ग़ज़ल
कितनी बेचैनी को दिल में दबा रखा है।
मैंने भी इक ख़ाब सजा रखा है।
वो शरमाते बहोत हैं पर हम जानते हैं,
निगाहों ज़हन में हमें बसा रखा है।
निगाहों ज़हन में हमें बसा रखा है।
कब वो आजाएँ क्या पता किस घड़ी,
घर का दरवाज़ा खुला रखा है।
घर का दरवाज़ा खुला रखा है।
ठोकर न लगे राहों में कभी भी तुमको,
तरगी में चराग़े दिल जला रखा है।
तरगी में चराग़े दिल जला रखा है।
जो आशआरों में न ढल पाया कभी
रंजों-ग़म वो सीने में छुपा रखा है।
रंजों-ग़म वो सीने में छुपा रखा है।
दम निकालने की कोई तो हो वजह
बस एक ग़म जाँ से लगा रखा है।
बस एक ग़म जाँ से लगा रखा है।
ग़ज़ल
घर की दीवारें क़द से बुलंद रखना।
सबक़ नहीं ग़ुज़ारिश है याद रखना।
उड़ न जाये याद ख़ुशबू की तरह,
चाक़े-ग़रेबाँ अपना बंद रखना।
चाक़े-ग़रेबाँ अपना बंद रखना।
मुश्किलें सताएँ ज़माने की तो क्या,
तुम हौसले अपने बुलन्द रखना।
तुम हौसले अपने बुलन्द रखना।
तेरी दोस्ती से ख़फ़ा हैं ज़माने के लोग,
अपनी अदा है अपनी पसंद रखना।
अपनी अदा है अपनी पसंद रखना।
बहोत हो चुका निसाब तुम्हारा,
चंद तल्खियाँ ज़ुबाँ पर रखना।
चंद तल्खियाँ ज़ुबाँ पर रखना।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
टिप्पणी करें