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मंगलवार, 3 सितंबर 2013

ग़ज़ल

ग़ज़ल - 1

वो बंद दरवाज़ों में क़ानून लिखते रहे,
हम सड़कों पर बेतहाशा चीख़ते रहे ।

वो क़तारों में इज़्ज़त से हमसे पेश आए,
हम आदमी कम वोट ज़्यादा दिखते रहे 

वो सूखे पर हर साल अरबों का चंदा खाते,
हम बिना छत के बारिशों में भीगते रहे ।

वो रोब से जम्हूरियत की उड़ाते धज्जियाँ,
हम किताबों से वतनपरस्ती सीखते रहे ।

वो रोज़ करते हैं ज़ुल्म हमारी बच्चियों पर,
हम मूँह, कान बन्द किए आँखें मीचते रहे ।




ग़ज़ल - 2

अभी है रात, सुबह सूरज निकल जाएगा,
थका हुआ शख़्स सफ़र पर निकल जाएगा ।

हर मुसीबत का सामना वो सब्र से करता रहा,
ज़्यादा न सता आँखों से पानी निकल जाएगा ।

कमर तोड़कर लौटता है दोज़ख़ में मज़दूर,
पलक झपका कर काम पर निकल जाएगा ।

झूँटी गवाही दे दूँगा आज सामने तुम्हारे,
अदालत में सच नाम निकाल जाएगा ।

बच्चों की पीठ पर बढ़ता ही रहा रोज़ बोझ,
माँ-बाप ने डराया वो आगे निकाल जाएगा ।
--
डॉ. मोहसिन ख़ान ‘तन्हा’
201, सिद्धान्त गृ.नि.मर्या.सं, विद्यानगर,
अलीबाग़- ज़िला- रायगढ़ (महाराष्ट्र)
पिन-402201
मोबाइल – 09860657970

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