हाल ही में ( दिसम्बर 2013 ) पाँच राज्यों में सम्पन्न चुनावों और दलों पर मेरी प्रतिक्रिया । हम जनता हैं और हमें जीवन में यही आभास होता है !!!
ग़ज़ल- 1
ठगी तो जनता ही जाए।
कुछ तो कम हो लेकिन,
बोझ तो बढ़ता ही जाए।
हो कैसे गुज़र सोचते हैं,
बदन घुलता ही जाए।
हो यहाँ क़ायम रौशनी,
सूरज ढलता ही जाए।
कबतक होगा ख़ाब पूरा,
सब्र पिघलता ही जाए।
दरिया में कहाँ बैठेगा,
परिंदा उड़ता ही जाए।
क़र्ज़ कम न होता दर्द का,
क़िश्त भरता ही जाए।
दो रोटी की भागदौड़ में,
दम निकलता ही जाए।
ग़ज़ल- 2.
ये कैसी बात बताते हो ।
रोते-रोते भी हँसाते हो ।
हमसे पूछकर सारे राज़,
अपना ग़म ही छुपाते हो।
नफ़रतों से भरे लोगों में
बात मुहब्बत की सुनाते हो।
प्यासे हैं यहाँ ख़ून के,
चश्में यूँही बहाते हो।
नापाक़ हो गए छूने से
शक्ल कैसी बनाते हो।
'तन्हा' न समझूँ ख़ुद को,
कहाँ दोस्ती निबाहते हो।
रोते-रोते भी हँसाते हो ।
हमसे पूछकर सारे राज़,
अपना ग़म ही छुपाते हो।
नफ़रतों से भरे लोगों में
बात मुहब्बत की सुनाते हो।
प्यासे हैं यहाँ ख़ून के,
चश्में यूँही बहाते हो।
नापाक़ हो गए छूने से
शक्ल कैसी बनाते हो।
'तन्हा' न समझूँ ख़ुद को,
कहाँ दोस्ती निबाहते हो।
मोहसिन 'तन्हा'
स्नातकोत्तर हिन्दी विभागाध्यक्ष
एवं शोध निर्देशक
जे. एस. एम्. महाविद्यालय,
अलीबाग (महाराष्ट्र)
402201
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