डॉ. प्रवीण चंद्र बिष्ट |
बिखरते संबंध
आज मेरे सामने बार-बार एक प्रश्न खड़ा होता है।
विश्वासों की नींव पर खड़े रिश्ते,
क्यों बिखरने के लिए बेताब दिखते हैं,
क्या इस बिखराव के पीछे आपको
कोई अतृप्त इच्छा की बू नहीं आती ?
और आज के औद्यौगीकरण के दौर में
बाजार की चकाचौंध को घर में समेट पाना,
सामान्य व मध्य वर्ग के लिए टेड़ी खीर नहीं है ?
लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं कि
तुम किसी भी कीमत पर औरों से
अपनों के विश्वास का गला घोंटकर,
जो दिलों जान से चाहता है तुम्हें
जिसने अपनी इंद्रियों को नियंत्रित रखने के लिए,
अपने आप को रात-दिन व्यस्त रखा है,
क्या उसके साथ यह विश्वासघात नहीं ?
आपने कभी सोचा भी है कि
औरों के साथ अकेले में बिताए
ये क्षणिक खुशी के पल
आपके सम्पूर्ण जीवन की खुशियों पर सेंध लगा सकती हैं,
माना की आज संपर्क साधने के लिए
जन-संचार जैसा सशक्त माध्यम हमारे बीच है,
जो हमारे शैतानी दिमाग को
मर्यादाओं को लांघने के लिए विवश करता है
और यदि हम इसके शिकार हो गए तो
आपनों का विश्वास छूट जाता है, प्रेम रूठ जाता है
यदि कुछ बचता है तो वह है,
अकेलापन, क्षत-विक्षत प्रेम और ग्लानि भरी मायूसी ।
अथवा सदा अपनों का साथ छूटने का भय ।
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संपर्क-
डॉ. प्रवीण चंद्र बिष्ट
अध्यक्ष, हिन्दी विभाग
रामनारायण
रुइया महाविद्यालय
माटुंगा, मुम्बई
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