन राजाओं से पहले जनता हुआ करती थी
अच्छी हालत में अच्छे इतिहास के साथ

सच पूछिए तो इस पृथ्वी पर से
सारे प्रधानमंत्री को सारे राष्ट्राध्यक्ष को
खदेड़ना चाहता हूँ मार भगाना चाहता हूँ
क़ैद कर लेना चाहता हूँ तलातल में

इस पृथ्वी को रखना चाहता हूँ
सेनाओं सिपाहियों से मुक्त

हमारी धरती पर राजा हैं
तो जनता की फ़जीहत है
तिरस्कार है अपमान है

हमारी धरती पर राजा हैं
तो सेनाएँ हैं सरहदें हैं ज़ंजीरें हैं
परमाणु बम हैं घातक मिसाइलें हैं
एक मुल्क की दूसरे मुल्क से लड़ाइयाँ हैं

सिपाही हैं तो चोर हैं उठाईगीर हैं
हत्यारे हैं बलात्कारी भी हैं
इनका संरक्षण पाकर मोटे होते हुए

पृथ्वी को पृथ्वी रखने के लिए
मनुष्य को मनुष्य रहने के लिए
इस पुरातन संविधान को बदलना होगा

हवा को हवा रखने के लिए
पानी को पानी रहने के लिए
राजा को जनता होना ही होगा

ऐसा होना इसलिए भी ज़रूरी है
कि राजा पहले भी हुआ करते थे
राजा अब भी हुआ करते हैं
हमसे पेड़ों की छाया तक छिनते हुए

और सच इतना-सा ही बचा रह गया है
इस पृथ्वी पर इस नंगे आकाश के नीचे।
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शहंशाह आलम की पेंटिंग 

रविवार, 23 अक्तूबर 2016

लेख- (वामपंथ क्या, क्यों, कितना और किसलिये?)

वामपंथ को आज भारत में शक की निगाहों से देखते हुए इसको सीधा-सीधा उग्रवाद से संबद्ध करते हुए उपद्रवी, बाग़ी और आतंकवादी प्रवृत्तियों के निकट लाकर देखा जा रहा है, लेकिन इस तरह से देखने के दो स्पष्ट कारण दिखाई देते हैं, पहला यह कि परंपरावादी प्रारम्भ से वामपंथ के विरोध में हैं ही और उनकी दृष्टि में वामपंथ एक गलत मार्ग होने के साथ सांस्कृतिक-क्षरण का कारक भी है। वे अपनी दृष्टि को इस पंथ के सापेक्ष में स्वीकार्यता के साथ विकसित न कर पाए और अपने सामंतकालीन निरंकुश दुराग्रहों से मुक्त न हो पाए। वे जातिगत, भाषाई, संप्रदायगत और भेदात्मक भावना का अधिक विकास करते हुए आपसी समन्वय से दूर होते गए। दूसरा यह है कि वामपंथियों के पास केवल वामपंथ है, न तो उनके पास कोई कारगर समुचित योजना है, न योजना के साथ कोई दृढ़ नेतृत्व, न अनुशासन न ही कोई विशेष संतुलित चेतना। केवल विरोध के लिए विरोध करना वामपंथ को सही दिशा में न लेजाकर इसे बदनाम करने के साथ इसके प्रति जनता में रोष उत्पन्न कर रहा है। यहाँ वामपंथ को समझना ज़रूरी हो जाता है कि वास्तव में वामपंथ है क्या?
वामपंथ होने का सीधा अर्थ राजनीति का वह पक्ष जो पारंपरिक सत्ता के विपक्ष में अपने समता के तौर तरीके, विचारधारा, मूल्य, सिद्धांत, मानदंड और अपनी बात रखता है। वामपंथी राजनीति (left-wing politics या leftist politics) राजनीति में उस पक्ष या विचारधारा को कहते हैं, जो समाज को बदलकर उसमें अधिक आर्थिक बराबारी लाना चाहते हैं। इस विचारधारा में समाज के उन लोगों के लिए सहानुभूति जतलाई जाती है जो किसी भी कारण से अन्य लोगों की तुलना में पिछड़ गए हों या शक्तिहीन हो गये हों। राजनीति के सन्दर्भ में 'बायें' और 'दायें' शब्दों का प्रयोग फ्रांसीसी क्रान्ति के दौरान शुरू हुआ। फ़्रांस में क्रान्ति से पूर्व की एस्तात ज़ेनेराल (Estates General) नामक संसद में सम्राट को हटाकर गणतंत्र लाना चाहने वाले और धर्मनिरपेक्षता चाहने वाले अक्सर बायें तरफ़ बैठते थे। आधुनिक काल में समाजवाद (सोशलिज़म) और साम्यवाद (कम्युनिजम) से सम्बंधित विचारधाराओं को बायीं राजनीति में डाला जाता है। 

भारत में मार्क्सवाद के पदार्पण के साथ वामपंथ का प्रारंभ हुआ स्वाभाविक है, भारत की राजनीति में वामपंथ अपनी विचारधारा, मूल्य, मानदंड और सिद्धांत लेकर आया लेकिन वह अब तक सफल न हो पाया। जिस तरह से इस पंथ को अनुशासन, नेतृत्व, चेतना और आस्था की ज़रूरत थी वह इतनी मात्रा में न मिल पाई जितनी मिलनी चाहिए थी। वामपंथ भारत जैसे बहुभाषी, बहुसंप्रदाय, बहुधर्म, बहुसंस्कृति वाले राष्ट्र में फल-फूल न सका क्योंकि वामपंथ को समझने के लिए साक्षर होने के साथ पारंपरिक आस्थाओं, लोक विश्वासों, धार्मिक रूढ़ियों, ढकोसलों को पहले जड़ से उखाड़ना होगा फिर इसके लिए इसे गहरे से जानने और समझने के लिए विशेष प्रयत्न करने होंगे। भारत में अधिकांश जनता की अवस्था ऐसी है जो साक्षर भी नहीं तथा जो साक्षर हैं वे धर्म, संप्रदाय और रूढ़ियों में इतने जकड़े हुए हैं, उनसे वे बाहर भी आना नहीं चाहते, अपनी दृष्टि को वैज्ञानिक चश्मा भी पहनाना नहीं चाहते। भारतीय राजनीति में मार्क्सवाद आज बहुत हद तक सिमटकर रह गया है, कोई विशेष स्थापना और ख्याति भारत में स्थापित न कर पाया, या यों कहें लोक में मार्क्सवाद की पकड़ न बन पायी, जिन्होंने इसे अपनाया वे कहीं न कहीं प्रबुद्ध वर्ग की पकड़ में रहा उनकी चेतना उससे मेल खाई और वह संस्थाओं, वैचारिक समूहों में स्थापित होकर एकांगिता का शिकार हो गया। आज यह भी जानना बहुत ज़रूरी हो जाता है कि मार्क्सवाद का भारतीय राजनीति में क्या स्थान है और ये कहाँ तक सफल हो सका है?
मार्क्सवाद वैश्विक स्तर पर फैलने के साथ भारत में प्रवेश कर वर्त्तमान तक पूर्णतः स्थापित न हो पाया। यद्यपि मार्क्सवाद समाज में समत्व के विकास के साथ मानवीय चिंता का ऐसा दर्शन है, जिसने समस्त विश्व को समानाधिकार की भावना, सामुदायिक विकास, पूँजीवाद के विरोध के साथ पूंजी के उचित वितरण प्रति व्यक्ति के विकास के साथ मानवीय इतिहास की नवीन व्याख्या की तथा पिछले समस्त दर्शनों से अधिक तर्कयुक्त रूप में उभरकर समक्ष आया। भारत में मार्क्सवाद को समझना और समझाना तथा इसकी सही सामाजिक व्याख्या करना आज बहुत आवश्यक है, चाहे पाठ्यक्रम में पुस्तकों के माध्यम से हो या कैम्पेनिंग के माध्यम से हो या कला की अन्य शाखाओं माध्यम से हो या संस्कार के माध्यम से। आज केवल मार्क्सवाद ही ऐसा दर्शन है, जो समाज की उन्नत्ति, प्रगति और न्यायिक व्यवस्था का सशक्त विधायक है। भारत की मार्क्सवादी पार्टी के नेताओं ने मार्क्सवाद ऐसा कुछ ख़ास प्रचार और प्रसार करने का प्रयत्न ही नहीं किया कि भारत में मार्क्सवादी पार्टी के माध्यम से जनअलख जगाया जाए और हर व्यक्ति को उसके अधिकारों, कर्तव्यों के प्रति जागरूक किया जाए। वास्तव में मार्क्सवादी पार्टी भारत में मार्क्सवाद को सही दिशा देने में असफल हो गई हैं, उन्होंने कभी भी अपने सिद्धांतों का बीज जनता के बीच जाकर संघर्ष रूप में बोया ही नहीं। वह चाहते तो हर गांव, गली, मोहल्ले, शहर जाते और अपने सिद्धांतो से आमजन को गहरे रूप में जोड़ते, परंतु उनकी इस तरह की पहल जो बहुत पहले होनी थी और उसमें निरंतरता बनाए रखनी थी जो हो न पाई!!! बहुत पहले कभी रूस के प्रभाव में आकर मार्क्सवाद का ख़ूब प्रचार और प्रसार हुआ। कई पुस्तकें हिंदी में अनूदित होकर भारत में आईं और सस्ता साहित्य ने तो मार्क्सवाद की स्थापना के लिए बाढ़ ला दी थी। पश्चात में न तो वैसी भावना का अनुगमन शेष रहा, न ही मार्क्सवाद के सिद्धांतों को किसी ने गंभीरता से ग्रहण किया और न ही जिस अनुशासन की माँग थी उसे पूर्णता मिल पाई। एक बहुत बड़ी कमी और कमज़ोरी भारतीय मार्क्सवादी पार्टी की यह रही कि मार्क्सवाद के प्रति प्रतिबद्धताओं और अनुशासनों में भयानक गिरावट आगई। जब अनुसासन, प्रतिबद्धताएं क्षीण होती हैं, तो उसके परिणाम भी शिथिल होने लगते हैं, यहाँ उन्हीं अवस्थाओं को हू-ब-हू चित्र उभरकर समक्ष आया है। मार्क्सवादी दल ने और नेताओं ने कभी इस बात पर गहराई से विचार और चिंतन न किया कि मार्क्सवाद के भारत में कमज़ोर पड़ने के क्या कारण हैं??? क्यों भारत में मार्क्सवाद उस स्तर पर लागू न हो पा रहा है जिस स्तर पर वास्तव में आज उसकी बड़ी सशक्त ज़रूरत है??? क्यों मार्क्सवादी दल घर-घर जाकर लोगों में मार्क्सवाद की भावना और शिक्षा नहीं बाँट पा रहे हैं??? क्यों मार्क्सवाद भारत में सामजिक दर्शन बनकर प्रतिनिधि रूप में नेतृत्व नहीं कर पा रहा है??? एक समाज दर्शन क्यों भारत में स्थापित न हो पा रहा है जबकि भारत में धर्म-दर्शन चाहे वह अंधविश्वासों से भरा हो स्थापित हो जाता है, तो मार्क्सवाद की स्थापना के प्रयासों में क्या कमी रह रही है??? मार्क्सवादी दल के पास कारगर नेतृत्व की कमी क्यों है??? एक गहरा चिंतन और प्रयास इस दल के नेताओं ने नहीं किया और न ही अपने को मार्क्सवाद के लिए संघर्षपथ पर ही कभी खपाया।केवल विपक्ष में बैठकर गिने चुने नेताओं के विरोध दर्ज करने, टिपण्णी करने, बयानबाज़ी से मार्क्सवाद कभी फलीभूत नहीं हो सकता है, न ही उसे व्यापक स्तर पर भारत में स्थापित किया जा सकता है। वास्तव में आज मार्क्सवाद को नए सिरे से नए भारतीय संस्कारों से संयोजित करने की गहरी आवश्यकता है ताकि समाज के सही हित का दर्शन भारतीय समाजजन में प्रस्थापित हो पाए। भारत में मार्क्सवाद को स्थापित करने में मार्क्सवादी दल की ही बड़ी भूमिका हो सकती है न कि कला और उसकी समस्त विधाओं की। आज साहित्य, नाटक, ललित कलाओं के माध्यम से समाजवाद अथवा मार्क्सवाद को जीवित तो रखा जा रहा है, लेकिन उसे जन-जन की मुक्ति का साधन बनाना बड़ा दुसह हो चुका है। आज बड़े स्तर पर ज़रूरत है कि मार्क्सवादी दल में नई जान फूँककर मार्क्सवाद को या प्रभाव को फैलाया जाए ताकि वह आमजन के जीवन के विकास का प्रतिरूप बनकर उभरे। एक बात यहाँ स्पष्ट भी कर दूँ कि भारत ईश्वरी आस्थाओं का देश है, जहाँ मार्क्सवाद को चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा, क्योंकि मार्क्सवाद ईश्वर की आस्था से विमुक्त वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर आधारित समाजदर्शन है। इसका एक सीधा सा उपाए है कि मार्क्सवाद को भारत में इस तरह खपाया जाए कि कहीं किसी की साम्प्रदायिक, धार्मिक भावना को ठेस न पहुंचे और मार्क्सवाद की फ़सल भारत में लहरा जाए!!!
इधर JNU में तथाकथित छात्र नेताओं ने अनियंत्रित, अनुशासनहीन, असंयोजित नेतृत्वहीन विफल प्रयास किये, जिससे मार्क्सवादी सिद्धांतों का हनन तो हुआ ही साथ ही वामपंथ के लिए लोगों की दृष्टि में नकारात्मकता आई और लोग वामपंथ से छिटककर दूर होते हुए कतराने लगे हैं। कन्हैया ने अनियंत्रित तरीके से अपने विरोध को दर्ज किया जो विवाद को उत्पन्न कर गया और वाममपंथी पार्टी ने उसे प्रश्रय दिया जबकि आवश्यकता इस बात की थी कि मार्क्सवादी पार्टी को अपने कड़े अनुशासन के तहत ऐसी प्रवॄत्तियों को प्रश्रय न देना चाहिए था। अभी हाल ही की घटना में JNU में घेराव किया गया जो कि लोकतांत्रिकता को चुनौती देता है। जबकि वामपंथ का सम्पूर्ण उद्देश्य लोकतान्त्रिक व्यवस्था का निर्माण होना चाहिये न कि बोखलाकर हिंसा के पथ पर उतरकर अपने संवादों, भाषणों को हथियार के रूप में इस्तेमाल करते हुए उपद्रव करते हुए देश की अखंडता और शांति को भंग करें। यदि वामपंथियों की ऐसी प्रवॄत्तियों को लगातार बल मिला तो मार्क्सवाद भारत में आतंकवाद के रूप में भविष्य में देखा जाएगा।आज बहुत ज़रूरत इस बात की है कि मार्क्सवाद को नए सिरे से भारत में स्थापना दिलाने के लिए एक कारगर नेतृत्व, अनुशासन, चेतना, आस्था,  नियोजन, प्रबंधन और गहरे त्याग की ज़रूरत है। यदि इस प्रकार से अनुशासनहीनता का शिकार मार्क्सवाद होता गया, तो इसे कोई पूछने वाला ह् रह जाएगा और यह बौद्धिक वर्ग का एक नज़रिया बनकर रह जाएगा। बौद्धिक वर्ग भी यदि इसे ऐसे ही अपनाता रहा तो ये उनकी मनमानी का एक उच्छश्रृंखल तरिका अथवा शैली के अतिरिक्त और कुछ न होगा। आज बेहद आवश्यक है कि मार्क्सवाद को नए तालमेल से भारत में किस प्रकार स्थापित किया जाए, किस तरह की योजनाएँ बनाई जाएँ जिससे यह लोक समाज में पुनः  जीवित होकर पल्लवित और पुष्पित हो सके। आज समय आ गया है कि इस सन्दर्भ में पुनर्विचार किया जाये और ये स्वीकार किया जाए कि मार्क्सवाद अपनी सीमाओं का अतिक्रमण करना छोड़ दे और नियंत्रित होकर अनुशासनबद्ध होकर सही दिशा में आगे बढे। आज मार्क्सवाद को सबसे बड़ी ज़रूरत भारतीय जनता के दिलों और जीवन में उसकी स्थापना की है ताकि लोक में इसके प्रति एक आस्था का निर्माण हो सके और भारत का नवनिर्माण आर्थिक समानता, धर्मनिरपेक्षता, मानवी समता के साथ एक अधिकार की भावना के तहत हो सके।
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डॉ. मोहसिन ख़ान
अलीबाग-महाराष्ट्र

शुक्रवार, 21 अक्तूबर 2016

लेख-साहित्य को खोखला कर रहे...विमर्श के सरोकार !

रचनाकार का परिचय
डॉ. अनवर अहमद सिद्दीकी 

महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालयवर्धा अनुवाद अध्ययन विभाग  में सहायक प्राध्यापक 26 वर्षों का शैक्षणिक अनुभव,  विश्वविद्यालय कार्यपरिषद के सम्मानित सदस्य, विश्वविद्यालय के विद्या परिषद् पूर्व सदस्य, विश्वविद्यालय के, विविध महत्वपूर्ण समितियों के सदस्य, पूर्व संयोजक- राष्ट्रीय सेवा योजना, संयोजक- अमन मानव मिशन।
देश-विदेश में अंतर्राष्ट्रीयराष्ट्रीयराज्य स्तरीय सेमीनारसम्मेलनकार्यशाला, संगोष्ठी में उद्घाटकअतिथि विद्वानबीज वक्तव्य,विशेषज्ञ आदि के रूप में सक्रिय भागीदारी विश्व हिंदी सम्मेलन न्यूयार्क (अमेरीका) अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी बैंकॉक (थायलैंड)प्रथम अंतर्राष्ट्रीय कॉन्फ्रेंस लाहौर (पाकिस्तान) आदि में आलेख वाचन
राजभाषा हिंदी कार्यशालाओं में केंद्र सरकार के उपक्रमोंकार्यालयोंसंस्थानों में विषय-विशेषज्ञविविध वादविवाद ,निबंधकविता आदि स्पर्धाओं एवं प्रतियोगिताओं के निर्णायकमंचीय समारोह में कुशल मंच संचालन, ग़ज़ल,काव्यआध्यात्मिक व्याख्यानसंभाषणनाट्य लेखनअभिनयनिर्देशन
विविध पत्रिकाओं का सम्पादनपुस्तक लेखन- अनूदित हिंदी नाटक :एक रंग दृष्टिप्रकाशन संस्थानदिल्लीपुस्तक अनुवाद- आध्यात्मिक बोधामृत :गुप्त संजीवनी पुस्तक/पत्रिका संपादन: बहुवचनपुस्तक वार्तानिर्मल विमर्शराह राहुल की...,मोहन से सम्मोहन...,अर्थ सन्देशदी ज्वेल आदि 
साहित्यिक आयोजनों एवं गतिविधियों में विशेष अभिरूचिअनुवाद एवं प्रशासनिक हिंदी कार्य-क्षेत्र आदि 
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संपर्क-निवास :
अमन कुटीरगांधी नगरवर्धा 442 001

मोबाइल- 9325469246 (निवास) फोन- 07152-247836
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              साहित्य को खोखला कर रहे... विमर्श के सरोकार !
ज के समय में साहित्य की जितनी हानि विमर्शों से हुई है, शायद ही उतनी हानि किसी अन्य दृष्टिकोण से हुई हो... वैसे विमर्श किसी एक पक्ष, वर्ग, जाति, विचार, लिंग, सम्प्रदाय आदि का प्रतिनिधित्व करता है... विमर्श का मुख्य उद्देश्य किसी एक वर्ग या श्रेणी विशेष की दबे, उपेक्षित और तिरस्कृत स्वर को मुखरित करते हुए निराकरण करना है... जबकि साहित्य का प्रयोजन काफ़ी फैला हुआ है... साहित्य की परिधि वृहद है... साहित्य की दृष्टि व्यापक है... साहित्य का फ़लक विस्तृत है... लेकिन विडम्बना है कि आज विमर्श ने साहित्य को विविध रंगों में, दुकानों में, प्रदर्शनियों में, खेमों में, वादों में और समुदायों आदि में विभक्त कर दिया है... जिसके कारण यह देखा गया है कि साहित्य में पूर्वाग्रही, संकीर्ण और संकुचित दृष्टि को अवसर मिला है... परिणामतः हाल ही के वर्षों में साहित्य में तेज़ी से कट्टरता फैली है... उसी तरह जो साहित्य समाज का दर्पण कहलाता था, जिस दर्पण में समाज का प्रतिबिंब दिखाई देता था, आज ऐसा साहित्य समाज का विभाजक बन कर रह गया है। 
      आज समाज को हम विविध खेमों में, वर्गों में और विचारों आदि में बंटा देख रहे हैं... आजकल विभिन्न प्रकारों के विमर्शों ने साहित्य का बेड़ा गर्क करके रख दिया है... एक तरह से देखा जाए तो आज साहित्य को विभिन्न प्रकार के विमर्श दीमक की भांति खोखला कर रहे हैं... जिसके कारण साहित्य को पोषित करने वाले मूल्यों का भी तेज़ी के साथ विघटन अर्थात अमूल्यन हो रहा है... विमर्श के कारण साहित्य में वर्णित कई तरह की मान्यताएं टूट रही हैं. साहित्य के प्रतिस्थापित मानदंड शिकस्त होते जा रहे हैं... मानो ऐसा लगता है, जैसे आज विमर्श के समक्ष साहित्य का अस्तित्व या साहित्य की अपनी अस्मिता को खो रहा है... उसी तरह आज साहित्य के क्षेत्र में विमर्श ने तो विकराल स्थिति उत्पन्न कर दी है, जिससे कि साहित्य विमर्श के समक्ष स्वयं को दोयम दर्जे का अनुभूत करने लगा है... कभी-कभी तो ऐसा प्रतीत होता है, जैसे विमर्श ने साहित्य से परे अपनी एक विशिष्ट पहचान बना ली है। 
      सचमुच आज साहित्य विमर्श के सामने असहाय, पंगु और बौना साबित हो गया है... विमर्श ने साहित्य में सिकुड़न की स्थिति उत्पन्न कर दी है... फलतः साहित्य का उदार और मानवीय चेहरा एकाएक नदारद हो गया... जिससे साहित्य लोकोन्मुखी एवं समाजोन्मुखी होने की बजाय व्यक्ति-विशेष, स्व-केंद्रित अथवा किसी एक विशिष्ट-वर्ग का स्वर बनता जा रहा है. जबकि साहित्य का लक्ष्य किसी एक विचार पर ठहर जाने के बजाय समस्त लोक या सर्वहित की समस्याओं को उजागर करते हुए उपयुक्त और अपेक्षित समाधान, निराकरण एवं निवारण प्रस्तुत करना है... खेद का विषय है कि आज बिना विमर्श के तथाकथित साहित्यकार भी अपनी कलम उठा पाने में स्वयं को अशक्त और हिचकिचाहट अनुभूत कर रहे हैं... आदर्शोन्मुख या साहित्यादर्श की बातें विमर्श के आगे बेमानी-सी लग रही है... जबकि साहित्य का विमर्श के बगैर भी सृजन हो सकता है... उसे विमर्श नामक किसी बैसाखी की आवश्यकता क्यों और किसलिए है ?
         सवाल उठता है कि क्या विमर्श के आने से पहले तक लिखा जाने वाला साहित्य वास्तव में साहित्य की कसौटी या मानदंड पर खरा उतरने वाला खरा साहित्य माना नहीं जाएगा या उसे स्वीकार नहीं किया गया या आज ऐसे साहित्य की वर्तमान परिप्रेक्ष्य में कोई प्रासंगिकता नहीं रह गयी है? क्या इससे पूर्व विमर्श के बिना जो साहित्य विपुल प्रमाण में रचा गया, ऐसा साहित्य विमर्श की अनुपस्थिति में खारिज़ किया जाने योग्य है ? दरअसल वह साहित्य समस्त विमर्शों को अपने भीतर समाहित किए हुए था... वह साहित्य समाज में निहित समस्त समस्याओं का चित्रण करते हुए उपयुक्त समाधान प्रस्तुत करने वाला एक जीवंत दस्तावेज हुआ करता था... कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि साहित्य को किसी विशेष वाद या विमर्श से देखा जाना या देखने की कोशिश करना बेमानी हो सकती है... ऐसा साहित्य केवल निजी स्वार्थ से उत्प्रेरित होकर लिखा जाने वाला साहित्य माना जा सकता है, जो केवल समाज में कटुता, ईर्ष्या, विद्वेष, हिंसा, घृणा आदि को बढ़ावा देते हुए अलगाव या विभाजन पैदा कर सकता है।
      दरअसल सच्चाई यह है कि साहित्य में विमर्श जिन उपेक्षितों, पिछड़े वर्गों, लिंगों, जातियों, सम्प्रदायों, धर्मों आदि के सरोकारों को लेकर स्थापित किए गए या किए जा रहे हैं, आश्चर्य की बात है कि आज उस वर्ग-विशेष को इन विविध विमर्श के स्थापित होने से प्रत्यक्ष कोई लाभ नहीं हो पा रहा हैं... बल्कि उस वर्ग-विशेष की समस्याएं जस की तस बनी हुई है... उनमें विमर्शों के शोर-शराबे का कोई असर दूर तक दिखाई नहीं दे रहा हैं... इस सत्य की पार्श्वभूमि में जो वास्तविकता है, वह भी कम चौकाने वाली नहीं है... वास्तव में विमर्श के नाम पर दूकानदारी करने वाले तथाकथित साहित्यकारों का वर्ग समूह उन्हीं के द्वारा स्थापित विमर्श को उसी अवस्था अथवा दशा में बनाए रखना चाहता है... वे उन समस्याओं का समाधान जानबूझकर होने देना नहीं चाहते हैं... संभवतः विमर्शों के स्वामी, जनक अर्थात पुरोधा विमर्श के समाधान हो जाने की स्थिति में विमर्श का कोई औचित्य न रह जाएगा... जिससे तथाकथित विमर्श के नाम पर हो-हल्ला कर साहित्यरूपी दूकान से अधिकाधिक लाभ अर्जन किया जाए  शायद यह सोचकर विमर्श को यथा बनाए रखने में अधिक विश्वास और संतोष अनुभूत कर रहे हैं।
         साहित्य के नाम पर विमर्शों की राजनीति करने वाले तथाकथित साहित्यकार बनाम राजनीतिक विमर्श का निराकरण कतई होने नहीं देना चाहते हैं... ठीक उसी प्रकार जैसे अल्पसंख्यकों के रहनुमा अक्सर चुनाव क़रीब आने के समय मज़हब या जाति के नाम पर आसानी से बिक जाया करते हैं... ऐसे रहनुमा मज़हब की समस्याओं को भुनाकर अपनी रोटी आसानी से सेंकना चाहते हैं... यदि इन समस्याओं का निराकरण करने वाला अगर कोई रहनुमा या प्रतिनिधि (जो कूटनीतिक और अवसरवादी न हो) नि:स्वार्थ या अनायास प्रकट होकर सामने आ भी जाय तो वे तथाकथित धर्मों के ठेकेदार एक साथ मिलते हुए आपसी विरोधों को भुलाकर उसे रास्ते से हटा देने में ही अपनी भलाई समझते हैं... जिसके कारण उस हाशिए के समाज की समस्याएं हमेशा-हमेशा के लिए पूर्ववत बनी रहती है... ठीक उसी तरह साहित्य में आज विमर्श केवल स्वांग रचने के लिए स्थापित किए जाते रहे :हैं... ताकि उस वर्ग-विशेष की दयनीय स्थिति को भोग कर तथाकथित विमर्श के नाम पर जीवनपर्यंत मलाई और दलाली खायी जा सकें।
    आज विमर्शों के बहाने कई तरह से पूर्वाग्रहों पर आश्रित हथकंडे और राजनीति की जा रही है... निरापद सिद्धांतों और वादों को ज़बरदस्ती थोपने का कार्य किया जा रहा हैं... आज विमर्शों की पार्श्व में कहीं भी बौद्धिकता या विवेक नज़र नहीं आ रहा, बल्कि ऐसा लगता है कि विमर्श को लेकर दिमागी कसरत का आखाड़ा बनाया जाने लगा हैं... विमर्श आपस में युद्ध की पूर्व तैयारी का सूचक हो गए हैं... विमर्श के अस्तित्व को जीवंत बनाए रखने के लिए आधारभूमि के रूप में विमर्श-मठ स्थापित किए जा रहे हैं... जहाँ विमर्श की धार को अधिक तीक्ष्ण बनाया जा सकें... ज़ाहिर है जब मठ होगे तो मठाधीश ख़ुद अवतरित होगे... ऐसी स्थिति में विमर्श केवल स्वांत: सुखाय और स्वार्थ सिद्धि के प्रयोजन से परे कुछ नहीं... आश्चर्य है कि विमर्श जिस वर्ग, समाज, विषय, समस्या या विचार को लेकर प्रारंभ हुआ वही वर्ग विमर्श के केंद्र से नदारद है... केवल विमर्श की राजनीति करनेवाले प्रबुद्ध साहित्यकारों ने जितना विमर्श शब्द का इस्तेमाल कर, साहित्य के साथ कुठाराघात किया है, शायद ही उतना किसी ने किया हो और यह सब-कुछ विमर्श के नाम पर...। 
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ये लेखक के अपने विचार हैं, जिससे सहमत-असहमत हुआ जा सकता है। (संपादक-सर्वहारा)