चन्द पैसों में ख़ुशियों का सामां बिकता
रहा ।
ख़रीदार रोज़ हिसाब अपना लिखता रहा ।
तू छोड़ गया शहर, अपना पता भी गुम है,
भले कोई लाख चिट्ठियाँ नाम लिखता रहा
।
यूँ तो निशां ख़ंजर पर उसके ही हाथों
के थे,
जवाबे बयानी में क़ातिल मुझको लिखता रहा
।
वो चाहता था होजाऊँ, क़ामयाब पाऊँ बुलंदी,
मैं नाकामियों से शोहरत अपनी लिखता रहा
।
दर्दे कलम से, दर्दे लम्हों को, समेटे दर्दों से,
‘तन्हा’ रोज़ ग़म की किताब लिखता रहा ।
मोहसिन 'तन्हा'
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