सूचना

'सर्वहारा' में हिन्दी भाषा और देवनागरी लिपि में साहित्य की किसी भी विधा जैसे- कहानी, निबंध, आलेख, शोधालेख, संस्मरण, आत्मकथ्य, आलोचना, यात्रा-वृत्त, कविता, ग़ज़ल, दोहे, हाइकू इत्यादि का प्रकाशन किया जाता है।

मंगलवार, 3 सितंबर 2013

ग़ज़ल

ग़ज़ल

वक़्त ने आज सबक़ सिखा दिया,
आवाम ने आईना दिखा दिया ।

ख़ूब रही ख़िलाफते-जंग दौराँ,
हमने पानी उनको पिला दिया ।

बंद आँखों से वादों पे किया यकीं,
सोचो तुमने क्या सिला दिया ।

तख़्त पर जो जमकर बैठे थे,
ख़ाक में उनको मिला दिया ।

हुक़ुमते ज़ुल्म को सहते रहे,
आज उनको मिटा दिया ।

ताक़त पर जिनको गुमान था,
पैर उनका ज़मीं से हिला दिया । 


ग़ज़ल

कोई बात अब याद नहीं आती ।
ज़िंदगी अब साथ नहीं आती ।

हम चलते, थकते रहे धूप-छाँव में,
कभी ख़ुशी की सौग़ात नहीं आती ।

हम दूर खड़े रहे उस गाँव में,
जहाँ कोई बारात नहीं आती ।

तुमने पूछा हो हाल मेरा किसी से,
नज़र मुझे ऐसी बात नहीं आती ।

क्यों करते हो नफ़रत मुझसे इतनी,
ख़ुदा की तरफ से ज़ात नहीं आती ।

तरसते हैं हर चमकती चीज़ की लिए,
ग़रीबों को अमीरी हाथ नहीं आती ।

बहोत सताया दर्दे हालत ने मुझको,
चैन से सोऊँ ऐसी रात नहीं आती ।

--
ग़ज़ल

माना के मुल्क़ में बहोत हैं दुश्वारियाँ ।
फ़िर भी  दिलों  में हैं  दिलदारियाँ ।

हर तरफ़ गोलियाँ हैं, ख़ौफ़े बारूद है,
फ़िर भी  बचीं हैं अभी फुलवारियाँ ।

ख़ुद मिट जाएगा एक दिन भ्रष्टाचार,
रूह में जब जागती हैं ईमानदारियाँ ।

ख़ुशी, हँसी, अमन छीन लिया तुमने,
ख़ौफ़ से भला मरतीं हैं किलकारियाँ,

सर्द, सियाह रात ढल जाएगी इक रोज़,
कुछ अभी भी बचीं हैं चिंगारियाँ ।

ओ! अमरीका तेरा रुतबा होगा जग में,
कुछ हम  भी  रखते  हैं ख़ुद्दारियाँ । 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

टिप्पणी करें