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रविवार, 23 अक्टूबर 2016

लेख- (वामपंथ क्या, क्यों, कितना और किसलिये?)

वामपंथ को आज भारत में शक की निगाहों से देखते हुए इसको सीधा-सीधा उग्रवाद से संबद्ध करते हुए उपद्रवी, बाग़ी और आतंकवादी प्रवृत्तियों के निकट लाकर देखा जा रहा है, लेकिन इस तरह से देखने के दो स्पष्ट कारण दिखाई देते हैं, पहला यह कि परंपरावादी प्रारम्भ से वामपंथ के विरोध में हैं ही और उनकी दृष्टि में वामपंथ एक गलत मार्ग होने के साथ सांस्कृतिक-क्षरण का कारक भी है। वे अपनी दृष्टि को इस पंथ के सापेक्ष में स्वीकार्यता के साथ विकसित न कर पाए और अपने सामंतकालीन निरंकुश दुराग्रहों से मुक्त न हो पाए। वे जातिगत, भाषाई, संप्रदायगत और भेदात्मक भावना का अधिक विकास करते हुए आपसी समन्वय से दूर होते गए। दूसरा यह है कि वामपंथियों के पास केवल वामपंथ है, न तो उनके पास कोई कारगर समुचित योजना है, न योजना के साथ कोई दृढ़ नेतृत्व, न अनुशासन न ही कोई विशेष संतुलित चेतना। केवल विरोध के लिए विरोध करना वामपंथ को सही दिशा में न लेजाकर इसे बदनाम करने के साथ इसके प्रति जनता में रोष उत्पन्न कर रहा है। यहाँ वामपंथ को समझना ज़रूरी हो जाता है कि वास्तव में वामपंथ है क्या?
वामपंथ होने का सीधा अर्थ राजनीति का वह पक्ष जो पारंपरिक सत्ता के विपक्ष में अपने समता के तौर तरीके, विचारधारा, मूल्य, सिद्धांत, मानदंड और अपनी बात रखता है। वामपंथी राजनीति (left-wing politics या leftist politics) राजनीति में उस पक्ष या विचारधारा को कहते हैं, जो समाज को बदलकर उसमें अधिक आर्थिक बराबारी लाना चाहते हैं। इस विचारधारा में समाज के उन लोगों के लिए सहानुभूति जतलाई जाती है जो किसी भी कारण से अन्य लोगों की तुलना में पिछड़ गए हों या शक्तिहीन हो गये हों। राजनीति के सन्दर्भ में 'बायें' और 'दायें' शब्दों का प्रयोग फ्रांसीसी क्रान्ति के दौरान शुरू हुआ। फ़्रांस में क्रान्ति से पूर्व की एस्तात ज़ेनेराल (Estates General) नामक संसद में सम्राट को हटाकर गणतंत्र लाना चाहने वाले और धर्मनिरपेक्षता चाहने वाले अक्सर बायें तरफ़ बैठते थे। आधुनिक काल में समाजवाद (सोशलिज़म) और साम्यवाद (कम्युनिजम) से सम्बंधित विचारधाराओं को बायीं राजनीति में डाला जाता है। 

भारत में मार्क्सवाद के पदार्पण के साथ वामपंथ का प्रारंभ हुआ स्वाभाविक है, भारत की राजनीति में वामपंथ अपनी विचारधारा, मूल्य, मानदंड और सिद्धांत लेकर आया लेकिन वह अब तक सफल न हो पाया। जिस तरह से इस पंथ को अनुशासन, नेतृत्व, चेतना और आस्था की ज़रूरत थी वह इतनी मात्रा में न मिल पाई जितनी मिलनी चाहिए थी। वामपंथ भारत जैसे बहुभाषी, बहुसंप्रदाय, बहुधर्म, बहुसंस्कृति वाले राष्ट्र में फल-फूल न सका क्योंकि वामपंथ को समझने के लिए साक्षर होने के साथ पारंपरिक आस्थाओं, लोक विश्वासों, धार्मिक रूढ़ियों, ढकोसलों को पहले जड़ से उखाड़ना होगा फिर इसके लिए इसे गहरे से जानने और समझने के लिए विशेष प्रयत्न करने होंगे। भारत में अधिकांश जनता की अवस्था ऐसी है जो साक्षर भी नहीं तथा जो साक्षर हैं वे धर्म, संप्रदाय और रूढ़ियों में इतने जकड़े हुए हैं, उनसे वे बाहर भी आना नहीं चाहते, अपनी दृष्टि को वैज्ञानिक चश्मा भी पहनाना नहीं चाहते। भारतीय राजनीति में मार्क्सवाद आज बहुत हद तक सिमटकर रह गया है, कोई विशेष स्थापना और ख्याति भारत में स्थापित न कर पाया, या यों कहें लोक में मार्क्सवाद की पकड़ न बन पायी, जिन्होंने इसे अपनाया वे कहीं न कहीं प्रबुद्ध वर्ग की पकड़ में रहा उनकी चेतना उससे मेल खाई और वह संस्थाओं, वैचारिक समूहों में स्थापित होकर एकांगिता का शिकार हो गया। आज यह भी जानना बहुत ज़रूरी हो जाता है कि मार्क्सवाद का भारतीय राजनीति में क्या स्थान है और ये कहाँ तक सफल हो सका है?
मार्क्सवाद वैश्विक स्तर पर फैलने के साथ भारत में प्रवेश कर वर्त्तमान तक पूर्णतः स्थापित न हो पाया। यद्यपि मार्क्सवाद समाज में समत्व के विकास के साथ मानवीय चिंता का ऐसा दर्शन है, जिसने समस्त विश्व को समानाधिकार की भावना, सामुदायिक विकास, पूँजीवाद के विरोध के साथ पूंजी के उचित वितरण प्रति व्यक्ति के विकास के साथ मानवीय इतिहास की नवीन व्याख्या की तथा पिछले समस्त दर्शनों से अधिक तर्कयुक्त रूप में उभरकर समक्ष आया। भारत में मार्क्सवाद को समझना और समझाना तथा इसकी सही सामाजिक व्याख्या करना आज बहुत आवश्यक है, चाहे पाठ्यक्रम में पुस्तकों के माध्यम से हो या कैम्पेनिंग के माध्यम से हो या कला की अन्य शाखाओं माध्यम से हो या संस्कार के माध्यम से। आज केवल मार्क्सवाद ही ऐसा दर्शन है, जो समाज की उन्नत्ति, प्रगति और न्यायिक व्यवस्था का सशक्त विधायक है। भारत की मार्क्सवादी पार्टी के नेताओं ने मार्क्सवाद ऐसा कुछ ख़ास प्रचार और प्रसार करने का प्रयत्न ही नहीं किया कि भारत में मार्क्सवादी पार्टी के माध्यम से जनअलख जगाया जाए और हर व्यक्ति को उसके अधिकारों, कर्तव्यों के प्रति जागरूक किया जाए। वास्तव में मार्क्सवादी पार्टी भारत में मार्क्सवाद को सही दिशा देने में असफल हो गई हैं, उन्होंने कभी भी अपने सिद्धांतों का बीज जनता के बीच जाकर संघर्ष रूप में बोया ही नहीं। वह चाहते तो हर गांव, गली, मोहल्ले, शहर जाते और अपने सिद्धांतो से आमजन को गहरे रूप में जोड़ते, परंतु उनकी इस तरह की पहल जो बहुत पहले होनी थी और उसमें निरंतरता बनाए रखनी थी जो हो न पाई!!! बहुत पहले कभी रूस के प्रभाव में आकर मार्क्सवाद का ख़ूब प्रचार और प्रसार हुआ। कई पुस्तकें हिंदी में अनूदित होकर भारत में आईं और सस्ता साहित्य ने तो मार्क्सवाद की स्थापना के लिए बाढ़ ला दी थी। पश्चात में न तो वैसी भावना का अनुगमन शेष रहा, न ही मार्क्सवाद के सिद्धांतों को किसी ने गंभीरता से ग्रहण किया और न ही जिस अनुशासन की माँग थी उसे पूर्णता मिल पाई। एक बहुत बड़ी कमी और कमज़ोरी भारतीय मार्क्सवादी पार्टी की यह रही कि मार्क्सवाद के प्रति प्रतिबद्धताओं और अनुशासनों में भयानक गिरावट आगई। जब अनुसासन, प्रतिबद्धताएं क्षीण होती हैं, तो उसके परिणाम भी शिथिल होने लगते हैं, यहाँ उन्हीं अवस्थाओं को हू-ब-हू चित्र उभरकर समक्ष आया है। मार्क्सवादी दल ने और नेताओं ने कभी इस बात पर गहराई से विचार और चिंतन न किया कि मार्क्सवाद के भारत में कमज़ोर पड़ने के क्या कारण हैं??? क्यों भारत में मार्क्सवाद उस स्तर पर लागू न हो पा रहा है जिस स्तर पर वास्तव में आज उसकी बड़ी सशक्त ज़रूरत है??? क्यों मार्क्सवादी दल घर-घर जाकर लोगों में मार्क्सवाद की भावना और शिक्षा नहीं बाँट पा रहे हैं??? क्यों मार्क्सवाद भारत में सामजिक दर्शन बनकर प्रतिनिधि रूप में नेतृत्व नहीं कर पा रहा है??? एक समाज दर्शन क्यों भारत में स्थापित न हो पा रहा है जबकि भारत में धर्म-दर्शन चाहे वह अंधविश्वासों से भरा हो स्थापित हो जाता है, तो मार्क्सवाद की स्थापना के प्रयासों में क्या कमी रह रही है??? मार्क्सवादी दल के पास कारगर नेतृत्व की कमी क्यों है??? एक गहरा चिंतन और प्रयास इस दल के नेताओं ने नहीं किया और न ही अपने को मार्क्सवाद के लिए संघर्षपथ पर ही कभी खपाया।केवल विपक्ष में बैठकर गिने चुने नेताओं के विरोध दर्ज करने, टिपण्णी करने, बयानबाज़ी से मार्क्सवाद कभी फलीभूत नहीं हो सकता है, न ही उसे व्यापक स्तर पर भारत में स्थापित किया जा सकता है। वास्तव में आज मार्क्सवाद को नए सिरे से नए भारतीय संस्कारों से संयोजित करने की गहरी आवश्यकता है ताकि समाज के सही हित का दर्शन भारतीय समाजजन में प्रस्थापित हो पाए। भारत में मार्क्सवाद को स्थापित करने में मार्क्सवादी दल की ही बड़ी भूमिका हो सकती है न कि कला और उसकी समस्त विधाओं की। आज साहित्य, नाटक, ललित कलाओं के माध्यम से समाजवाद अथवा मार्क्सवाद को जीवित तो रखा जा रहा है, लेकिन उसे जन-जन की मुक्ति का साधन बनाना बड़ा दुसह हो चुका है। आज बड़े स्तर पर ज़रूरत है कि मार्क्सवादी दल में नई जान फूँककर मार्क्सवाद को या प्रभाव को फैलाया जाए ताकि वह आमजन के जीवन के विकास का प्रतिरूप बनकर उभरे। एक बात यहाँ स्पष्ट भी कर दूँ कि भारत ईश्वरी आस्थाओं का देश है, जहाँ मार्क्सवाद को चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा, क्योंकि मार्क्सवाद ईश्वर की आस्था से विमुक्त वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर आधारित समाजदर्शन है। इसका एक सीधा सा उपाए है कि मार्क्सवाद को भारत में इस तरह खपाया जाए कि कहीं किसी की साम्प्रदायिक, धार्मिक भावना को ठेस न पहुंचे और मार्क्सवाद की फ़सल भारत में लहरा जाए!!!
इधर JNU में तथाकथित छात्र नेताओं ने अनियंत्रित, अनुशासनहीन, असंयोजित नेतृत्वहीन विफल प्रयास किये, जिससे मार्क्सवादी सिद्धांतों का हनन तो हुआ ही साथ ही वामपंथ के लिए लोगों की दृष्टि में नकारात्मकता आई और लोग वामपंथ से छिटककर दूर होते हुए कतराने लगे हैं। कन्हैया ने अनियंत्रित तरीके से अपने विरोध को दर्ज किया जो विवाद को उत्पन्न कर गया और वाममपंथी पार्टी ने उसे प्रश्रय दिया जबकि आवश्यकता इस बात की थी कि मार्क्सवादी पार्टी को अपने कड़े अनुशासन के तहत ऐसी प्रवॄत्तियों को प्रश्रय न देना चाहिए था। अभी हाल ही की घटना में JNU में घेराव किया गया जो कि लोकतांत्रिकता को चुनौती देता है। जबकि वामपंथ का सम्पूर्ण उद्देश्य लोकतान्त्रिक व्यवस्था का निर्माण होना चाहिये न कि बोखलाकर हिंसा के पथ पर उतरकर अपने संवादों, भाषणों को हथियार के रूप में इस्तेमाल करते हुए उपद्रव करते हुए देश की अखंडता और शांति को भंग करें। यदि वामपंथियों की ऐसी प्रवॄत्तियों को लगातार बल मिला तो मार्क्सवाद भारत में आतंकवाद के रूप में भविष्य में देखा जाएगा।आज बहुत ज़रूरत इस बात की है कि मार्क्सवाद को नए सिरे से भारत में स्थापना दिलाने के लिए एक कारगर नेतृत्व, अनुशासन, चेतना, आस्था,  नियोजन, प्रबंधन और गहरे त्याग की ज़रूरत है। यदि इस प्रकार से अनुशासनहीनता का शिकार मार्क्सवाद होता गया, तो इसे कोई पूछने वाला ह् रह जाएगा और यह बौद्धिक वर्ग का एक नज़रिया बनकर रह जाएगा। बौद्धिक वर्ग भी यदि इसे ऐसे ही अपनाता रहा तो ये उनकी मनमानी का एक उच्छश्रृंखल तरिका अथवा शैली के अतिरिक्त और कुछ न होगा। आज बेहद आवश्यक है कि मार्क्सवाद को नए तालमेल से भारत में किस प्रकार स्थापित किया जाए, किस तरह की योजनाएँ बनाई जाएँ जिससे यह लोक समाज में पुनः  जीवित होकर पल्लवित और पुष्पित हो सके। आज समय आ गया है कि इस सन्दर्भ में पुनर्विचार किया जाये और ये स्वीकार किया जाए कि मार्क्सवाद अपनी सीमाओं का अतिक्रमण करना छोड़ दे और नियंत्रित होकर अनुशासनबद्ध होकर सही दिशा में आगे बढे। आज मार्क्सवाद को सबसे बड़ी ज़रूरत भारतीय जनता के दिलों और जीवन में उसकी स्थापना की है ताकि लोक में इसके प्रति एक आस्था का निर्माण हो सके और भारत का नवनिर्माण आर्थिक समानता, धर्मनिरपेक्षता, मानवी समता के साथ एक अधिकार की भावना के तहत हो सके।
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डॉ. मोहसिन ख़ान
अलीबाग-महाराष्ट्र

शुक्रवार, 21 अक्टूबर 2016

लेख-साहित्य को खोखला कर रहे...विमर्श के सरोकार !

रचनाकार का परिचय
डॉ. अनवर अहमद सिद्दीकी 

महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालयवर्धा अनुवाद अध्ययन विभाग  में सहायक प्राध्यापक 26 वर्षों का शैक्षणिक अनुभव,  विश्वविद्यालय कार्यपरिषद के सम्मानित सदस्य, विश्वविद्यालय के विद्या परिषद् पूर्व सदस्य, विश्वविद्यालय के, विविध महत्वपूर्ण समितियों के सदस्य, पूर्व संयोजक- राष्ट्रीय सेवा योजना, संयोजक- अमन मानव मिशन।
देश-विदेश में अंतर्राष्ट्रीयराष्ट्रीयराज्य स्तरीय सेमीनारसम्मेलनकार्यशाला, संगोष्ठी में उद्घाटकअतिथि विद्वानबीज वक्तव्य,विशेषज्ञ आदि के रूप में सक्रिय भागीदारी विश्व हिंदी सम्मेलन न्यूयार्क (अमेरीका) अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी बैंकॉक (थायलैंड)प्रथम अंतर्राष्ट्रीय कॉन्फ्रेंस लाहौर (पाकिस्तान) आदि में आलेख वाचन
राजभाषा हिंदी कार्यशालाओं में केंद्र सरकार के उपक्रमोंकार्यालयोंसंस्थानों में विषय-विशेषज्ञविविध वादविवाद ,निबंधकविता आदि स्पर्धाओं एवं प्रतियोगिताओं के निर्णायकमंचीय समारोह में कुशल मंच संचालन, ग़ज़ल,काव्यआध्यात्मिक व्याख्यानसंभाषणनाट्य लेखनअभिनयनिर्देशन
विविध पत्रिकाओं का सम्पादनपुस्तक लेखन- अनूदित हिंदी नाटक :एक रंग दृष्टिप्रकाशन संस्थानदिल्लीपुस्तक अनुवाद- आध्यात्मिक बोधामृत :गुप्त संजीवनी पुस्तक/पत्रिका संपादन: बहुवचनपुस्तक वार्तानिर्मल विमर्शराह राहुल की...,मोहन से सम्मोहन...,अर्थ सन्देशदी ज्वेल आदि 
साहित्यिक आयोजनों एवं गतिविधियों में विशेष अभिरूचिअनुवाद एवं प्रशासनिक हिंदी कार्य-क्षेत्र आदि 
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संपर्क-निवास :
अमन कुटीरगांधी नगरवर्धा 442 001

मोबाइल- 9325469246 (निवास) फोन- 07152-247836
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              साहित्य को खोखला कर रहे... विमर्श के सरोकार !
ज के समय में साहित्य की जितनी हानि विमर्शों से हुई है, शायद ही उतनी हानि किसी अन्य दृष्टिकोण से हुई हो... वैसे विमर्श किसी एक पक्ष, वर्ग, जाति, विचार, लिंग, सम्प्रदाय आदि का प्रतिनिधित्व करता है... विमर्श का मुख्य उद्देश्य किसी एक वर्ग या श्रेणी विशेष की दबे, उपेक्षित और तिरस्कृत स्वर को मुखरित करते हुए निराकरण करना है... जबकि साहित्य का प्रयोजन काफ़ी फैला हुआ है... साहित्य की परिधि वृहद है... साहित्य की दृष्टि व्यापक है... साहित्य का फ़लक विस्तृत है... लेकिन विडम्बना है कि आज विमर्श ने साहित्य को विविध रंगों में, दुकानों में, प्रदर्शनियों में, खेमों में, वादों में और समुदायों आदि में विभक्त कर दिया है... जिसके कारण यह देखा गया है कि साहित्य में पूर्वाग्रही, संकीर्ण और संकुचित दृष्टि को अवसर मिला है... परिणामतः हाल ही के वर्षों में साहित्य में तेज़ी से कट्टरता फैली है... उसी तरह जो साहित्य समाज का दर्पण कहलाता था, जिस दर्पण में समाज का प्रतिबिंब दिखाई देता था, आज ऐसा साहित्य समाज का विभाजक बन कर रह गया है। 
      आज समाज को हम विविध खेमों में, वर्गों में और विचारों आदि में बंटा देख रहे हैं... आजकल विभिन्न प्रकारों के विमर्शों ने साहित्य का बेड़ा गर्क करके रख दिया है... एक तरह से देखा जाए तो आज साहित्य को विभिन्न प्रकार के विमर्श दीमक की भांति खोखला कर रहे हैं... जिसके कारण साहित्य को पोषित करने वाले मूल्यों का भी तेज़ी के साथ विघटन अर्थात अमूल्यन हो रहा है... विमर्श के कारण साहित्य में वर्णित कई तरह की मान्यताएं टूट रही हैं. साहित्य के प्रतिस्थापित मानदंड शिकस्त होते जा रहे हैं... मानो ऐसा लगता है, जैसे आज विमर्श के समक्ष साहित्य का अस्तित्व या साहित्य की अपनी अस्मिता को खो रहा है... उसी तरह आज साहित्य के क्षेत्र में विमर्श ने तो विकराल स्थिति उत्पन्न कर दी है, जिससे कि साहित्य विमर्श के समक्ष स्वयं को दोयम दर्जे का अनुभूत करने लगा है... कभी-कभी तो ऐसा प्रतीत होता है, जैसे विमर्श ने साहित्य से परे अपनी एक विशिष्ट पहचान बना ली है। 
      सचमुच आज साहित्य विमर्श के सामने असहाय, पंगु और बौना साबित हो गया है... विमर्श ने साहित्य में सिकुड़न की स्थिति उत्पन्न कर दी है... फलतः साहित्य का उदार और मानवीय चेहरा एकाएक नदारद हो गया... जिससे साहित्य लोकोन्मुखी एवं समाजोन्मुखी होने की बजाय व्यक्ति-विशेष, स्व-केंद्रित अथवा किसी एक विशिष्ट-वर्ग का स्वर बनता जा रहा है. जबकि साहित्य का लक्ष्य किसी एक विचार पर ठहर जाने के बजाय समस्त लोक या सर्वहित की समस्याओं को उजागर करते हुए उपयुक्त और अपेक्षित समाधान, निराकरण एवं निवारण प्रस्तुत करना है... खेद का विषय है कि आज बिना विमर्श के तथाकथित साहित्यकार भी अपनी कलम उठा पाने में स्वयं को अशक्त और हिचकिचाहट अनुभूत कर रहे हैं... आदर्शोन्मुख या साहित्यादर्श की बातें विमर्श के आगे बेमानी-सी लग रही है... जबकि साहित्य का विमर्श के बगैर भी सृजन हो सकता है... उसे विमर्श नामक किसी बैसाखी की आवश्यकता क्यों और किसलिए है ?
         सवाल उठता है कि क्या विमर्श के आने से पहले तक लिखा जाने वाला साहित्य वास्तव में साहित्य की कसौटी या मानदंड पर खरा उतरने वाला खरा साहित्य माना नहीं जाएगा या उसे स्वीकार नहीं किया गया या आज ऐसे साहित्य की वर्तमान परिप्रेक्ष्य में कोई प्रासंगिकता नहीं रह गयी है? क्या इससे पूर्व विमर्श के बिना जो साहित्य विपुल प्रमाण में रचा गया, ऐसा साहित्य विमर्श की अनुपस्थिति में खारिज़ किया जाने योग्य है ? दरअसल वह साहित्य समस्त विमर्शों को अपने भीतर समाहित किए हुए था... वह साहित्य समाज में निहित समस्त समस्याओं का चित्रण करते हुए उपयुक्त समाधान प्रस्तुत करने वाला एक जीवंत दस्तावेज हुआ करता था... कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि साहित्य को किसी विशेष वाद या विमर्श से देखा जाना या देखने की कोशिश करना बेमानी हो सकती है... ऐसा साहित्य केवल निजी स्वार्थ से उत्प्रेरित होकर लिखा जाने वाला साहित्य माना जा सकता है, जो केवल समाज में कटुता, ईर्ष्या, विद्वेष, हिंसा, घृणा आदि को बढ़ावा देते हुए अलगाव या विभाजन पैदा कर सकता है।
      दरअसल सच्चाई यह है कि साहित्य में विमर्श जिन उपेक्षितों, पिछड़े वर्गों, लिंगों, जातियों, सम्प्रदायों, धर्मों आदि के सरोकारों को लेकर स्थापित किए गए या किए जा रहे हैं, आश्चर्य की बात है कि आज उस वर्ग-विशेष को इन विविध विमर्श के स्थापित होने से प्रत्यक्ष कोई लाभ नहीं हो पा रहा हैं... बल्कि उस वर्ग-विशेष की समस्याएं जस की तस बनी हुई है... उनमें विमर्शों के शोर-शराबे का कोई असर दूर तक दिखाई नहीं दे रहा हैं... इस सत्य की पार्श्वभूमि में जो वास्तविकता है, वह भी कम चौकाने वाली नहीं है... वास्तव में विमर्श के नाम पर दूकानदारी करने वाले तथाकथित साहित्यकारों का वर्ग समूह उन्हीं के द्वारा स्थापित विमर्श को उसी अवस्था अथवा दशा में बनाए रखना चाहता है... वे उन समस्याओं का समाधान जानबूझकर होने देना नहीं चाहते हैं... संभवतः विमर्शों के स्वामी, जनक अर्थात पुरोधा विमर्श के समाधान हो जाने की स्थिति में विमर्श का कोई औचित्य न रह जाएगा... जिससे तथाकथित विमर्श के नाम पर हो-हल्ला कर साहित्यरूपी दूकान से अधिकाधिक लाभ अर्जन किया जाए  शायद यह सोचकर विमर्श को यथा बनाए रखने में अधिक विश्वास और संतोष अनुभूत कर रहे हैं।
         साहित्य के नाम पर विमर्शों की राजनीति करने वाले तथाकथित साहित्यकार बनाम राजनीतिक विमर्श का निराकरण कतई होने नहीं देना चाहते हैं... ठीक उसी प्रकार जैसे अल्पसंख्यकों के रहनुमा अक्सर चुनाव क़रीब आने के समय मज़हब या जाति के नाम पर आसानी से बिक जाया करते हैं... ऐसे रहनुमा मज़हब की समस्याओं को भुनाकर अपनी रोटी आसानी से सेंकना चाहते हैं... यदि इन समस्याओं का निराकरण करने वाला अगर कोई रहनुमा या प्रतिनिधि (जो कूटनीतिक और अवसरवादी न हो) नि:स्वार्थ या अनायास प्रकट होकर सामने आ भी जाय तो वे तथाकथित धर्मों के ठेकेदार एक साथ मिलते हुए आपसी विरोधों को भुलाकर उसे रास्ते से हटा देने में ही अपनी भलाई समझते हैं... जिसके कारण उस हाशिए के समाज की समस्याएं हमेशा-हमेशा के लिए पूर्ववत बनी रहती है... ठीक उसी तरह साहित्य में आज विमर्श केवल स्वांग रचने के लिए स्थापित किए जाते रहे :हैं... ताकि उस वर्ग-विशेष की दयनीय स्थिति को भोग कर तथाकथित विमर्श के नाम पर जीवनपर्यंत मलाई और दलाली खायी जा सकें।
    आज विमर्शों के बहाने कई तरह से पूर्वाग्रहों पर आश्रित हथकंडे और राजनीति की जा रही है... निरापद सिद्धांतों और वादों को ज़बरदस्ती थोपने का कार्य किया जा रहा हैं... आज विमर्शों की पार्श्व में कहीं भी बौद्धिकता या विवेक नज़र नहीं आ रहा, बल्कि ऐसा लगता है कि विमर्श को लेकर दिमागी कसरत का आखाड़ा बनाया जाने लगा हैं... विमर्श आपस में युद्ध की पूर्व तैयारी का सूचक हो गए हैं... विमर्श के अस्तित्व को जीवंत बनाए रखने के लिए आधारभूमि के रूप में विमर्श-मठ स्थापित किए जा रहे हैं... जहाँ विमर्श की धार को अधिक तीक्ष्ण बनाया जा सकें... ज़ाहिर है जब मठ होगे तो मठाधीश ख़ुद अवतरित होगे... ऐसी स्थिति में विमर्श केवल स्वांत: सुखाय और स्वार्थ सिद्धि के प्रयोजन से परे कुछ नहीं... आश्चर्य है कि विमर्श जिस वर्ग, समाज, विषय, समस्या या विचार को लेकर प्रारंभ हुआ वही वर्ग विमर्श के केंद्र से नदारद है... केवल विमर्श की राजनीति करनेवाले प्रबुद्ध साहित्यकारों ने जितना विमर्श शब्द का इस्तेमाल कर, साहित्य के साथ कुठाराघात किया है, शायद ही उतना किसी ने किया हो और यह सब-कुछ विमर्श के नाम पर...। 
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ये लेखक के अपने विचार हैं, जिससे सहमत-असहमत हुआ जा सकता है। (संपादक-सर्वहारा)     

ग़ज़ल

रचनाकर का परिचयडॉ. राकेश जोशी
डॉ. राकेश जोशी

अंग्रेजी साहित्य में एम. ए., एम. फ़िल., डी. फ़िल. डॉ. राकेश जोशी मूलतःराजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, डोईवाला, देहरादून, उत्तराखंड में अंग्रेजी साहित्य के असिस्टेंट प्रोफेसर हैं. इससे पूर्व वे कर्मचारी भविष्य निधि संगठन, श्रम मंत्रालय, भारत सरकार में हिंदी अनुवादक के पद पर मुंबई में कार्यरत रहे. मुंबई में ही उन्होंने थोड़े समय के लिए आकाशवाणी विविध भारती में आकस्मिक उद्घोषक के तौर पर भी कार्य किया. उनकी कविताएँ अनेक राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होनेके साथ-साथ आकाशवाणी से भी प्रसारित हुई हैं. उनकी एक काव्य-पुस्तिका "कुछ बातें कविताओं में", एक ग़ज़ल संग्रह पत्थरों के शहर में, तथा हिंदी से अंग्रेजी में अनूदित एक पुस्तक द क्राउड बेअर्स विटनेसअब तक प्रकाशित हुई है. डॉ. राकेश जोशी की ग़ज़लें आम आदमी की संवेदना को बख़ूबी अभिव्यक्त करती हैं. उनकी ग़ज़लों में आम-जन की पीड़ा एवं संघर्ष को सशक्त अभिव्यक्ति मिलती है, इसलिए ये आज के इस दौर में भीड़ से बिलकुल अलग खड़ी नज़र आती हैं.

सम्पर्क:
डॉ. राकेश जोशी
असिस्टेंट प्रोफेसर (अंग्रेजी)
राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, डोईवाला
देहरादून, उत्तराखंड
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ग़ज़लें
1.
बादल गरजे तो डरते हैं नए-पुराने सारे लोग। 
गाँव छोड़कर चले गए हैं कहाँ न जाने सारे लोग। 

खेत हमारे नहीं बिकेंगे औने-पौने दामों में,
मिलकर आए हैं पेड़ों को यही बताने सारे लोग। 

मैंने जब-जब कहा वफ़ा और प्यार है धरती पर अब भी,
नाम तुम्हारा लेकर आए मुझे चिढ़ाने सारे लोग। 

गाँव में इक दिन एक अँधेरा डरा रहा था जब सबको,
खूब उजाला लेकर पहुँचे उसे भगाने सारे लोग। 

भूखे बच्चे, भीख माँगते कचरा बीन रहे लेकिन,
नहीं निकलते इनका बचपन कभी बचाने सारे लोग। 

धरती पर खुद आग लगाकर भाग रहे जंगल-जंगल,
ढूँढ रहे हैं मंगल पर अब नए ठिकाने सारे लोग। 

इनको भीड़ बने रहने की आदत है, ये याद रखो,
अब आंदोलन में आए हैं समय बिताने सारे लोग। 

चिड़ियों के पंखों पर लिखकर आज कोई चिट्ठी भेजो, 
ऊब गए है वही पुराने सुनकर गाने सारे लोग। 

2.
जगमगाती शाम लेकर आ गया हूँ। 
मत डरो, पैग़ाम लेकर आ गया हूँ। 

हम सभी गद्दार हैं, हक़ माँगते हैं, 
सर पे ये इल्ज़ाम लेकर आ गया हूँ। 

फिर गरीबों को उदासी बाँटकर, 
मैं ज़रा आराम लेकर आ गया हूँ। 

सब यहाँ तलवार लेकर आ गए हैं, 
मैं तुम्हारा नाम लेकर आ गया हूँ। 

आत्मा तुमने बहुत सस्ते में बेची, 
मैं तो ऊँचे दाम लेकर आ गया हूँ। 

आज अपने साथ मैं रोटी नहीं, 
कुछ ज़रूरी काम लेकर आ गया हूँ। 

3. 
हर तरफ गहरी नदी है, क्या करें। 
तैरना आता नहीं है, क्या करें। 

ज़िंदगी, हम फिर से जीना चाहते हैं,
पर सड़क फिर खुद गई है, क्या करें। 

यूं तो सब कुछ है नए इस नगर में, 
पर तुम्हारा घर नहीं है, क्या करें। 

पेड़, मुझको याद आए तुम बहुत,
आग जंगल में लगी है, क्या करें।

लौटकर हम फिर शहर में आ गए,
फिर भी इसमें कुछ कमी है, क्या करें। 

तुमसे मिल पाया नहीं, बेबस हूँ मैं,
और बेबस ये सदी है, क्या करें। 

4.
हर तरफ भारी तबाही हो गई है,
ये ज़मीं फिर आततायी हो गई है।

कुछ नए क़ानून ऐसे बन गए हैं, 
आज भी उनकी कमाई हो गई है।

जब से हम पर्वत से मिलकर आ गए हैं,
ऊँट की तो जग-हँसाई हो गई है। 

फिर किसानों को कोई चिठ्ठी मिली है,
फिर से ये धरती पराई हो गई है। 

मैं तुम्हारे पास आना चाहता हूँ,
बीच में गहरी-सी खाई हो गई है। 

वो तो बच्चों को पढ़ाना चाहता है,
पर बहुत महंगी पढ़ाई हो गई है। 

5.
कैसे-कैसे लोग शहर में रहते हैं। 
जलता है जब शहर तो घर में रहते हैं।

जाने क्यों इस धरती के इस हिस्से के,
अक्सर सारे लोग सफ़र में रहते हैं। 

भूख से मरते लोगों की इस दुनिया में,
राजा-रानी रोज़ ख़बर में रहते हैं। 

दौर नया है, जिसमें हम सबके सपने,
दबकर फाइल में, दफ्तर में रहते हैं। 

जनता जब मिलकर चलती है सड़कों पर,
दरबारों में लोग फ़िकर में रहते हैं। 

वो जो इक दिन इस दुनिया को बदलेंगे,
मेरी बस्ती, गाँव, नगर में रहते हैं।