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रविवार, 30 जुलाई 2017

प्रेमचंद के बहाने आज के सवाल

(प्रेमचंद जयंती पर विशेष)

-डॉ. मोहसिन ख़ान

प्रेमचंद के पुनर्पाठ की आवश्यकता आज के संदर्भों में की जानी चाहिए; ये बात सही है, लेकिन आज की स्थितियाँ बहुत से क्षेत्र में मानवीय और भौतिक विकास करने की सोच की दिशा और प्रयत्नों में बदल चुकी हैं। आज पहले से भी अधिक कारगर शोषण के हथियार कई स्तरों पर ईजाद हो गए हैं। प्रेमचंद के युग में चल रहे शोषण के चक्र को सामंतवादी नज़रिये से आँका जा सकता है, क्योंकि वहाँ शोषण का सारा खेल सामंती सोच और व्यवहार पर आधारित है। एक और सामंतवादी दृष्टि है, तो दूसरी ओर राष्ट्र को पराधीनता से मुक्त कराने का सक्रिय प्रयास। प्रेमचंद जब लिख रहे थे तब राष्ट्र पराधीन था और स्वतन्त्रता की मांग प्रबल होने के साथ व्यापक जनसमूह का सपना गुलामी और दासता से मुक्ति था। आज स्वातंत्र्य के नाम पर जिस तरह की अराजकता का सामना किया जा रहा है वह ख़तरनाक ही नहीं बल्कि दुष्परिणामों के साथ भीषण और घातक अवस्था है। इस स्वातंत्र्य की सकारात्मकता को लोगों, संगठनों, संस्थाओं, राजनितिक दलों द्वारा जिस तरह का अंजाम दिया जा रहा है, वह एक वर्ग विशेष (दलितों, शोषितों और स्त्री को छोड़कर) को सामाजिक स्तर पर गलत तरीकों से ऊपर ले आने की जीती जागती कोशिश है और ऐसी कोशिश लोकतान्त्रिक पूंजीवाद से उपजे परिणामों की ही देन है। आज वैचारिक स्वातंत्र्य का जैसा लाभ नकारात्मक विचारों को पोषित कर रहा है, वैसा पिछले समय में या प्रेमचंद के समय में कम देखने को मिलता है। वैचारिक स्वतंत्रता की नली से जिस तरह का ज़हर संस्थाओं, दलों और तथाकथित नेतृत्ववादी लोगों द्वारा उगला जा रहा है, पिलाया जा रहा है; वह मानवीय समाज को किसी बेहतर स्तर पर न ले जाकर गर्त की दिशा की ओर ही उन्मुख कर रहा है। किसी एक वर्ग विशेष का अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए समाज में झूठे हितों का ध्यान रखना, वो भी धर्म-सम्प्रदायवाद या पूंजीवाद की भूमि पर खड़े रहकर, सरासर गलत और समाज के बाकी बाशिंदों के लिए अहितकर ही है। वर्ग विशेष और सवातंत्र्य के अधिकारों की बात प्रेमचंद के साहित्य मे भी पुरजोर तरीके से कही गयी है, लेकिन वहाँ किसी धर्म-संप्रदाय की भूमि पर खड़े होकर नहीं कही गई है, बल्कि मानवीय भूमि को आधार बनाया गया है और शोषित-वंचित वर्ग की हिमायत करते हुए उसकी वकालत की गई है। प्रेमचंद का समस्त साहित्य स्वातंत्र्य की कामना अथवा माँग का साहित्य है, उसके कई क्षेत्र, स्तर, चरण और सोपान हैं। वैचारिक स्वतन्त्रता के साथ राष्ट्र की स्वतंत्रता की कामना का एक महत्त्वपूर्ण अनथक प्रयास प्रेमचंद के साहित्य का प्राण है। प्रेमचंद का साहित्य मानव मुक्ति की कामना का साहित्य तो है ही साथ ही एक ऐसे समाज और राष्ट्र का निर्माण करने का आकांक्षी है, जहां शोषण का कोई स्थान न हो, यह कोई आदर्शवादी कामना का उपजा परिणाम या दृष्टि नहीं है; यह यथार्थ समाज की एक मानवीय मांग है।  
प्रेमचंद का साहित्य वर्ग विशेष की बात करता है, लेकिन किसी साजिश के तहत नहीं करता कोई राजनीतिक आन्दोलन नहीं और न ही किसी वाद से प्रभावित है, वाद से इसलिए प्रभावित नहीं माना जा सकता है कि प्रेमचंद अपने जीवन काल में अलग-अलग सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक स्तर पर जीते हुए अलग-अलग वैचारिक प्रणालियों को ग्रहण करते हैं, अलगअलग समकलीन व्यक्तित्त्वों का प्रभाव उनपर पड़ता है। कहीं वह गांधीवाद से प्रभावित नज़र आते हैं, कहीं पर विवेकानंद और कहीं पर आर्य समाज का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। अपने जीवन के अंतिम काल में वह मार्क्सवाद से जुड़ जाते हैं और शोषक-शोषित की अवस्थाओं पर खुला विचार करते हैं। प्रेंमचंद अपने स्तर पर पहले से ही प्रगतिशील थे, जब मार्क्सवाद का प्रभाव उनपर पड़ता है या मार्क्सवाद का परिचय पाते हैं, तो अपनी वैचारिक पद्धति से मेल खाता देखकर वह उसी को समर्पित हो जाते हैं। प्रेमचंद के साहित्य (चाहे वह कहानी हो या उपन्यास) में समस्त पात्रों की गहराई से पड़ताल करने से उनपर अलग-अलग शेड्स आसानी से देखे जा सकते हैं, जो कि प्रेमचंद के विकास के सोपानों के लक्षण नज़र आते हैं।  आज ज़रूरत है कि प्रेमचंद की परंपरा का निर्वाह करते हुए साम्राज्यवाद, सांप्रदायिक और फांसीवादी की ताकतों से संघर्ष करना होगा। यह लड़ाई सिर्फ हिन्दी के साहित्य के माध्यम से बेहतर और कारगर तरीके से की जा सकती है, क्योंकि मीडिया में इतनी सलाहियत नहीं कि सच को संसार के सामने ला सके, उसके पास शोधात्मक दृष्टि नहीं और न ही ज़िम्मेदारी का बोध है। मीडिया केवल सनसनीखेज माध्यम बनकर रहा गया है, उसके पीछे लोकतान्त्रिक पूंजीवाद की ताकत काम कर रही है। जिस तरह से मीडिया को अपनी ज़िम्मेदारी का निर्वाह करना चाहिए, उस तरह के प्रयास आज नगण्य ही हैं। सूचना क्रांति ने सूचनाओं का प्रसार तो किया, लेकिन पूंजीवादी अर्थव्यवस्था ने अपने पंजे वहाँ भी फैला दिये और मीडिया को अपनी गिरफ्त में ले लिया। प्रेमचंद के काल में मीडिया की बात करें तो कोई उन्नत साधन नज़र नहीं आते हैं, ले दे के माध्यम के रूप में केवल प्रिंट मीडिया ही दिखाई देता है, तब सूचनाओं को फैलाने का माध्यम शिथिल था, लेकिन साथ ही सशक्त माना जा सकता है, क्योंकि साहित्यकार ही वह भी हिन्दी का साहित्यकार अपनी भूमिका दोहरे, तिहरे स्तर पर निर्वाह कर रहा था। एक ओर वह साहित्यकार भी है, तो दूसरी ओर वह पत्रकार भी है, साथ ही तीसरे स्तर पर वह आम आदमियों के बीच जीता हुआ साधारण व्यक्ति है, जो अपनी जिम्मेदारियों का निर्वाह करता चला जा रहा है, वह भी बिना किसी व्यावसायिकता के। ऐसा साहित्यकार-पत्रकार किसी वर्ग विशेष का संचालन या नेतृत्व नहीं कर रहा है और न ही उसके केंद्र में आर्थिकता का सवाल है और न ही किसी धर्म-संप्रदायवाद से परिसंचालित है, वह अपनी लेखनी के माध्यम से मानव मुक्ति की कामना को केंद्र में रखकर अपना कर्म बड़ी ईमानदारी से कर रहा है। वह फांसीवादी शक्तियों से लोहा लेते हुए उनके विरुद्ध संघर्ष कर रहा है। इस संदर्भ में हंसको लिया जा सकता है। हंसप्रगतिशील विचारों का ऐसा मासिक पत्र था जो शोषण, अत्याचार, साम्राज्यवाद का खुलकर विरोध करता हुआ पूंजीवादी ताकतों से जाकर भिड़ जाता है और सर्वहारा वर्ग के अधिकारों की मांग को उठाता है। प्रेमचंद के काल का मीडिया एक हथियार के रूप में सामने आता है, जो कि साम्राज्यवादी शक्तियों से बराबर मुक़ाबला कर रहा है, उसके केंद्र मे आज़ादी का सपना है, समाज के उत्थान और विकास की कमाना है, पूंजीवादी सभ्यता के प्रति सर्वहारा वर्ग के हितों की आकांक्षा है, राष्ट्रवादी भावना का प्रसार है, देशीवाद का बोलबाला है, ग्रामीण संस्कृति-समाज की समस्याओं का मुद्दा है। आज मीडिया का इस प्रकार का निर्वाह नहीं रह गया है, मीडिया का सरा केंद्र अब आर्थिक सुदृढ़ता, प्रसिद्धि और प्रतियोगिता की अंधी दौड़ ने ले लिया है। आज मीडिया अपने केंद्र में मानव मुक्ति की कामना को सँजोकर नहीं रखती है, बल्कि आर्थिकता को केंद्र में रखकर चल रही है। आज भी हिन्दी के लेखक ही यह काम एक दायित्व के साथ कर सकते हैं। हिन्दी के लेखकों पर ज़ोर दे रहा हूँ, हिन्दी के लेखक इसलिए ये कार्य बेहतर तरीके से कर सकते हैं, क्योंकि वर्तमान में हिन्दी का पाठक आम पाठक होने के साथ बड़ी संख्या में है, हिन्दी भाषा को प्रतिनिधित्व करने वाली जनता आज व्यापक स्तर पर भारत ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी फैली हुई है और मौजूद है। मीडिया से इतर हिन्दी का लेखक आज भी बड़ी ईमानदारी से समाज में मानव मुक्ति की कामना को अपना स्वप्न सजाकर बैठा है, उसके केंद्र में आर्थिकता नहीं और न ही वह पूंजीवादी सभ्यता से पोषित है। वह अब भी लेखन को एक हथियार बनाकर पूंजीवादी शक्तियों को अपनी पैनी नौकों से भयभीत कर रहा है। वंचित जनता की माँग को साहित्य की विभ्न्न विधाओं के माध्यम से समाज, राष्ट्र के समक्ष रख रहा है और सभी का ध्यान आकर्षित किए हुए है। लेकिन यहाँ यह भी स्पष्ट हो जाना ज़रूरी है कि वह इतना मुखर या आम जनता के बीच सुनाई और दिखाई देने वाला नहीं है जितना इलेक्ट्रोनिक मीडिया है। आज इलेक्ट्रोनिक मीडिया एक व्यावसाय, निकाए और खबरों को बेचने वाले धंधे के रूप में उभरकर आया है। अब मीडिया गलत लोगों के हाथों में ऐसा स्वतंत्र खंजर है जिसे जब चाहे जिस दिशा में घुमाया जाए कत्ल अवश्य होगा। बदलते हुए माध्यमों ने जहां विकास के नए सोपान तय किए वहीं वह अपने ही माध्यमों में अविश्वसनीयता और व्यावसायिकता ले आया। प्रेमचंद के काल में यह दोनों बातें और स्थितियाँ नदारद हैं, वहाँ न तो व्यावसायिकता है और न ही अविश्वसनीयता का सवाल।   
प्रेमचंद के साहित्य में स्त्री-पुरुषों की समस्या पर बराबर सवाल उठाए गए हैं, कई कहानियाँ और उपन्यास स्त्री दासता की मुक्ति के प्रबल समर्थक या यों कहें उन्हीं की मुक्ति की कामना के लिए सृजित साहित्य है। दलितों, शोषितों और स्त्री कि समस्याओं को प्रेमचंद ने अपनी कथा का आधार बनाया और उनकी मुक्ति की कमाना को उद्देश्य बनाकर कथासूत्र को पिरोया। बहुत कुछ अर्थों में आज दलित- शोषित और स्त्री की स्थितियों में सकारात्मक परिवर्तन आया है, लेकिन अब भी पूर्ण मुक्ति की कामना का स्वप्न अधूरा ही है, संवेधानिक तौर पर दलितों, शोषितों और स्त्री को आज अधिकारों की पूँजी मिल चुकी है।     आज सवाल स्त्री-पुरुष के सम्बन्धों की पड़ताल का नहीं रहा गया है, न ही स्त्री की छवि का, न ही उसके धर्म, मर्यादा और जातिगत अस्मिता का है, आज का सवाल सबसे बड़ा यह नज़र आता है कि उसकी अस्मिता आज भी नकार दी जाती है, उसे आज भी सामंतवादी निगाहों से समाज में देखा जाता है, यह बात केवल स्त्री के साथ ही नहीं है, बल्कि दलितों और शोषितों के साथ अधिक मात्रा में देखी जा रही है। ऐसा नहीं है कि शासन-प्रशासन इनके अधिकारों की पैरवी नहीं कर रहा हो या इन्हे अधिकार दिलाने या न्याय दिलाने में ढुलमुल रवैया अपना रहा हो, वह मुस्तैद है, सही मायनों में तो समाज ही इनके प्रति दोषी है, जोकि दुर्भावना को, अनधिकारपन की भावना को मन में पाले बैठा है। आज के साहित्य को समाज की गहराई में धँसकर उन स्थितियों को उजागर करना होगा जो कि प्रकाश में नहीं आ रही हैं। कई कारणों की पड़ताल गहराई में जाकर करनी होगी और वास्तविक सच को बाहर लाना होगा। किसी सुरक्षित कमरे में या रोजी-रोटी की समस्या के हल होने के पश्चात की गयी साहित्यिक जुगाली से समाज में सकारात्मक बदलाव की उम्मीद सरासर एक बेमानी है। लेखक का सामज के प्रति दायित्व कहीं व्यापक, गंभीर और जिम्मेदारियों से भरा हुआ है। अंतत: साहित्य कोई मनोरंजन की वस्तु तो है नहीं और न ही कोई खुद को प्रोजेक्ट करके प्रसिद्धि प्राप्त करने का माध्यम। आखिर समाज में साहित्य की सत्ता है और उसकी गंभीर जिम्मेदारियाँ हैं।        
प्रेमचंद का साहित्य भ्रष्टाचार का भी पर्दाफाश करता है, उसके निर्मूलन के उपाए भी सुझाता है। ऐसा नहीं कि भ्रष्टाचार आज की ही समस्या हो, यह समस्या प्रेमचंद के साहित्य में भी निरंतर देखने को मिलेगी। आज जीविका को किस स्तर पर चलाया जाए? सरकारी कार्यालय में नियुक्त हैं तो क्या बाकियों के साथ भ्रष्टाचार में योग देकर नोकरी बचाई जाए, या उदासीन होकर केवल यूं ही बुझेमन से जिया जाए! आए दिन भ्रष्टाचार के नए-नए रूप और तरीके हमारे समक्ष आ रहे हैं, व्यापमं का इतना बड़ा घोटाला आज सुर्खियों में है, कल कोई दूसरा घोटाला सुर्खियों में होगा। सरकारी योजनाएँ हों या कोई विकास के लिए किए गए कार्य हों, हर तरफ भ्रष्टाचार का मुंह देखना पड़ रहा है। स्कूल, सड़क या सार्वजनिक उपयोग के लिए कोई निर्माण हो, उसकी शुरुआत ही भ्रष्टाचार से होती है। अधिकारियों को रिश्वत दी जाती है, अपने नाम पर टेंडर खुलवाया जाता है, फिर प्रतिशत के हिसाब से रुपया बाँटा जाता है, नक्शे पर सारे कामों को अंजाम दिया जाता है।  
आज सबसे बड़ी लोकतान्त्रिक ज़रूरत जनता को उसकी की शक्ति को पहचान कराकर सही जनमत को तैयार करना है। जिस दिन जनता का जनमत सही तैयार होगा राष्ट्र में सकारात्मक महाबदलाव की स्थितियों का निर्माण हो जाएगा। आज के लिए सबसे बड़ा ख़तरा सांप्रदायिकता के बड़ते क़दमों में बेड़ियाँ डालने का है, जिस स्तर पर सांप्रदायिकता का प्रोपेगेंडा जिस दृष्टिकोण से जिस आयवरी टावर में बैठकर फैलाया जा रहा है उसका परिणाम बहुत खतरनाक होने के साथ मानव जीवन के लिए शर्मनाक होगा। आज की ज़रूरत सांप्रदायिकता के खिलाफ लड़ने की है, लड़ने वाले कम हैं और लड़ाने वाले अधिक हैं, चारों ओर से जानवर-सी आक्रामक स्थितियों का निर्माण हो रहा है, मन-मस्तिष्क में सांप्रदायिकता आलोड़न ले रही है, भरे हुए पेटों द्वारा सांप्रदायिकता की आग जलाई गयी है और उसकी आँच को और भी हवा देकर ऊँचा किया जा रहा है, बढ़ाया जा रहा है। आज सबसे बड़ी चुनौती प्रजातांत्रिक मूल्यों की रक्षा करते हुए राष्ट्रवाद की भावना को ऊपर लाना, साथ ही सांप्रदायिक-हिंसा और गलित प्रेरक शक्तियों की पहचान करते हुए उनके विरुद्ध खड़े होकर संघर्ष करने की है। मैं स्पष्ट कर रहा हूँ कि राष्ट्र किसी भी आर्थिक संकट से नहीं गुज़र रहा है, न ही कोई बड़ा युद्ध राष्ट्र किसी राष्ट्र के साथ लड़ रहा है और न ही कोई प्राकृतिक आपदा राष्ट्र मे आई है। ऐसे शांति काल में क्यों न हम विकास की बात सोचें और सांप्रदायिक गलित शक्तियों का मुंह बंद करादें। ऐसे प्रगतिविरोधियों की सांप्रदायिकता की आग अपने आप ही बुझ जाएगी जिसमें बेगुनाहों को जलाया जाता है। आज राष्ट्र में सांप्रदायिक सद्भाव का जनमत तैयार करने की गहन आवश्यकता है, जैसी आवश्यकता प्रेमचंद ने अपने काल में थी, उससे भी अधिक शक्ति लगाकर सद्भाव बनाए रखना होगा। किसी भी प्रकार की अफवाह से ख़ुद को बचाते हुए सांप्रदायिक वैमनस्य की बातों से हरेक को हरेक से दूर रहना चाहिए और किसी भी प्रकार से मीडिया के बहकावे में न आते हुए, अपनी आत्मा, मन, मस्तिष्क की आवाज़ को सुनना होगा। आखिर धर्म, संप्रदाय से कहीं अधिक ऊँचा राष्ट्र होता है, राष्ट्रवासी होते हैं, उनका जीवन महत्त्वपूर्ण होता है। एक लेखक केवल अपने शब्दों से हिंसा करने वाली शक्तियों की पहचान ही करा सकता है, हिंसा को रोकने की हिदायत ही दे सकता है, ह्रासशील प्रवतियों के खतरों से सावधान रहने की बात कर सकता है, गतिरोधों को उखाड़ फेंकने की मांग कर सकता है। लेखक ख़तरों की संभावनाओं की तलाश कर सकता है, उनसे बचे रहने का मार्ग दिखा सकता है, गलित ताक़तों के विरुद्ध खड़े रहकर संघर्ष की भावना का निर्माण कर सकता है। प्रेमचंद का साहित्य हमें ऐसी ही विचार-भावना का पाठ सिखाता है, उनके सारे पात्र संघर्ष की अवस्था के पात्र हैं, संघर्ष में भी विविधता है, कहीं आर्थिक है तो कहीं सामाजिक, कहीं सांप्रदायिक, कहीं राजनीतिक, लेकिन है संघर्ष की गाथा और आम आदमी के जीवन-संघर्ष की गाथा। किसी पूंजीपति, बुर्जुआ को कभी आमजन के लिए उसकी समस्याओं के लिए सड़क पर संघर्ष करते किसी ने देखा है? या किसी राजनेता को संकट के समय जनता के बीच सहायता करते देखा है? या किसी धर्म के ठेकेदार ने आमजन या जनता को सही मार्ग पर लेजाते हुए देखा है? सभी ने गुमराइयों को अपना हथियार बनया है, एक काल्पनिक लोक का झूठा निर्माण किया है और समस्याओं को बढ़ाया है, यथार्थ तथा सच से दूर रखने की साजिश रची है, बिना चेतावनी के आम आदमी का क़त्ल किया है और करते जा रहे हैं। ऐसे भयानक समय में लेखक का दायित्व हो जाता है कि अपनी लेखन की धार को और पैना करे तथा गलित ताक़तों के विरुद्ध कई स्तरों पर संघर्ष करता हुआ प्रगति, विकास, राष्ट्रवाद को बढ़ावा देते हुए, फांसीवादी और सांप्रदायिक शक्तियों के विरुद्ध खड़े होकर आमजन को अपने साथ जोड़कर नए पथ का निर्माण करे जहां मानव जीवन को उन्नत, मूल्यवान, सुरक्षित और प्रगतिगामी बन जाए।

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डॉ. मोहसिन ख़ान
हिन्दी विभागाध्यक्ष एवं शोध निर्देशक
जे. एस. एम. महाविद्यालय,
अलीबाग-402201
ज़िला-रायगढ़- (महाराष्ट्र)
09860657970

ई-मेल- khanhind01@gmail.com   

रविवार, 25 जून 2017

सांस्कृतिक लेख

 रमज़ान से मानवीय इब्तिदा
चाँद मुबारक 

समरसता भारत की विशेषता ही नहीं, बल्कि भारत की प्राण-शक्ति है। ये विश्व का ऐसा अनोखा देश है; जहां हर धर्म, जाति, संप्रदाय में आस्था रखने वाले लोग साझा-सांस्कृतिक उत्सव मनाते हैं और एक-दूसरे को इस तरह ग्रहण करते हैं कि पता ही नहीं चलता कि विभेद अथवा भिन्नता किस स्थान पर है!!! भारत के सांस्कृतिक उन्मीलन की स्थिति को बड़ी सादगी और आपसी सहिष्णुता के साथ दर्शा रहे हैं, शैलेश त्रिपाठी॥ 
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जीवन में कितना समन्वय स्थापित हैं,जीवन में एक रस जिसे समरसता,अखण्डता,समानता नज़र आता हो ये रस किसी इंसान के रहमो करम से नही बल्कि प्रकृति का अनोखा खेल है जो मुसलसल मसर्रत,क़ुर्बत पैदा करती है रश्को के रंग को धूमिल बना देती और उस पर मोहब्बत के तसव्वुर की फ़ोटो लगा देती है।
इंसान कितनी भी इबादत कर ले जब तक वो अपने भीतर से रश्क को सोज़ नही कर देगा तब तक इबादत मुकम्मल नही होगी,उसके भीतर की इंसानियत भीतर ही रहेगी बाहर नही निकल सकती।
बड़े संयोग की बात है रमज़ान के ठीक बाद श्रावण मास का आरम्भ हो रहा है ,इसको एक इतफ़ाक नही बल्कि एक सुंदर और सुखद संयोग ही कहेगे क्योंकि
रमज़ान का माह जितना त्याग और पवित्रता का माना जाता है श्रावण मास भी उसी की भाँति इबादत,समन्वय का माना जाता है पर कहि न कहि रमज़ान और श्रावण ये दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू है जीवन में सिक्का नही बदलता पहलू बदलते है। रमज़ान उन्ही को मनाने का हक है जो राम को जानते है जो राम के जान है,जिनको राम प्रिय हो,जिनके भीतर राम हो जो रोज़ा में रोज़ राम की मन्नते करते हो पर राम कौन है?
ये सबसे बड़ा सवाल है! 
जिसके भीतर त्याग,शीलता,शीतलता,ज्ञान,विनम्रता,सहज,सुशील,
समरसता,समन्वय,सत्यता हो वो राम है।
यहाँ राम और अल्लाह एक है लोगो ने अपने फायदे के लिए दोनों को बाट दिया पर एक स्तर पर दोनों एक है बस नज़रिया अलग है।
रमज़ान एक ऐसा पाक माह है जहा हर इबादत मुकम्मल होती है और श्रावण एक माह है जहा खुदा मुसलसल क़ुर्बत देती है।
रमज़ान और श्रावण माह ये दोनों जीवन को जीने का तरीका सिखाता है। श्री रामचरितमानस यदि 
Art Of Living एक प्रमेय है तो रमज़ान उसी प्रमेय का परीक्षण रमज़ान ही नही नवरात्र भी इसी श्रेणी में आता है। 
हमारे जीवन में गीता,कुरान,बाइबिल,गुरुग्रन्थ ये सभी समाज के हर वर्ग के भीतर सम्भावना प्रस्तुत करता है हृदय में समरसता,सत्यता और एकता की भावना को जागृत करता है जीवन को किस तरह से स्वच्छ,सुंदर,सहज बनाया जा सके ये ।
श्री मोहसिन खान तनहा साहब जिन्होंने समाज में समता और समन्वय को बढ़ावा दिया उन्ही की पंक्तिया-

मैं करू पाठ मानस,गीता का रोज़ तेरी तरह
और तुझको भी हिफ्ज़ मेरा कुरआन हो जाए।
मुझमे देखे राम तू,तुझमें महसूस हो अल्लाह
कुछ इस तरह अब अपना ईमान हो जाए।।

प्राचीन काल से देखा जाय तो समन्वय की धारा बह रही है न जाने कितने मध्यकालीन मुस्लिम कवि हुए,जिन्होंने समानता प्रस्तुत की हिन्दू सम्प्रदाय का जनलोकप्रिय कालजयी कृति श्रीरामचरित मानस  जिसको लिखने के बाबा तुलसीदास ने अपने एक अत्यंत प्रिय मित्र जो मुसलमान थे उनको सुनाया ये सब जीवन को व्यवस्थित और सुंदर ही तो बनाती है जीवन को लाजवाब और बेजोड़ ही तो बनाती है।
रमज़ान और श्रावण माह संसार के प्रत्येक मनुष्य को मनुष्य बनने की प्रेरणा देती है।
जीवन में क्रोध,काम,कपट ये सब जीवन को नीरस बनाते है पर रमज़ान और श्रावण,नवरात्र ये सब जीवन में रस बनाते है हमे इसका पूर्ण आनन्द लेना चाहिये।
ईद और दीवाली एक ऐसा त्यौहार है जो जीवन में प्रकाश ही प्रकाश लाती है पर किसके हृदय में प्रकाश आया ये तो खुदा की इबादत और ईश्वर की पूजा नही बल्कि मनुष्य के भीतर राम आने से ही पता चलेगा । रमज़ान और श्रावण हमे मानवीय जीत को उन्मुख करती है रमज़ान और श्रावण एक ऐसी मोहज़्ज़ब देती है जिससे रश्क सोज़ जाय । जिसके बाद मसर्रत मुसलसल हो जाय,तसव्वुर ज़हन से ज़हनसीब हो जाए,रमज़ान दो दिलो के बीच क़ुर्बत पैदा करती है और श्रावण दो दिलो में मसर्रत देती है जिससे रिफ़ाक़त आती है। रमज़ान से मानवीय होने की इब्तिदा होती है श्रवण मास में मुकम्मल होती है। जिससे हमे क़ुर्बत की नशेमन में प्रवेश कर खुर्शीद का फरियाद करके मसर्रत को प्राप्त करते है साथ ही हर इंसान के प्रति एहतिराम प्रस्तुत करते है। 
ईद उल-फ़ित्र या ईद उल-फितर (अरबी: عيد الفطر) मुस्लमान रमज़ान उल-मुबारक के महीने के बाद एक मज़हबी ख़ुशी का तहवार मनाते हैं जिसे ईद उल-फ़ित्र कहा जाता है। ये यक्म शवाल अल-मुकर्रम्म को मनाया जाता है। ईद उल-फ़ित्र इस्लामी कैलेण्डर के दसवें महीने शव्वाल के पहले दिन मनाया जाता है। इसलामी कैलंडर के सभी महीनों की तरह यह भी नए चाँद के दिखने पर शुरू होता है। मुसलमानों का त्योहार ईद मूल रूप से भाईचारे को बढ़ावा देने वाला त्योहार है। इस त्योहार को सभी आपस में मिल के मनाते है और खुदा से सुख-शांति और बरक्कत के लिए दुआएं मांगते हैं। पूरे विश्व में ईद की खुशी पूरे हर्षोल्लास से मनाई जाती है। ईद उल-फ़ित्र या ईद उल-फितर (अरबी: عيد الفطر) मुस्लमान रमज़ान उल-मुबारक के महीने के बाद एक मज़हबी ख़ुशी का तहवार मनाते हैं जिसे ईद उल-फ़ित्र कहा जाता है। ये यक्म शवाल अल-मुकर्रम्म को मनाया जाता है। ईद उल-फ़ित्र इस्लामी कैलेण्डर के दसवें महीने शव्वाल के पहले दिन मनाया जाता है। इसलामी कैलंडर के सभी महीनों की तरह यह भी नए चाँद के दिखने पर शुरू होता है। मुसलमानों का त्योहार ईद मूल रूप से भाईचारे को बढ़ावा देने वाला त्योहार है। इस त्योहार को सभी आपस में मिल के मनाते है और खुदा से सुख-शांति और बरक्कत के लिए दुआएं मांगते हैं। पूरे विश्व में ईद की खुशी पूरे हर्षोल्लास से मनाई जाती है।
यह त्योहार ईद रमज़ान का चांद डूबने और ईद का चांद नज़र आने पर उसके अगले दिन चांद की पहली तारीख़ को मनाई जाती है। इसलामी साल में दो ईदों में से यह एक है (दूसरा ईद उल जुहा या बकरीद कहलाता है)। पहला ईद उल-फ़ितर पैगम्बर मुहम्मद ने सन 624 ईसवी में जंग-ए-बदर के बाद मनाया था। रमज़ान इबादत और मानवीयता का त्यौहार है उपवास की समाप्ति की खुशी के अलावा इस ईद में मुसलमान अल्लाह का शुक्रिया अदा इसलिए भी करते हैं कि उन्होंने महीने भर के उपवास रखने की शक्ति दी। ईद के दौरान बढ़िया खाने के अतिरिक्त नए कपड़े भी पहने जाते हैं और परिवार और दोस्तों के बीच तोहफ़ों का आदान-प्रदान होता है। सिवैया इस त्योहार की सबसे जरूरी खाद्य पदार्थ है जिसे सभी बड़े चाव से खाते हैं।

ईद के दिन मस्जिदों में सुबह की प्रार्थना से पहले हर मुसलमान का फ़र्ज़ है कि वो दान या भिक्षा दे. इस दान को ज़कात उल-फ़ितर कहते हैं। उपवास की समाप्ति की खुशी के अलावा इस ईद में मुसलमान अल्लाह का शुक्रिया अदा इसलिए भी करते हैं कि उन्होंने महीने भर के उपवास रखने की शक्ति दी। ईद के दौरान बढ़िया खाने के अतिरिक्त नए कपड़े भी पहने जाते हैं और परिवार और दोस्तों के बीच तोहफ़ों का आदान-प्रदान होता है। सिवैया इस त्योहार की सबसे जरूरी खाद्य पदार्थ है जिसे सभी बड़े चाव से खाते हैं।
ईद के दिन मस्जिदों में सुबह की प्रार्थना से पहले हर मुसलमान का फ़र्ज़ है कि वो दान या भिक्षा दे. इस दान को ज़कात उल-फ़ितर कहते हैं।
इस  ईद में मुसलमान ३० दिनों के बाद पहली बार दिन में खाना खाते हैं। उपवास की समाप्ती की खुशी के अलावा, इस ईद में मुसलमान अल्लाह का शुक्रियादा इसलिए भी करते हैं कि उन्होंने महीने भर के उपवास रखने की शक्ति दी। ईद के दौरान बढ़िया खाने के अतिरिक्त, नए कपड़े भी पहने जाते हैं और परिवार और दोस्तों के बीच तोहफ़ों का आदान-प्रदान होता है। और सांप्रदाय यह है कि ईद उल-फ़ित्र के दौरान ही झगड़ों -- ख़ासकर घरेलू झगड़ों -- को निबटाया जाता है।
ईद के दिन मस्जिद में सुबह की प्रार्थना से पहले, हर मुसलमान का फ़र्ज़ है कि वो दान या भिक्षा दे। इस दान को ज़कात उल-फ़ित्र कहते हैं। यह दान दो किलोग्राम कोई भी प्रतिदिन खाने की चीज़ का हो सकता है, मिसाल के तौर पे, आटा, या फिर उन दो किलोग्रामों का मूल्य भी। प्रार्थना से पहले यह ज़कात ग़रीबों में बाँटा जाता है। ठीक इसी तरह श्रावण मास हैं जो रमज़ान की भाँति ही रहमत और क़ुर्बत का माह है,श्रावण मास को मासोत्तम मास कहा जाता है. यह माह अपने हर एक दिन में एक नया सवेरा दिखाता इसके साथ जुडे़ समस्त दिन धार्मिक रंग और आस्था में डूबे होते हैं. शास्त्रों में सावन के महात्म्य पर विस्तार पूर्वक उल्लेख मिलता है. श्रावण मास अपना एक विशिष्ट महत्व रखता है. श्रवण नक्षत्र तथा सोमवार से भगवान शिव शंकर का गहरा संबंध है. इस मास का प्रत्येक दिन पूर्णता लिए हुए होता है. धर्म और आस्था का अटूट गठजोड़ हमें इस माह में दिखाई देता है इस माह की प्रत्येक तिथि किसी न किसी धार्मिक महत्व के साथ जुडी़ हुई होती है. इसका हर दिन व्रत और पूजा पाठ के लिए महत्वपूर्ण रहता है. हिंदु पंचांग के अनुसार सभी मासों को किसी न किसी देवता के साथ संबंधित देखा जा सकता है उसी प्रकार  श्रावण मास को भगवान शिव जी के साथ देखा जाता है इस समय शिव आराधना का विशेष महत्व होता है. यह माह आशाओं की पुर्ति का समय होता है जिस प्रकार प्रकृति ग्रीष्म के थपेडों को सहती उई सावन की बौछारों से अपनी प्यास बुझाती हुई असीम तृप्ति एवं आनंद को पाती है उसी प्रकार प्राणियों की इच्छाओं को सूनेपन को दूर करने हेतु यह माह भक्ति और पूर्ति का अनुठा संगम दिखाता है ओर सभी की अतृप्त इच्छाओं को पूर्ण करने की कोशिश करता है ।  
भगवान शिव इसी माह में अपनी अनेक लीलाएं रचते हैं. इस महीनें में गायत्री मंत्र, महामृत्युंजय मंत्र, पंचाक्षर मंत्र इत्यादि शिव मंत्रों का जाप शुभ फलों में वृद्धि करने वाला होता है. पूर्णिमा तिथि का श्रवण नक्षत्र के साथ योग होने पर श्रावण माह का स्वरुप प्रकाशित होता है. श्रावण माह के समय भक्त शिवालय में स्थापित, प्राण-प्रतिष्ठित शिवलिंग या धातु से निर्मित लिंग का गंगाजल व दुग्ध से रुद्राभिषेक कराते हैं. शिवलिंग का रुद्राभिषेक भगवान शिव को अत्यंत प्रिय है. इन दिनों शिवलिंग पर गंगा जल द्वारा अभिषेक करने से भगवान शिव अतिप्रसन्न होते हैं. शिवलिंग का अभिषेक महाफलदायी माना गया है. इन दिनों अनेक प्रकार से  शिवलिंग का अभिषेक किया जाता है जो भिन्न भिन्न फलों को प्रदान करने वाला होता है. जैसे कि जल से वर्षा और शितलता कि प्राप्ति होती है. दूग्धा अभिषेक एवं घृत से अभिषेक करने पर योग्य संतान कि प्राप्ति होती है. ईख के रस से धन संपदा की प्राप्ति होती है. कुशोदक से समस्त व्याधि शांत होती है. दधि से पशु धन की प्राप्ति होती है ओर शहद से शिवलिंग पर अभिषेक करने से लक्ष्मी की प्राप्ति होती है।    इस श्रावण मास में शिव भक्त ज्योतिर्लिंगों का दर्शन एवं जलाभिषेक करने से अश्वमेघ यज्ञ के समान फल प्राप्त करता है तथा शिवलोक को पाता है.  शिव का श्रावण में जलाभिषेक के संदर्भ में एक कथा बहुत प्रचलित है जिसके अनुसार जब देवों ओर राक्षसों ने मिलकर अमृत प्राप्ति के लिए सागर मंथन किया तो उस मंथन समय समुद्र में से अनेक पदार्थ उत्पन्न हुए और अमृत कलश से पूर्व कालकूट विष भी निकला उसकी भयंकर ज्वाला से समस्त ब्रह्माण्ड जलने लगा इस संकट से व्यथित समस्त जन भगवान शिव के पास पहुंचे और उनके समक्ष प्राथना करने लगे, तब सभी की प्रार्थना पर भगवान शिव ने सृष्टि को बचाने हेतु उस विष को अपने कंठ में उतार लिया और उसे वहीं अपने कंठ में अवरूद्ध कर लिया.

जिससे उनका कंठ नीला हो गया समुद्र मंथन से निकले उस हलाहल के पान से भगवान शिव भी तपन को सहा अत:  मान्यता है कि वह समय श्रावण मास का समय था और उस तपन को शांत करने हेतु देवताओं ने गंगाजल से भगवान शिव का पूजन व जलाभिषेक आरंभ किया, तभी से यह प्रथा आज भी चली आ रही है प्रभु का जलाभिषेक करके समस्त भक्त उनकी कृपा को पाते हैं और उन्हीं के रस में विभोर होकर जीवन के अमृत को अपने भीतर प्रवाहित करने का प्रयास करते हैं।

इस तरह देखा जाय तो दोनों माह का जोड़ तो है पर कोई तोड़ नही इस लिए हम सब को जीवन में एकता,समानता,सत्यता एक राह पर चलते हुए जीवन को नदी की तरह बहता हुआ छोड़ देना चाहिए कहा गया है मनुर्भवः हमे मनुष्य बनना चाहिए और ये भी कहा गया-अद्वेष्टासर्वभूतानं अर्थात हमे कभी भी किसी भी व्यक्ति की बुराई नही करना चाहिए।
इसी शुभ प्रार्थना के साथ आप सभी इबादत का त्यौहार रमज़ान की मुबारक और मानवीय इब्तिदा का माह श्रावण की तैयारी हेतु शुभेच्छा!!!

जय हिन्द!...........
तू रखे रोज़ रोज़ा मेरी तरह
मैं करू उपवास तेरी तरह
चल आ रश्को के रंग को धूल बनाये
तुझको मुझमे मुझमे तुझको एक बनाये
रंग हरा हिन्दू,केशरिया मुसलमान बनाये
तू कर इबादत चाँद की
मैं करू तेरे आफताब की
हमे मिल जाये क़ुर्बत 
हम एक हो जाये
आरती मस्ज़िद में,मन्दिर में आज़ान हो जाए
तेरा तिलक मेरे सदको की पहचान हो जाए।।
____________________________________________________________________________

       शैलेश त्रिपाठी
S-15/112 ग्राम-भरलाई,पोस्ट-शिवपुर
जिला-वाराणसी
पिन कोड-221003
उत्तर प्रदेश
मो.-09889936681
      08853342329

रविवार, 30 अप्रैल 2017

लेख - श्रम, संत, समाज और प्रांत

मैं मज़दूर हूँ 
श्रम, संत, समाज और प्रांत
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वर्तमान जगत की समस्त प्रगति और विकास श्रम से प्रादुर्भूत तथा स्थापित है। प्रत्येक समाज की संरचना में श्रम-संस्कृति का योगदान अपनी प्रमुखता से विराजित हैं। इसी श्रम संस्कृति के कारण ही समाज की संरचना, प्रगति संभव हो सकी है। यह श्रम की महत्ता ही है जिसने आज विश्व निर्माण में अपनी महती भूमिका का निर्वाह करते हुए हर एक व्यक्ति को जीवन  जीने की सुख सुविधाएं प्रदान की हैं। जब से जगत में मनुष्य की उत्पत्ति हुई है, तब से मनुष्य श्रम के माध्यम से ही प्रत्येक चीज का निर्माण करता रहा है, इसलिए आज समाज में श्रम की सबसे अधिक महत्ता है। अंतर्राष्ट्रीय मज़दूर दिवस को मनाने की शुरूआत 1 मई 1886 से मानी जाती है जब अमरीका की मज़दूर यूनियनों ने काम का समय 8 घंटे से ज़्यादा न रखे जाने के लिए हड़ताल की थी। इसी प्रचलन में लगातार अंतर्राष्ट्रीय मज़दूर दिवस विश्व में मनाया जा रहा है। हर वर्ष  अंतर्राष्ट्रीय मज़दूर दिवस की थीम अलग-अलग रहती है। 1 मई को मजदूर दिवस पर श्रम से मजदूरों का अवकाश रहता है, परंतु भारत जैसे देश में मजदूरों के बीच शिक्षा के अभाव और सही जागरूकता, नेतृत्व के अभाव के कारण मजदूर इस दिन भी मजदूरी करते हैं और उन्हे पता ही नहीं होता कि अंतर्राष्ट्रीय मज़दूर दिवस क्या है? इसका मजदूर से क्या संबंध है? मजदूरों की दयनीय और शोचनीय अवस्था भारत में खुले रूप में देखी जा सकती है, सस्ते दामों पर मजदूर की उपलब्धता के साथ असंगठित मजदूर वर्ग शोषण का शिकार निरंतर हो रहा है। बाल श्रम की बढ़ती अवस्था भी भारत में निरंतर देखने को मिलती है। जबकि 14 वर्ष से कम आयु के बच्चे को मजदूर के रूप में कोई अपने यहाँ नहीं रखा सकता है, लेकिन लचर कानून व्यवस्था, असंतुलित सामाजिक व्यवस्था और गरीबी के कारण बाल मजदूरों की संख्या में इजाफा ही हुआ है कोई भी रोक न लग पाई है। लोगो का भारत में मजदूरों के प्रति भेदभाव भी देखा जाता है पुरुष मजदूर को अधिक रुपयों की मजदूरी प्राप्त होती है जबकि स्त्री मजदूरों को कम रुपयों की मजदूरी प्राप्त होती है यह समानता और भेद लिंग भेद पर ही आधारित नजर आता है। 

  
जगद्गुरू श्री रामानुजाचार्य
समाज में श्रम की संस्कृति के साथ हमें संतों के सामाजिक आंदोलनों को भी निरंतर याद रखना चाहिए। ऐसे ही सामाजिक, धार्मिक आंदोलनकर्ताविशिष्टद्वैतवाद दर्शन के प्रवर्तक तथा संत रामानुजाचार्य थे, जिनका जन्म १०१७ ईसवी सन् में दक्षिण भारत के तमिलनाडु प्रान्त में हुआ था। बचपन में उन्होंने कांची जाकर अपने गुरू यादव प्रकाश से वेदों की शिक्षा ली। रामानुजाचार्य आलवार सन्त यमुनाचार्य के प्रधान शिष्य थे। रामानुजाचार्य जी ने विधिवत दीक्षा के पश्चात धर्म के क्षेत्र में समान तत्व की स्थापना के लिए समाज में नई चेतना जगाई और उन्होंने समाज के दलित शोषित पीड़ित लोगों के लिए समान भक्ति भाव की स्थापना के लिए आवाज उठाई। मैसूर के श्रीरंगम् से चलकर रामानुज शालिग्राम नामक स्थान पर रहने लगे। रामानुज ने उस क्षेत्र में बारह वर्ष तक वैष्णव धर्म का प्रचार किया। उसके बाद तो उन्होंने वैष्णव धर्म के प्रचार के लिये पूरे भारतवर्ष का ही भ्रमण किया। ११३७ ईसवी सन् में १२० वर्ष की आयु पाकर वे शरीर त्याग गए। उन्होंने कई ग्रन्थों की रचना की किन्तु ब्रह्मसूत्र के भाष्य पर लिखे उनके दो मूल ग्रन्थ सर्वाधिक लोकप्रिय हुए - श्रीभाष्यम् एवं वेदान्त संग्रहम्। यूं तो संतो का अध्यात्मिक महत्व धार्मिक, दार्शनिक, सांप्रदायिक महत्त्व माना जाता है, परंतु इससे भी कहीं अधिक इन संतों का सामाजिक दायित्व और समाज को नई दिशा देने का प्रयास हमें याद रखना चाहिए। रामानुजाचार्य अपने समय के ऐसे ही संत आचार्य हुए हैं; जिन्होंने समाज में दलित शोषित लोगों को भक्ति के अधिकार प्रदान किए और पश्चात में उनके शिष्य रामानंद ने तो सभी के लिए भक्ति के द्वार खोल दिए थे। इस महत्वपूर्ण संत को आज 1000 वर्ष हो चुके हैं और 1000 वर्ष में रामानुजाचार्य के धार्मिक, दार्शनिक, सांप्रदायिक मतों से कहीं अधिक उनके सामाजिक मूल्य के महातम्य पर विचार करना आज बेहद जरूरी हो जाता है। आज 1 मई से रामानुजाचार्य का जन्म-शताब्दी वर्ष मनाया जा रहा है, उनकी स्मृति को पुनः ताज़ा करने के लिए डाक टिकिट का 1 मई 2017 को लोकार्पण हुआ है। 
महाराष्ट्र 

महाराष्ट्र स्थापना दिवस  भी 1 मई को मनाया जाता है। देश की आज़ादी के बाद मध्य भारत के सभी मराठी भाषा के स्थानों का समीकरण करके एक राज्य बनाने को लेकर बड़ा आंदोलन चला और 1 मई, 1960 को कोंकण, मराठवाडा, पश्चिमी महाराष्ट्र, दक्षिण महाराष्ट्र, उत्तर महाराष्ट्र (खानदेश) तथा विदर्भ, सभी संभागों को जोड़ कर महाराष्ट्र राज्य की स्थापना की गई। महाराष्ट्र राज्य का गठन देश के राज्‍यों के भाषायी पुनर्गठन के फलस्‍वरूप 1 मई, 1960 को महाराष्ट्र राज्‍य का प्रशासनिक प्रादुर्भाव हुआ। यह राज्‍य आस-पास के मराठी भाषी क्षेत्रों को मिलाकर बनाया गया था, जो पहले चार अलग अलग प्रशासनों के नियंत्रण में था। इनमें मूल ब्रिटिश मुंबई प्रांत में शामिल दमन तथा गोवा के बीच का ज़िला, हैदराबाद के निज़ाम की रियासत के पांच ज़िले, मध्‍य प्रांत (मध्य प्रदेश) के दक्षिण के आठ ज़िले तथा आस-पास की ऐसी अनेक छोटी-छोटी रियासतें शामिल थी, जो समीपवर्ती ज़िलों में मिल गई थी। शुरू में महाराष्ट्र में २६ जिले थे। उसके बाद १० नये जिले बनाएँ गये है। वर्तमान के महाराष्ट्र में ३६ जिले है। इन जिलों को छह प्रशासनिक विभागों में विभाजित किया गया है। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार जनसंख्या की दृष्टि से देश का दूसरा सबसे बड़ा राज्य है, 2011 के अनुसार जनसंखाया 112,374,333 है। महामहिम राज्यपाल कातीकल शंकरनारायणनन तथा मुख्यमंत्री श्री देवेंद्र फड़नवीस हैं। महाराष्ट्र पश्चिम में अरब सागर से, उत्तर-पश्चिम में गुजरात से, उत्तर में मध्य प्रदेश से, दक्षिण में कर्नाटक से और पूर्व में छत्तीसगढ़ और तेलंगाना से घिरा है। महाराष्ट्र का कुल क्षेत्रफल 3,07,713 वर्ग किमी. है। लगभग 80% साक्षारता की दर यहाँ पर है। लगभग 1000 पुरुषों पर 925 महिलाए हैं।  अपनी स्थापना से वर्तमान तक की प्रगतिपूर्ण यात्रा में महाराष्ट्र भारत में सबसे अधिक प्रगतिशील और विकासशील प्रांत माना जा रहा है। जहां महाराष्ट्र में अपनी लोक संस्कृति की अनूठी पहचान और विशिष्ट भाषा है, वहीं यह आर्थिक स्तर पर अत्यंत समृद्ध नजर आता है। भारत की आर्थिक स्थिति को को देखते हुए मुंबई को भारत की आर्थिक राजधानी का दर्जा प्राप्त हुआ है। समुद्री तट होने के कारण यहां से सामुद्रिक व्यापार की अच्छी खासी प्रगति की जा चुकी है और व्यापार में अंतरराष्ट्रीय मार्का बन चुका है। आज महाराष्ट्र ऊर्जा, उत्खनन, रेलवे, परमाणु अनुसंधान, उच्च शिक्षा, खेलकूद, मनोरंजन, स्वास्थ्य सेवाओं, विमान सेवाओं, सैन्य बल, सूचना प्रौद्योगिकी, आर्थिक क्षेत्र, पर्यटन, संचार साधनों, रोजगार क्षेत्र में देश का प्रतिनिधि राज्य माना जाता है।
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संपादक- सर्वहारा 
©डॉ. मोहसिन ख़ान
जय हिन्द!!!

गुरुवार, 23 फ़रवरी 2017

कहानी

 कांड (कहानी)
                              
                                               
 सुशांत सुप्रिय

मैं अपने भाई से मिलने कुरुक्षेत्र गया। वहीं यह कांड हो गया। वैसे यह कोई बहुत बड़ा कांड नहीं था। किसी राजनेता पर क़ातिलाना हमला नहीं हुआ था। किसी मंत्री या सांसद के अंगरक्षक नहीं मारे गए थे । कहीं कोई आतंकवादी वारदात नहीं हुई थी। न कहीं प्रकृति का क़हर ही बरपा था। घटना बहुत छोटी-सी थी। देश के इतिहास में इसका महत्त्व नगण्य ही माना जाएगा। आप कहेंगे कि ऐसी घटनाएँ तो आए दिन देश के गली-कूचों , शहरों-महानगरों में होती रहती हैं। ऐसे कांड राष्ट्रीय चिंता या शोक का विषय नहीं बनते। ऐसे कांडों के लिए देश का झंडा नहीं झुकाया जाता। ऐसे कांडों के लिए रेडियो या टी. वी. पर कोई मातमी धुन नहीं बजाई जाती। ऐसे कांडों का उल्लेख न इतिहास , न समाजशास्त्र की किसी किताब में होता है। यहाँ तक कि नीति-शास्त्र की किताबें भी ऐसे कांडों के संबंध में ख़ामोश ही रहती हैं। ये बेहद मामूली-सी, लगभग भुला दी जाने वाली घटनाएँ होती हैं क्योंकि ये आम आदमी के साथ घटी होती हैं।
            मैं भाई से मिलने कुरुक्षेत्र पहुँचा। जब स्टेशन पर रेलगाड़ी से उतरा तो रात के आठ बज रहे थे। भाई कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में व्याख्याता है। जब साढ़े आठ बजे वि. वि. परिसर में उसके आवास पर पहुँचा तो मुख्य दरवाज़े पर एक बड़ा-सा ताला मेरी प्रतीक्षा कर रहा था। पड़ोस में पूछा तो पता चला कि भाई किसी सेमिनार में भाग लेने के लिए आइ. आइ. टी. , रुड़की गया हुआ है। मैं मुश्किल में पड़ गया।
           बाद में कई लोगों ने मुझसे कहा , " यार , यदि चलने से पहले भाई को फ़ोन कर लेते तो पता चल जाता कि वह ' आउट ऑफ़ स्टेशन' है। न तुम यहाँ आते , न यह हादसा होता "
           रात के नौ बज रहे थे। वि. वि. परिसर के बाहर एक ढाबे पर मैं खाना खाने के लिए रुका । खाना खा कर मैंने चाय पी। साढ़े नौ बज गए।
           कुरुक्षेत्र छोटा-सा शहर है । यह दिल्ली नहीं है। यहाँ नौ बजते-बजते अँधेरा गाढ़ा हो जाता है। अँधेरे की अपनी प्रकृति होती है। अँधेरे में पहचाने हुए चेहरे भी अजनबी लगते हैं। दस बजते-बजते सड़क पर एक भुतहा वीरानी छा गई।
           बाद में कई लोगों ने मुझसे कहा - "अरे , भाई। वहाँ पड़ोस में ही किसी के घर रात भर के लिए रुक जाते । इस ज़माने में अजनबी शहर में रात में घूमोगे तो यही होगा।"
           काफ़ी देर इंतज़ार करने के बाद लगभग साढ़े दस बजे सड़क पर एक ऑटो-रिक्शा नज़र आया। उसमें अठारह-बीस साल के दो लड़के बैठे थे। एक ड्राइवर । दूसरा शायद उसका जानकार या मित्र। हर किसी की शक़्ल पर तो लिखा नहीं होता कि वह गुंडा-बदमाश है।
           मैंने पूछा - "स्टेशन चलोगे ?"
           वे बोले - "बैठिए, साहब।"
           आधे घंटे का रास्ता था। मैं दिन में एक-दो बार पहले भी कुरुक्षेत्र आ चुका
हूँ।  पर रात की बात और होती है। रात में अपना शहर भी पराया लगने लगता है।
           जब वे दोनों लड़के ऑटो को अनजानी गलियों में घुमाने लगे तो मुझे शक हुआ । पर जब तक मैं कुछ कर पाता , यह कांड हो गया।
           बाद में कई लोगों ने मुझसे कहा - "अरे, भाई साहब। ये दोनों लड़के आपको कहाँ-कहाँ घुमाते रहे और आपको पता ही नहीं चला। जहाँ यह कांड हुआ , वह जगह तो स्टेशन से काफ़ी दूर है। आप वहाँ कैसे पहुँच गए ?"
          दरअसल आप अपनी रोज़मर्रा की दुनिया में गुम रहते हैं। यदि आप कभी अख़बार में ऐसी घटनाओं के बारे में पढ़ते हैं या टी. वी. पर ऐसी घटनाओं की रिपोर्ट देखते हैं तो निश्चिंतता के भाव से कि ये घटनाएँ दूर कहीं किसी और के साथ घटी हैं। आप इन घटनाओं को महज़ आँकड़ों की तरह लेते हैं। आप इस ग़लतफ़हमी में रहते हैं कि ऐसी घटनाएँ आप के साथ नहीं घट सकतीं। पर एक दिन अचानक जब ऐसा ही हादसा आपके साथ भी हो जाता है तो आप इसके लिए तैयार नहीं होते। आप हतप्रभ रह जाते हैं।
         एक सूनी गली में ऑटो मोड़कर उन लड़कों ने अचानक ऑटो रोका और झटके से कूदे। न जाने कहाँ से उन्होंने एक सरिया निकाल लिया। बाद में पुलिस सब-इंस्पेक्टर ज़ोरावर सिंह जब शिनाख्त के लिए वह सरिया लेकर घर आया तो मैंने
देखा , वह पूरा लोहा था, जंग लगा , ठोस और सख़्त।
         मैं भी ऑटो की पिछली सीट से बाहर कूदा । वे दो थे। मैं एक। मैं भागा। वे मेरे पीछे भागे। चिल्लाते हुए - "रुपए-पैसे नहीं  देगा तो छोड़ेंगे नहीं।"
         बाद में कई लोगों ने मुझे कहा - "भले आदमी, आराम से रुपए-पैसे दे देते तो यह हाल तो नहीं होता।"
         वे दोनो अठारह-बीस साल के थे। मैं अड़तीस का। लगभग बीस-पच्चीस मीटर बाद उन्होंने मुझे पकड़ लिया । हम गुत्थम-गुत्था हुए। हाथा-पाई में मेरी बनियान और क़मीज़ फट गई।
         अंत में एक लड़के ने मुझे पीछे से दबोच लिया। और दूसरे ने मेरे मुँह पर सरिए से वार किया। बचाव में मैंने अपना बायाँ हाथ आगे किया। सरिए का पूरा वार कोहनी और कलाई के बीच पड़ा । हड्डी के चटखने की आवाज़ साफ़ सुनाई दी। मैं लड़खड़ा गया। और तब मेरे सिर के बीचों-बीच सरिए का एक भरपूर वार पड़ा। आँखों में किसी सुरंग का भयावह अँधेरा भरता चला गया। पीड़ा के असंख्य चमगादड़ ज़हन में एक साथ पंख फड़फड़ाने लगे। फिर शायद एक के बाद एक कई वार हुए। और मैं घुप्प अँधेरे के महा-समुद्र में किसी थके हुए तैराक-सा डूबता चला गया ...
          जब होश आया तो मैं ज़मीन पर लहुलुहान पड़ा हुआ था। सिर पर गहरे घाव थे । बायाँ हाथ सूज कर बेकार हो चुका था। इसी हालत में किसी तरह लड़खड़ाता हुआ मैं उठा और गिरते-पड़ते हुए मैंने चार-पाँच सौ मीटर की दूरी तय की। मैंने पहले मकान का दरवाज़ा खटखटाया । पर कोई बाहर नहीं आया। मैंने न मालूम कितने दरवाज़े खटखटाए । दो-चार लोगों ने दरवाज़े खोले भी पर मुझे इस हाल में देखकर
'पुलिस केस ' के डर से अपने-अपने दरवाज़े फिर बंद कर लिए।
          यह वही काली रात थी जब दिल्ली में ' निर्भया कांड ' की शर्मनाक घटना घटी थी और देश और समाज कलंकित हुआ था।
          गली के अंत में आख़िर एक मकान का दरवाज़ा मेरे खटखटाने पर खुला। किसी को मेरी हालत पर तरस आया। उसने मुझे भीतर बुलाया। पानी पिलाया । फिर पुलिस बुलाई।
          पुलिस वालों ने मुझे सरकारी अस्पताल के एमरजेंसी वार्ड में दाख़िल करा दिया । सिर पर दो जगह आठ-दस टाँके लगे। बायाँ हाथ टूट गया। प्लास्टर लगा।
एफ़. आइ. आर . हुई । मेरा बयान दर्ज़ हुआ । दोनों लड़के मेरे छह-सात हज़ार रुपये ,
मेरा मोबाइल फ़ोन, मेरी कलाई-घड़ी, यहाँ तक कि मेरे जूते भी छीन कर ले गए थे।
           अगली सुबह मैंने घर फ़ोन किया । शाम तक घर से लोग आ गए।
           अस्पताल में जितने लोग मिलने आए , सब ने कुछ-न-कुछ सलाह दी । किसी ने कहा -- " होनी को कौन टाल सकता है। चलो , भगवान का शुक्र है, जान बच
गई। पर आगे से थोड़ा सावधान रहिए।"
            किसी ने कहा - "यदि आपने ऐसा किया होता ..."
            किसी और ने कहा - "यदि वैसा हुआ होता ..."
            -- यदि मैंने चलने से पहले भाई को फ़ोन कर लिया होता ...
            -- यदि हमारे देश में ग़रीबी और बेकारी नहीं होती ...
            -- यदि मैंने उन आटो वाले लड़कों को हाथ दिखा कर नहीं रोका होता ...
            -- यदि हमारे देश के लाखों बच्चों का बचपन और लाखों युवाओं की
            जवानी दो वक़्त की रोटी जुटाने के संघर्ष में नहीं बीतती ...
            -- यदि मैंने बिना संघर्ष किए उन्हें सब कुछ चुपचाप दे दिया होता ...
            -- यदि हमारी हिंदी फ़िल्मों में सेक्स और हिंसा का घातक कॉकटेल नहीं
            होता ...
            लोगों ने त्वरित पुलिस कार्रवाई की भूरि-भूरि प्रशंसा की। एक लड़का धरा गया था। कुछ रुपया-पैसा बरामद हो चुका था। उम्मीद थी कि पहले लड़के से पूछताछ के आधार पर उसका दूसरा साथी भी जल्दी ही पकड़ लिया जाएगा ।
            " घबराने की कोई बात नहीं। हम दूसरे को भी जल्दी ही धर दबोचेंगे" --सब-इंस्पेक्टर ज़ोरावर सिंह ने मूँछों पर ताव देते हुए मुझे कहा।
            "अब आप हमारे गवाह हैं। अदालत में गवाही देने के लिए तैयार रहना। लूट-पाट और जानलेवा हमला का मामला बनता है। हम इस कांड के लिए इन बदमाशों को सजा दिला कर छोड़ेंगे" ज़ोरावर सिंह ने बहुत सारे काग़ज़ों पर मुझ से दस्तख़त कराते हुए मुझे कहा ।
            पर मैं इस सब से बहुत उत्साहित नहीं हूँ। न जाने क्यों मुझे लगता है कि वे दोनों लड़के नहीं होते तो कोई और होते। कुरुक्षेत्र नहीं होता तो कोई और जगह होती। मैं नहीं होता तो शायद आप होते। केवल उन दोनों को सजा हो जाने से क्या फ़र्क़ पड़ेगा। जब तक समाज में वे कारण मौजूद रहेंगे जो अठारह-बीस साल के लड़कों को अपराधी बना देते हैं, अपराधी बनते रहेंगे , ऐसे कांड होते रहेंगे। क्या आप ऐसा नहीं सोचते?

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लेखक- सुशांत सुप्रिय
            A-5001 ,
            गौड़ ग्रीन सिटी, वैभव खंड, इंदिरापुरम ,
            ग़ाज़ियाबाद - 201014 ( उ. प्र . )
मो : 8512070086
ई-मेल : sushant1968@gmail.com

शनिवार, 7 जनवरी 2017

व्यंग्य

मोबाइल की महिमा न्यारी

कुछ समय पहले दूरदर्शन पर एक लेखनी (कलम) का विज्ञापन आता था, जिसमें उसकी पारदर्शिता के कारण कहा जाता था कि सब कुछ दिखता है, वर्तमान समय में उस लेखनी का क्या हुआ, यह तो पता नहीं, परन्तु एक यन्त्र अवश्य मिल गया है जिसमें सब कुछ दिखता है। कर लो दुनिया मुट्ठी मेंयह वाक्य आप सबको अवश्य याद होगा। अब दुनिया के 80 प्रतिशत से अधिक लोगों के हाथ में वह यन्त्र शोभायमान है। उसका नाम है मोबाइल। सिर पर हेलमेट लगाने को हम अनिवार्य नहीं मानते, परन्तु मोबाइल पर कव्हर चढ़ाना, सुरक्षा गार्ड लगाना, कानों में श्रवण यन्त्र लगाना और झूमना बिल्कुल नहीं भूलते। लोग समझते हैं कि मोबाइल को हमने मुट्ठी में बन्द कर रखा है, जबकि वास्तविकता यह है कि मोबाइल ने हमको पूरी तरह ढँक रखा है। वह आपके वश में नहीं, बल्कि आप उसके वश में हैं। जैसे भगवान भक्त के वश में होते हैं, वैसे ही आप मोबाइल के वश में होते हैं।
घण्टी बजते ही आप चलायमान हो जाते हैं। चाहे आप नहा रहे हों, खा रहे हों, गा रहे हों, नाच रहे हों, कहीं जा रहे हों, या कहीं से आ रहे हों, पढ़ रहे हो, पढ़ रहे हों, पढ़ा रहे हों, पूजा कर रहे हों, रो रहे हों या सो रहे हों। तात्पर्य यह कि यदि आप प्राणवान हैं तो घण्टी का अनुसरण तुरन्त करते हैं, इतनी स्पूर्ति आपको अन्य किसी भी कर्म में आती हो तो बताएँ। प्रेमी-प्रेमिका को डेढ़ बजे समय देकर पौने दो बजे पहुँचते हैं। परिजनों की दवाई दो दिन बात आती है। बिजली का बिल बिना विलम्ब शुल्क के भरते ही नहीं। पानी के बिल को तो भूल ही जाते हैं। मोबाइल कम्पनियों ने जब देखा कि उनका प्रयास निरन्तर फलीभूत हो रहा है तो वे एण्ड्रायड मोबाइल ले आए और उसमें तमाम एप डालकर हममें ऐब पैदा करना शुरू कर दिए। धीरे-धीरे मोबाइल स्तर का पैमाना बन गया। ढाई इंच का मोबाइल अब छह और आठ इंच तक पहुँच गया। वाट्सएप ने ऐसा प्रभाव जमाया कि पास बैठे दो लोग आपस में वार्ता न करके मोबाइल से चैट करते हैं। घर में बैठा पति चाय बनाने के लिए पत्नी को मैसेज करता है। जो घर कभी चहल-पहल का केन्द्र होते थे, मोबाइल ने उनमें मरघट-सी शान्ति ला दी है।
मोबाइल के कारण लेखनी से लिखना लगभग बन्द-सा हो गया है। चिट्ठी पत्री-तार आदि सन्देशवाहकों को मोबाइल ने लील लिया है। अब लोग विवाह में केवल एक कार्ड छपवाते हैं उसे मोबाइल में डाल लेते हैं। उसके प्रतिष्ठार्थ वाले स्थान पर नाम बदल-बदल कर अपने परिजनों को वाट्सएप से भेज देते हैं। इस प्रकार कार्ड छपाई के हजारों रुपये बचा लेते हैं। बीमारी की स्थिति में लोग एक-दूसरे के पास जाकर बैठने और संवेदना प्रकट करने को पुराणपन्थी बातें मानते हैं। चैट करके एक-दूसरे का हाल-चाल जान लेते हैं। किसी की मृत्यु होने पर उसके घर तक नहीं जाते बल्कि मोबाइल से संवेदना सन्देश भेज  देते हैं। किसी की खुशी में शरीक होने के बजाय मोबाइल से शुभकामना, बधाई आदि प्रेषित करना कितना सरल हो गया है।
पहले लोग यात्रा के समय सहयात्री से चर्चा करके अपने सुख-दु:ख बाँटते थे। अब यात्रा कितनी भी लम्बी क्यों न हो। ट्रेन में, बस में, हवाई जहाज में जिसे देखो वही मोबाइल के वशीभूत होकर अपनी मस्ती में मस्त है। आसपास की गतिविधियों की सूचना के लिए कहीं घूमने की आवश्यकता नहीं है। मोबाइल खोलिए, पूरी दुनिया की सूचना उसमें समाहित है। सम्भोग से समाधि तक, गुलामी से आजादी तक, निर्माण से बर्बादी तक की जानकारी आपकी मुट्ठी में है।  मोबाइल में फिल्म देखिए, क्रिकेट, हॉकी, शतरंज आदि मैच  देखिए, कबड्डी और कॉमेडी देखिए। खाना बनाना, नाचना और गाना देखिए, अध्ययन कीजिए, अध्यापन कीजिये अर्थात् आवश्यक/अनावश्यक जो भी आप चाहें, वह सब मोबाइल पर उपलब्ध है। यात्रा हेतु रिजर्वेशन कीजिए, पैसे जमा कीजिए, पैसे निकाल लीजिए, पैसे स्थानान्तरित कर दीजिए। घर बैठे किसी भी परिजन से उसके चित्र सहित चर्चा कीजिए। विवाह आदि सम्बन्ध तय कीजिए, बिना घोड़ी और बाजे के विवाह कर लीजिए और न जमे तो तलाक भी दे दीजिए। मोबाइल से आदि कुछ भी खरीद सकते हैं। कुछ भी बेच सकते हैं, कुछ भी सुन सकते हैं, सुना सकते हैं, किसी से भी मिल सकते हैं, मिला सकते हैं। प्रेम, घृणा, सौहाद्र्र, सद््भाव, सेवा, परोपकार आदि सभी का सम्पादन कर सकते हैं। जोड़ सकते हैं, घटा सकते हैं, भाग दे सकते हैं और गुणा भी कर सकते हैं।
यह बात अलग है कि मोबाइल से इतनी सारी सेवाएँ लेने के बदले उसे कुछ देना भी पड़ता है। मसलन मोबाइल को रिचार्ज करना पड़ता है। बैटरी चार्ज करनी होती है। बहुत-सा समय देना होता है। परिजनों से दूर रहना होता है। गाना सुनते हुए वाहन चलाना कभी-कभी असमय अपाहिज भी कर सकता है अथवा जान भी देनी पड़ सकती है। बहरे होने की सम्भावना रहती है। बहुत देर तक उसमें ताका-झाँकी करने से आँखों की रोशनी भी जा सकती है। मोबाइल थामने वाले हाथों में सुन्नपन अथवा लकवा भी हो सकता है। एक ही आसन पर बहुत देर तक बैठकर मोबाइल में खोये रहने से कब्ज, एसिडिटी और मोटापा भी हो सकता है। स्वाभाविक चिड़चिड़ापन भी आता है। क्रोध की मात्रा में प्रगति होती है। ये सारे ऐब मोबाइल के योगदान वाले ऐप के सामने नगण्य हैं। दूध देने वाली गाय के दो लात खाने में ही ग्वाला अपनी भलाई समझता है। मोबाइल ने याददाश्त को कम कर दिया है। दिमाग जैसी नायाब चीज पर जोर लगाने की जरूरत नहीं है। कई लोग तो खुद का नम्बर भी मोबाइल में देखकर ही बता पाते हैं। परिजनों की पहचान, मोबाइल में सेव किए गए चित्रों से होती है। वैवाहिक वर्षगाँठ अथवा जन्मदिन सब अपने-अपने मोबाइल पर पहले से ही लोड फिल्म देखकर मना लेते हैं। इस प्रकार व्यवस्थाओं पर होने वाले खर्च को बचाते हैं और वह पैसा खुद के इलाज पर लगाते हैं। आप सुखी-संसार सुखी कहावत को मोबाइल कम्पनियाँ चरितार्थ कर रही हैं। दस गुने भाव में मोबाइल बेच रही हैं। सब कुछ दिखा रही हैं। फोन, सन्देश, बैंकिंग, नेटवर्किंग,चैटिंग आदि से अपार धन कमा रही है। चूँकि हमें विकासशील से विकसित की सूची में जाना है अत: विकसित लोगों की चाल में चाल मिलाना है। भले ही परिवार, समाज और यहाँ तक कि अपनों से ही दूर क्यों न होना पड़े, परन्तु जब हमने ठान लिया है, तो विकसित लोगों की सूची में नाम लिखाए बिना दम नहीं लेंगे, भले ही इसके चक्कर में हमारा दम ही क्यों न निकल जाए।
कुछ काम अभी भी ऐसे हैं जो मोबाइल नहीं कर सकता, उनके विषय में विचार करने की आवश्यकता है। मोबाइल मृत्यु के अवसर पर कन्धे नहीं लगा सकता। खुशी में खुश और दु:ख में दु:खी नहीं हो सकता। मोबाइल आपको भोजन नहीं परोस सकता, दवाई नहीं दे सकता। पानी नहीं पिला सकता। आपके सिर में तेल नहीं डाल सकता, आपके घाव पर पट्ठी नहीं बाँध सकता। आपसे संवेदना के दो बोल नहीं बोल सकता। मोबाइल एक यन्त्र है, वह आपको केवल यन्त्र बना सकता है। संवेदनाओं के लिए परिजनों की आवश्यकता होती है। निवेदन है कि यन्त्र में इतने अधिक न खो जाएँ कि उसके कारण एक तरफ आपके परिजन खो जाएँ और दूसरी तरफ अवसाद से ग्रसित एक दिन स्वयं आपका जीवन भी खो जाए।
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डॉ. स्वामीनाथ पाण्डेय
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