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'सर्वहारा' में हिन्दी भाषा और देवनागरी लिपि में साहित्य की किसी भी विधा जैसे- कहानी, निबंध, आलेख, शोधालेख, संस्मरण, आत्मकथ्य, आलोचना, यात्रा-वृत्त, कविता, ग़ज़ल, दोहे, हाइकू इत्यादि का प्रकाशन किया जाता है।

गुरुवार, 27 फ़रवरी 2014

कविता

भूख और सौदा

पिलाती है जब कुतिया दूध                     
अपने पिल्लों को
तब मुझे चिंता नहीं होती है 
क्योंकि उनके लिए दूध
रिस रहा है कुतिया की छाती से,
किसी कंपनी के पैकेट में बंद
किसी दुकान से
नहीं खरीदा जा रहा है !
अच्छा है कुतिया के लिए कि
वह दूध नहीं खरीदती है
और भी अच्छा यह है कि
उसे दूध का आज का भाव नहीं पता !
दूध का भाव तो
भैंसों और गायों को भी नहीं मालूम,

वरना या तो वह अपना दूध
बढ़ा देतीं या घटा देतीं ।
दूध का भाव तो उस बच्चे को भी नहीं पता
जो ग़रीब के घर पर पैदा हुआ है
जिसकी माँ की दूध शिराओं में
इतना दूध नहीं कि
पिला सके उसे भरपेट !
उसके पास इतना भी दूध नहीं
कि शिव लिंग पर चढ़ाकर
उनसे बदले में दोगुना दूध माँग ले ।
ग़रीब का बच्चा
अपनी माँ की छाती का
लटका हिस्सा अब केवल
चुसनी की तरह चूस कर
परेशान होकर सो जाता है ।
उसे नहीं पता कि
उसके मुँह में दूध क्यों नहीं आरहा है,
दूध किस जगह सुखा दिया गया है
और किस जगह बन रहा है, बह रहा है !  

मुझे तो इस श्वेत क्रान्ति में
साज़िश की एक बू आती है
जिस तरह सफ़ेद को काला किया जा रहा है,
यह किसी अंधकार से कम नहीं
अब काले दास्तान पहनकर
दूध की दलाली का व्यापार
किया जा रहा है
या दूध की दलाली में
हाथों को सफ़ेद रंगा जा रहा है ।
सरकार को पता है
लोगों की जेबों में पैसा है
जब मरने लगेंगे तो जेब का पैसा
झाड़ ही देंगे आख़िर
बस देश का अर्थशास्त्र न गड़बड़ाए,
भले ही बच्चों की भूख का सौदा हो जाए ।
दलालों ने सरकार के मुँह में
सम्पत्ति का थन ठूँस दिया है
सरकार बड़े मज़े से थन चूस रही है
और उबासी लेते समय कह रही है
हमारा देश विकास कर रहा है !
हम आने वाले वर्षों में,
विश्व की महाशक्ति होंगे !
भूख और शक्ति का यह
नया समीकरण और सूत्र
अखबारोंटी. वी. के समाचारों
और अफ़वाहों से
हमारे बीच
इस तरह धँस गया है
जैसे अन्धे के भीतर
कोई काल्पनिक संसार बन जाता है !

डॉ. मोहसिन ख़ान  
अलीबाग (महाराष्ट्र)

09860657970

रविवार, 23 फ़रवरी 2014

ग़ज़ल

वो सवालों से हालात को उलझाते जा रहे हैं।
हम जवाबों से बात  को सुलझाते  जा रहे हैं।

यूँ तो  हममें  ऐब बहोत  हैं पर  क्या  करें।
आईना  उन्हें  बार  बार दिखाते जा रहे हैं।

उनकी  बेहयाई  पे  उनको ग़ुरूर  बहोत,
हम अपनी  ग़ैरत  को  बचाते जा रहे हैं।

दफ़नाकर बाप को कब्रस्तान से आते ही,
भाई अपना हक़ घर पे जताते जा रहे हैं।

बड़े ओहदेदारों की महफ़िलों में आकर,
पल पल पर ज़िल्लत उठाते जा रहे हैं।

कभी शै कभी मात और बिगड़ते हालात,
यूँ ज़िन्दगी से रिश्ता  निभाते जा रहे हैं।

देखकर इस शहर की इबादतगाहों को,
हम ज़ात अपनी सबसे छुपाते जा रहे हैं।

'तन्हा' बाँटकर नेकियाँ, गुनाह ख़रीदता है,
लोग शख्सियत का अंदाज़ा लगाते जा रहे हैं।

                     मोहसिन 'तन्हा'

सोमवार, 17 फ़रवरी 2014

ग़ज़ल


यहाँ इन्सान की कब आदत बदली है।
ये दुनिया अब भी उतनी जंगली है।

आवाज़ भी और अल्फाज़ भी हैं पास,
हर किसी ने बातों में आग उगली है।

लगाकर मुखौटा पहना है जो लिबास,
तुम्हारे अन्दर का आदमी नक़ली है।

जब कोई यूँ पेश आए बेबाकी से यारों,
तो समझो उसी की बात असली है।

न खींचो इस तरह अक्सर टूटती है,
ये ऐतबार की डोर ज़रा पतली है।


मोहसिन 'तन्हा'
अलीबाग - महाराष्ट्र
09860657970

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देकर  कई ऑफ़र  लुभाने  आगए।
साज़िशों में अपनी फँसाने आगए।

ये सब पुराना,ये नहीं तुम्हारे पास,
उजड़े हुए घर को दिखाने आगए।


क्यों न  दमकेगा चेहरा  तुम्हारा,
लेकर नया प्रोडक्ट सजाने आगए।

दिलाते हैं एहसास तुम थे पिछड़े,
मार्फ़त हमारे दिन सुहाने आगए।

ज़िन्दगी और दुनिया हमने बदली,
घर-घर एहसान  जताने  आगए।

कहा हमसे रहबर हैं ठग कोई नहीं,
चलो इन राहों पे नए ज़माने आगए।

फिर रहे कई पोशाकों में सजे-धजे,
बेहरूपिये  रुपये  चुराने  आगए।

पड़ोसी की शक्ल में ऐजेंट निकला,
मोहल्ले में लोग  सयाने  आगए।

'तन्हा' निकला हूँ जब भी बाज़ारों से,
दो-चार नौजवान गिड़गिड़ाने आगए।


                मोहसिन 'तन्हा'

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जबसे जेब में सिक्कों की खनक है।
तबसे उसके रवैये में कुछ फ़रक़ है।

चेहरा बदल रहा है लिबासों की तरह,
आँखों में न जाने कौनसी चमक है।

ये करवटें नहीं तड़प है मेरे दर्द की,
अन्दर ज़माने पहले की कसक है।

रौशनी का मंज़र ख़ुशगवार लगा होगा,
हवाएँ ही जानें लपटों में कैसी दहक है।

'तन्हा' न होगा कभी एहसान फ़रामोश,
ख़ून में मेरे मिला हुआ जो तेरा नमक है।


               मोहसिन 'तन्हा'

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बेअसरों पे कितना असर कर रहे हैं।
क्यों यहाँ लोग इतना ग़दर कर रहे हैं।

मेरी मंजिल मेरे ख़्वाब के साथ टूटी,
पाँव मेरे अब भी सफ़र कर रहे हैं।

पीकर शरबतों को प्यास ही दे गए,
फ़िर क्यों जाम मेरी नज़र कर रहे हैं।

अब जो होना है सो होगा कहते जाते हैं,
वो दिल में फ़िर भी फ़िकर कर रहे हैं।

चाहा तो बहोत था तेवर बाग़ी ही रहें,
दो रोटी के डर में बसर कर रहे हैं।

'तन्हा' को न देखो यूँ हैरत से यारों,
आँखों को अपनी समंदर कर रहे हैं।


                  मोहसिन 'तन्हा'

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ख़ाबों पर तू न ऐतबार कर।
हक़ीक़त से न इनकार कर।

जब निकल पड़ा सफ़र पर,
तो इरादों को न बीमार कर।

मिट जाएँगी मुश्किलें भी तेरी,
हौसलों को न बेक़रार कर।

होगी कब तलक नई सहर,
चलता रह न इंतज़ार कर।

क्या मिला जंगों से अबतक,
फिर यूँ जमा न हथियार कर।

'तन्हा' दर्द सारे पहलू में छुपा,
यूँ अश्कों  से न इज़हार  कर।


       मोहसिन 'तन्हा'

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हरेक शख्स की गंदी नज़र पहचानता हूँ।
रोज़ भटकता हूँ सारा नगर पहचानता हूँ।

जिन राहों से गुज़रा हूँ मंजिल की तलाश में,
तमाम ख़ार और पत्थर पहचानता हूँ।

आज पैरों पे खड़ा हूँ तो सब साथ आगए,
कल जहाँ लगी थी वो ठोकर पहचानता हूँ।

मुझको पता न दो कॉलोनी के मकान का,
बस फुटपात पर बने घर पहचानता हूँ।

मिला दिया ज़हर हर चीज़ में चालाकी से,
कैसे ख़रीदूँ मैं इनका असर पहचानता हूँ।

डूबा हूँ गहराइयों में बिना किसी खौफ़ के,
मौजों से क्या डरूं समंदर पहचानता हूँ।


                मोहसिन 'तन्हा'

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जिस पर फ़िदा मैं करदूं अपनी जान।
कोई और नहीं वो है मेरा हिन्दुस्तान।

सरज़मीं पे मेरी फ़क्र क्यों न हो मुझे,
हिमालय,गंगा,समन्दर और है रेगिस्तान।

पाक़ फ़िज़ाओं में घुल जाती एक महक
जब बजती हैं घंटियाँ होती है अज़ान।

मज़हब की न यहाँ कोई पहरेदारी होती,
सभी के ग्रन्थ,बाइबल,गीता और क़ुरान।

तहज़ीबों के संगम का कैसा अनौखा रूप,
मन की बात एक बोलें हज़ार ज़ुबान।


                 मोहसिन 'तन्हा'

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कभी बसता था जो हमारे ही घरानों में।
वो फ़न  आज  बिक  रहा है  दुकानों में।

पहुँचे थे बुलन्दियों पर ख़ुद के हुनर से,
अब फिसल रहे हैं निचली ढलानों में।

दलालों ने हक़ उसका यूँ झपट लिया,
जैसे चील चूज़ा ले उड़े आसमानों में।


रूबरू  उसे न  पता  चला  फ़न का सौदा,
ऊँचे दामों में बिका विलायती ज़ुबानों में।

ताखों या संदुकों में धूल में दफ़्न पड़े हैं,
तमग़े जो मिले थे उसे 
गए ज़मानों में।

तन्हाहुनर मारता रहा भूख मारने को,
वो अब  काम  करता  है  कारख़ानों  में।  

                   मोहसिन 'तन्हा'