रचनाकार का परिचय
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डॉ. अनवर अहमद सिद्दीकी |
महात्मा
गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा अनुवाद अध्ययन विभाग में सहायक प्राध्यापक 26 वर्षों का शैक्षणिक अनुभव, विश्वविद्यालय
कार्यपरिषद के सम्मानित सदस्य, विश्वविद्यालय के विद्या परिषद् पूर्व सदस्य, विश्वविद्यालय के, विविध महत्वपूर्ण समितियों
के सदस्य, पूर्व संयोजक- राष्ट्रीय सेवा योजना, संयोजक- अमन मानव मिशन।
देश-विदेश में अंतर्राष्ट्रीय, राष्ट्रीय, राज्य स्तरीय सेमीनार, सम्मेलन, कार्यशाला, संगोष्ठी में उद्घाटक, अतिथि विद्वान, बीज वक्तव्य,विशेषज्ञ आदि के रूप में सक्रिय भागीदारी
विश्व हिंदी सम्मेलन न्यूयार्क (अमेरीका) अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी बैंकॉक
(थायलैंड), प्रथम
अंतर्राष्ट्रीय कॉन्फ्रेंस लाहौर (पाकिस्तान) आदि में आलेख वाचन
राजभाषा हिंदी कार्यशालाओं में केंद्र सरकार
के उपक्रमों, कार्यालयों, संस्थानों में विषय-विशेषज्ञ, विविध वादविवाद ,निबंध, कविता आदि स्पर्धाओं एवं प्रतियोगिताओं के निर्णायक, मंचीय समारोह में कुशल मंच संचालन, ग़ज़ल,काव्य, आध्यात्मिक व्याख्यान, संभाषण, नाट्य लेखन, अभिनय, निर्देशन,
विविध पत्रिकाओं का सम्पादन, पुस्तक लेखन- अनूदित हिंदी नाटक :एक रंग
दृष्टि, प्रकाशन
संस्थान, दिल्ली, पुस्तक अनुवाद- आध्यात्मिक बोधामृत :गुप्त संजीवनी
पुस्तक/पत्रिका संपादन: बहुवचन, पुस्तक वार्ता, निर्मल विमर्श, राह राहुल की...,मोहन से सम्मोहन...,अर्थ सन्देश, दी ज्वेल आदि
साहित्यिक आयोजनों एवं गतिविधियों में विशेष
अभिरूचि, अनुवाद एवं
प्रशासनिक हिंदी कार्य-क्षेत्र आदि
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संपर्क-निवास :
अमन कुटीर, गांधी नगर, वर्धा 442 001
मोबाइल- 9325469246 (निवास) फोन-
07152-247836
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साहित्य को खोखला कर रहे... विमर्श के सरोकार !
आज के समय में साहित्य की जितनी हानि विमर्शों से हुई है, शायद
ही उतनी हानि किसी अन्य दृष्टिकोण से हुई हो... वैसे विमर्श किसी एक पक्ष, वर्ग, जाति, विचार, लिंग, सम्प्रदाय आदि का प्रतिनिधित्व करता है... विमर्श का मुख्य
उद्देश्य किसी एक वर्ग या श्रेणी विशेष की दबे, उपेक्षित और तिरस्कृत स्वर को मुखरित करते हुए निराकरण करना
है... जबकि साहित्य का
प्रयोजन काफ़ी फैला हुआ है... साहित्य की परिधि वृहद है... साहित्य की दृष्टि
व्यापक है... साहित्य का फ़लक विस्तृत है... लेकिन विडम्बना है कि आज विमर्श ने
साहित्य को विविध रंगों में, दुकानों में, प्रदर्शनियों
में, खेमों में, वादों में और समुदायों आदि
में विभक्त कर दिया है... जिसके कारण यह देखा गया है कि साहित्य में
पूर्वाग्रही, संकीर्ण और संकुचित दृष्टि को अवसर मिला
है... परिणामतः हाल ही के वर्षों में साहित्य में तेज़ी से कट्टरता फैली है... उसी
तरह जो साहित्य समाज का दर्पण कहलाता था, जिस दर्पण में समाज का प्रतिबिंब दिखाई देता था, आज ऐसा साहित्य
समाज का विभाजक बन कर रह गया है।
आज समाज को हम
विविध खेमों में, वर्गों में और विचारों आदि में बंटा देख रहे हैं... आजकल विभिन्न
प्रकारों के विमर्शों ने साहित्य का बेड़ा गर्क करके रख दिया है... एक तरह से देखा
जाए तो आज साहित्य को विभिन्न प्रकार के विमर्श दीमक की भांति खोखला कर रहे हैं...
जिसके कारण साहित्य को पोषित करने वाले मूल्यों का भी तेज़ी के साथ विघटन अर्थात अमूल्यन हो रहा है... विमर्श के कारण साहित्य में वर्णित
कई तरह की मान्यताएं टूट रही हैं. साहित्य के प्रतिस्थापित मानदंड शिकस्त होते जा
रहे हैं... मानो ऐसा लगता है, जैसे आज विमर्श के समक्ष साहित्य का अस्तित्व या साहित्य
की अपनी अस्मिता को खो रहा है... उसी तरह आज साहित्य के क्षेत्र में विमर्श ने तो
विकराल स्थिति उत्पन्न कर दी है, जिससे कि साहित्य विमर्श के समक्ष स्वयं को दोयम
दर्जे का अनुभूत करने लगा है... कभी-कभी तो ऐसा प्रतीत होता है, जैसे विमर्श ने
साहित्य से परे अपनी एक विशिष्ट पहचान बना ली है।
सचमुच आज
साहित्य विमर्श के सामने असहाय, पंगु और बौना साबित हो गया है... विमर्श ने
साहित्य में सिकुड़न की स्थिति उत्पन्न कर दी है... फलतः साहित्य का उदार और मानवीय
चेहरा एकाएक नदारद हो गया... जिससे साहित्य
लोकोन्मुखी एवं समाजोन्मुखी होने की बजाय व्यक्ति-विशेष, स्व-केंद्रित अथवा किसी एक विशिष्ट-वर्ग का स्वर बनता जा रहा
है. जबकि साहित्य का लक्ष्य किसी एक विचार पर ठहर जाने के बजाय समस्त लोक या सर्वहित
की समस्याओं को उजागर करते हुए उपयुक्त और अपेक्षित समाधान, निराकरण एवं निवारण प्रस्तुत करना है... खेद का विषय है कि आज
बिना विमर्श के तथाकथित साहित्यकार भी अपनी कलम उठा पाने में स्वयं को अशक्त और
हिचकिचाहट अनुभूत कर रहे हैं... आदर्शोन्मुख या साहित्यादर्श की बातें विमर्श के
आगे बेमानी-सी लग रही है... जबकि साहित्य का विमर्श के बगैर भी सृजन हो सकता है...
उसे विमर्श नामक किसी बैसाखी की आवश्यकता क्यों और किसलिए है ?
सवाल उठता है कि क्या विमर्श के आने से पहले तक लिखा जाने वाला साहित्य
वास्तव में साहित्य की कसौटी या मानदंड पर खरा उतरने वाला खरा साहित्य माना नहीं जाएगा
या उसे स्वीकार नहीं किया गया या आज ऐसे साहित्य की वर्तमान परिप्रेक्ष्य में कोई
प्रासंगिकता नहीं रह गयी है? क्या इससे पूर्व विमर्श के बिना जो साहित्य विपुल
प्रमाण में रचा गया, ऐसा साहित्य विमर्श की अनुपस्थिति में खारिज़ किया जाने योग्य
है ? दरअसल वह साहित्य समस्त विमर्शों को
अपने भीतर समाहित किए हुए था... वह साहित्य समाज में निहित समस्त समस्याओं का
चित्रण करते हुए उपयुक्त समाधान प्रस्तुत करने वाला एक जीवंत दस्तावेज हुआ करता
था... कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि साहित्य को किसी विशेष वाद या विमर्श से
देखा जाना या देखने की कोशिश करना बेमानी हो सकती है... ऐसा साहित्य केवल निजी
स्वार्थ से उत्प्रेरित होकर लिखा जाने वाला साहित्य माना जा सकता है, जो केवल समाज में कटुता, ईर्ष्या, विद्वेष, हिंसा, घृणा आदि
को बढ़ावा देते हुए अलगाव या विभाजन पैदा कर सकता है।
दरअसल सच्चाई यह
है कि साहित्य में विमर्श जिन
उपेक्षितों, पिछड़े वर्गों, लिंगों, जातियों, सम्प्रदायों, धर्मों आदि के सरोकारों
को लेकर स्थापित किए गए या किए जा रहे हैं, आश्चर्य की बात है कि आज उस वर्ग-विशेष को इन विविध विमर्श के स्थापित होने से प्रत्यक्ष कोई लाभ
नहीं हो पा रहा हैं... बल्कि उस वर्ग-विशेष की समस्याएं जस की तस बनी हुई है...
उनमें विमर्शों के शोर-शराबे का कोई असर दूर तक दिखाई नहीं दे रहा हैं... इस सत्य
की पार्श्वभूमि में जो वास्तविकता है, वह भी कम चौकाने वाली नहीं है... वास्तव में
विमर्श के नाम पर दूकानदारी करने वाले तथाकथित साहित्यकारों का वर्ग समूह उन्हीं
के द्वारा स्थापित विमर्श को उसी अवस्था अथवा दशा में बनाए रखना चाहता है... वे उन
समस्याओं का समाधान जानबूझकर होने देना नहीं चाहते हैं... संभवतः विमर्शों के
स्वामी, जनक अर्थात पुरोधा विमर्श के समाधान हो जाने की स्थिति में विमर्श का कोई
औचित्य न रह जाएगा... जिससे तथाकथित विमर्श के नाम पर हो-हल्ला कर साहित्यरूपी
दूकान से अधिकाधिक लाभ अर्जन किया जाए
शायद यह सोचकर विमर्श को यथा बनाए रखने में अधिक विश्वास और संतोष अनुभूत
कर रहे हैं।
साहित्य के नाम
पर विमर्शों की राजनीति करने वाले तथाकथित साहित्यकार बनाम राजनीतिक विमर्श का
निराकरण कतई होने नहीं देना चाहते हैं... ठीक उसी प्रकार जैसे अल्पसंख्यकों के
रहनुमा अक्सर चुनाव क़रीब आने के समय मज़हब या जाति के नाम पर आसानी से बिक जाया
करते हैं... ऐसे रहनुमा मज़हब की समस्याओं को भुनाकर अपनी रोटी आसानी से सेंकना
चाहते हैं... यदि इन समस्याओं का निराकरण करने वाला अगर कोई रहनुमा या प्रतिनिधि (जो
कूटनीतिक और अवसरवादी न हो) नि:स्वार्थ या अनायास प्रकट होकर सामने आ भी जाय तो वे तथाकथित धर्मों के ठेकेदार एक साथ मिलते हुए
आपसी विरोधों को भुलाकर उसे रास्ते से हटा देने में ही अपनी भलाई समझते हैं...
जिसके कारण उस हाशिए के समाज की समस्याएं हमेशा-हमेशा के लिए पूर्ववत बनी रहती
है... ठीक उसी तरह साहित्य में आज विमर्श केवल स्वांग रचने के लिए स्थापित किए
जाते रहे :हैं... ताकि उस वर्ग-विशेष की दयनीय स्थिति को भोग कर तथाकथित विमर्श के
नाम पर जीवनपर्यंत मलाई और दलाली खायी जा सकें।
आज विमर्शों के बहाने कई तरह से पूर्वाग्रहों
पर आश्रित हथकंडे और राजनीति की जा रही है... निरापद सिद्धांतों और वादों को
ज़बरदस्ती थोपने का कार्य किया जा रहा हैं... आज विमर्शों की पार्श्व में कहीं भी
बौद्धिकता या विवेक नज़र नहीं आ रहा, बल्कि ऐसा लगता है कि विमर्श को लेकर दिमागी
कसरत का आखाड़ा बनाया जाने लगा हैं... विमर्श आपस में युद्ध की पूर्व तैयारी का
सूचक हो गए हैं... विमर्श के अस्तित्व को जीवंत बनाए रखने के लिए आधारभूमि के रूप
में विमर्श-मठ स्थापित किए जा रहे हैं... जहाँ विमर्श की धार को अधिक तीक्ष्ण बनाया
जा सकें... ज़ाहिर है जब मठ होगे तो मठाधीश ख़ुद अवतरित होगे... ऐसी स्थिति में
विमर्श केवल स्वांत: सुखाय और स्वार्थ सिद्धि के प्रयोजन से परे कुछ नहीं...
आश्चर्य है कि विमर्श जिस वर्ग, समाज, विषय, समस्या या विचार को लेकर प्रारंभ हुआ
वही वर्ग विमर्श के केंद्र से नदारद है... केवल विमर्श की राजनीति करनेवाले
प्रबुद्ध साहित्यकारों ने जितना विमर्श शब्द का इस्तेमाल कर, साहित्य के साथ
कुठाराघात किया है, शायद ही उतना किसी ने किया हो और यह सब-कुछ विमर्श के नाम
पर...।
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ये लेखक के अपने विचार हैं, जिससे सहमत-असहमत हुआ जा सकता है। (संपादक-सर्वहारा)
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ये लेखक के अपने विचार हैं, जिससे सहमत-असहमत हुआ जा सकता है। (संपादक-सर्वहारा)