तुम ही आँखें हमसे चुराते रहे ।
हम फ़िर भी हाथ मिलाते रहे ।
तोड़ना चाहा
रिश्ता ख़ून का,
जाने क्या सोचकर निभाते रहे ।
तेरे गुनाहों में हम भी हैं शरीक़,
ताले क्यों ज़ुबाँ पे लगाते रहे ।
बादे ख़ुदा तुझपे किया ऐतबार,
तेरी पनाहों में सिर झुकाते रहे ।
अपने बचपन से है मुझे नफ़रत,
हालात रोटी को भी तरसाते रहे ।
तक़ाज़ों की नोकों से हुआ ज़ख़्मी,
दहलीज़ पे तेरी गिड़गिड़ाते रहे ।
जिस्म से हटकर रूह में चिपकी,
जितनी उतरनें मुझे पहनाते रहे ।
कितना ‘तन्हा’ था उन दिनों जब,
शर्म से वालिद मुँह छुपाते रहे ।
मोहसिन ‘तन्हा’
डॉ. मोहसिन ख़ान
हिन्दी विभागाध्यक्ष
जे.एस.एम. महाविद्यालय,
अलीबाग (महाराष्ट्र) 402201
09860657970 khanhind01@gmail.com
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