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मंगलवार, 3 सितंबर 2013

ग़ज़ल

ग़ज़ल – 1

ये बात नहीं तुम्हें बताने के लिए,
क्यों हारा हूँ उसे जिताने के लिए ।

गर बन्द है मुट्ठी तो इक रोब है,
खोलूँ तो कुछ नहीं दिखाने के लिए ।

यूँ तो कोई रंजिश नहीं रही  तुमसे,
जी नहीं करता हाथ मिलाने के लिए ।

हो रहे हैं उनके बेतहाशा बच्चे,
पास नहीं कुछ खिलाने के लिए ।

क्या दौलत, शोहरत सब फिज़ूल,
दीवानगी चाहिए दीवाने के लिए ।

वो रवायत से हो जाए दफ़्न इसलिए,
कुछ रिश्ते चाहिए निभाने के लिए 

मैं ‘तन्हा’ ही लड़ता रहूँगा दुनिया से,
वक़्त लगेगा मुझे मिटाने के लिए ।

ग़ज़ल – 2

वो सच ही कहता है,
ख़ुदा दिल में रहता है ।

सब चैन से सोते हैं,
पहरेदार जगता है ।

ये दुनिया भी अजब है,
इंसा आता है,जाता है ।

किसी को मिला सबकुछ,
कोई सबकुछ खोता है ।

जो ख़ुशी में बहाए आँसू,
वो ही ग़म में हँसता है ।

रंज, ग़म, ख़ार, दर्द,
अपना सबसे नाता है ।

मेरी तो यही तालीम है,
जो फ़कीर गाता है ।

नाज़ न कर खुद पे,
इंसा मिट जाता है ।

‘तन्हा’ सबको जाना है,
क्यों घर बसाता है । 

मोहसिन  ‘तन्हा’
सहा.प्राध्यापक हिन्दी
जे.एस.एम. महाविद्यालय,
अलीबाग (महाराष्ट्र)
मो. 09860657970
Khanhind01@gmail.com

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