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अबके मौसम में जो गिरा है शजर।
कितने पंछियों का उजड़ा है घर।
अब जंगल में नहीं बसते हैं साँप,
यहाँ जबसे बसने लगा है शहर।
उसकी ज़िन्दगी में भूख,प्यास थी,
मिटाने को उसे मारता है हुनर।
वतन की बुलंदी गिनाती सियासत,
पता नहीं ग़रीबों की कैसी है बसर।
तमाशाबीं देखते हैं तड़पते शख्स को,
'तन्हा' भूख से मरता है सड़क पर ।

ग़ज़ल-2
जिसकी आवाज़ है आज़ान सी।
क्यों इक सूरत है अनजान सी।
रोज़ अस्मत लुटती बाजारों में,
रहती हैं बेटियाँ परेशान सी।
आँगन में आई तो शक्ल दिखी,
माँ हो गई है घर के सामान सी।
ज़िंदा लाशों के बीच रहते हैं हम,
बस्तियाँ बन गईं कब्रस्तान सी।
हो जाती फ़नाह कबकी दुनिया,
कोई चीज़ बची है ईमान सी।
रिश्तों की तिजारत की सौदागिरी,
दुल्हन सजती है इक दुकान सी।
'तन्हा' इल्तिजा करता ही गया,
कोई बात तो करो इन्सान सी ।