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सोमवार, 19 जून 2023

आक्षेपों के उत्तर में शायर राहत इंदौरी

 

आक्षेपों के उत्तर में शायर राहत इंदौरी

ये न पता था राहत साहब हम सब को छोड़कर इतनी जल्दी हमारे बीच से चले जाएंगे, हम सब बेहद गमगीन हैं उनके इस तरह चले जाने से। एक सदमा लगा है पूरे उर्दू अदब को, साथ ही भारतीय भाषा की कविता को। ये लेख लिखा तो था उनपर लग रहे आक्षेपों के निवारण के लिए, लेकिन अब श्रद्धांजलि स्वरूप उनको समर्पित मेरे कुछ शब्द सुमन हैं जो आपके सामने हैं। तथाकथित आलोचक, कवि सुशील कुमार के एक  लेख- जनपक्षधरता बनाम सांप्रदायिक जोश के उत्तर में लेख है। सुशील कुमार यह लेख @ दुनिया इन दिनों, वर्ष 4 अंक 9-10 में नवंबर 2019 में खरी-खरी कॉलम में प्रकाशित हुआ था। इस लेख ने कई तरह से राहत इंदौरी पर आक्षेपों को लगते हुए शायर की धारणाओं के विगलन, विचलन को प्रमुखता दी और गलत तरीके से शायर की, शायरी का मनचाहा अर्थ ग्रहण करते हुए जातीय समीकरण का शायर सिद्ध करने का असफल प्रयास किया है। उनकी शायरी को धूमिल किया गया, जबकि वे तरक्कीपसंद शायरों में शुमार होते हैं। उनकी ग़ज़लें कई सामाजिक यथार्थ की विशेषताओं से युक्त हैं। विद्रोह का स्वर रखती हैं, व्यवस्था परिवर्तन की माँग करती हैं, वतनपरसती की बात करती हैं जज़्बा रखती हैं, मज़लूमों के हक़ में खड़े रहने की ताक़त देती हैं, वे परंपरा को तोड़ते हुए नए मानवीय मूल्यों को गढ़ती हैं, उनकी गज़लें हाशिये के समाज के मुद्दों को उठाती हैं और बहस-जिरह करती हैं। लेकिन अफसोस ये है कि उनकी ग़ज़ल की ख़ूबियों को एजेंडे के तहत नज़रअंदाज़ कर उनपर और उनकी शायरी पर लगातार हमला बोला जाता रहा है। वे इस हमले पर कुछ प्रतिक्रिया दिये बगैर अलविदा कह गए, लेकिन हम लोगों पर एक अनकहा दायित्व भी छोड़ गए हैं, जिसको पूरा करना अब आज इस वक़्त बेहद ज़रूरी सा लगता है।  

          जब समय समाज और सत्ता बदल जाती है तो अच्छे-अच्छों के स्वर भी बदल जाते हैं, क्योंकि इसके पीछे की सारी सच्चाई यह रहती है कि जो कल तक जो चुप्पी साधे थे, बात सोच रहे थे, लेकिन प्रहार करने के समय की प्रतीक्षा में थे, वह अब आज स्वार्थ साधने में लग गए हैं, ताकि उनका कोई न कोई काम बन सके, किसी भी तरह से लाभ प्राप्त हो जाए और वह भी समय के बदलाव के साथ सत्ता के एकांगी समर्थन में जुट गए हैं। अपनी वफादारी सिद्ध करने के लिए, अपना स्थान सुनिश्चित करने के लिए तरह-तरह की एजेंडे या मानसिक दोष या नफरत से भरे होने के कारण कवायद करने लगे हैं। ये कवायद खतरनाक ही नहीं, बल्कि पीढ़ियों को नफ़रत में धकेलने वाली है और असहिष्णुता के समाज की रचना करने वाली है। इस कवायद मैं जहां एक और किसी ख़ास दृष्टि से किसी ख़ास व्यक्ति अथवा समुदाय को निशाना बनाया जाता है, उसमें बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया जाता है और फिर एक निश्चित उद्देश्य के साथ निशाना साधा जाता है, भले ही निशाना साधने से पहले उसने कभी पहले न तो तीर-कमान पकड़ी हो और न ही बंदूक चलाने का अनुभव हो। बस निशाना साधने में लग जाता है और इस निशाने साधने में वह जिसे टारगेट करता है उसके आसपास ज्यादा तीर और गोलियों की बौछार होती है, टारगेट पर कम ही लग पाती है। इसे अब आज के समय में, आज की भाषा में, डिजिटल युग में एक नया नाम दिया जाने लगा है, जिसे ट्रोल करना कहा जाता है। ये एक तरह की लिंचिंग भी काही जा सकती है, जिसमें उसे भौतिक रूप में मारा नहीं जाता, बल्कि उसकी विचारधारा की हत्या कि जाती है, एक अप्रत्यक्ष हत्या भी कह दिया जाए तो गलत नहीं। आज कोई भी शख़्स फेसबुक, ट्विटर इत्यादि डिजिटल माध्यमों पर बड़ी आसानी से ट्रोल कर दिए जा रहे हैं और ख़ासकर ये अप्रत्यक्ष हत्या बहुत बढ़ावे के साथ सामुदायिक प्रवृत्ति से ग्रसित हो रही है, जैसे कि टिड्डी दल। जब टिड्डी दल को पर्याप्त मात्रा में खुराक मिल जाती है तो वह समूहों में फसल चट कर जाती हैं, ठीक वैसे ही आज सामुदायिक ट्रोल प्रवृत्ति का समय आ चुका है। आज ट्रोल वो हो रहे है हैं जो सत्ता के विरुद्ध खड़े हैं, प्रश्न कर रहे हैं, किसी संस्कृतिक युद्ध के भागीदार नहीं, किसी सामुदायिक प्रवृत्ति से दूर हैं, जो वास्तव में अंधी भीड़ का हिस्सा नहीं, जो खुद की आइडेंटीटी रखते हैं। वे बहुत अधिक मात्रा में ट्रो लकिए जाते हैं जो प्रसिद्ध हैं, लेकिन जो छद्म राष्ट्रवाद के निश्चित सांचे से अलग अपनी भूमि पर खड़े हुए दिखाई दे रहे हैं, जो दक्षिणपंथी नहीं हैं, जो विचारशील हैं उन्हें घेरा जा रहा है और जन-चौक पर घसीटकर लाया जा रहा है तथा तरह-तरह के आरोप-प्रत्यारोप सिद्ध किए जा रहे हैं। ट्रोल में बहुत से नेता, अभिनेता, समाज-सेवक, इतिहासकार, लेखक और शायर शुमार हैं, जिन्हें लगातार ट्रोल का सामना करना पड़ रहा है। केवल व्यक्तिगत रूप से ही ट्रोल नहीं किए जा रहे हैं, बल्कि उनके फ़न, हुनर और लेखकीय कर्म को लेकर भी बड़ी मात्रा में ट्रोल किया जा रहा है। ऐसे ट्रोल समय में जब लेखक और शायर बंट चुके हैं तो बांटे हुए शायरों में जो उस तरफ धकेल दिए गए हैं या उन्हें उस तरफ का मान लिया गया है। उन्हीं को एक ख़ास तरीके से टारगेट करके उनके लेखकीय-कर्म और लेखन को असंतुलित, अभद्र अहंवादी, सांप्रदायिक, अस्तरीय और उन्मादी करार दे दिया जा रहा है। आलोचकों द्वारा उनकी उन रचनाओं को मनचाहा कोड किया जा रहा है, जिनमें उन्हें थोड़ा बहुत घुसकर अपनी बेतुकी बात रखने का छद्म अवसर मिल जाता है। ऐसे लेखकों और शायरों को जातीय समीकरण में लपेटकर, उन्हें विशेष वर्ग का प्रतिनिधित्व बनाकर उन पर, उनके लेखन पर लगातार प्रहार किया जा रहा है और यह कोशिश की जा रही है कि इस प्रकार के लेखक समाज, देश हित में न लिखकर सांप्रदायिक हित में लिखने लगे हैं और नफरत, असहिष्णुता, असामाजिकता तथा असंतुलन को बढ़ावा देने में लगे हैं।

          ऐसे आक्षेप पिछले कई महीनों से ग़ज़लों की दुनिया के प्रसिद्ध शायर डॉ. राहत इंदौरी पर निरंतर लगाए जा रहे हैं और सिद्ध किया जा रहा है कि यह शायर जातीय-चेतना से बंधा हुआ एक शायर है जो अहंवादी है, जो असंतुलित शायरी करता है, जो सांप्रदायिकता को बढ़ावा देता है, कौमी एकता की जगह धार्मिकता, समुदायिकता को केंद्र में रखकर चलता है। जो चारण आलोचक अपने आलोचकीय दायित्व से भटक चुके हैं, वे इन दिनों राहत इंदौरी को ट्रोल करने में लगे हुए हैं। वास्तव में यह ट्रोल अपने दक्षिणपंथी रवैये के कारण, एक खास रंग के चश्मे के कारण, अपनी विचारधारा के कारण ऐसा करने का दायित्व अपने ऊपर ले बैठे हैं, जिससे टूटन के सिवा कुछ न निर्माण हो सकेगा। वे ऐसा इसलिए जानकार कर रहे हैं, क्योंकि उन्हें पता है कि राहत इंदौरी प्रतिपक्ष का मुस्लिम शायर है और यदि राहत इंदौरी की धारणाओं को तोड़ा न गया तो यह धारणा सारे लोक में पुख्ता रूप न ले ले। इसलिए अब दक्षिणपंथी लेखकों, आलोचकों द्वारा धारणाओं में विचलन पैदा करने की कोशिश लगातार की जा रही है और इस कोशिश में व्हाट्सऐप यूनिवर्सिटी के माध्यम से धारणाओं का विचलन पैदा करके पाठकों, श्रोताओं की धारणाओं को विशेष रंग में रंग दिया जाता है और फिर लेखक को कटघरे में खड़ा करके नफ़रतों के पत्थरों से ज़ख़्मी कर दिया जाता है यही तो ट्रोल की लिंचिंग है। डॉ. राहत इंदौरी के साथ भी इसी प्रकार का ट्रोल लिंचिंग निरंतर जारी है। जहां उनकी शायरी को लेकर लोगों के बीच बड़ा विचलन पैदा किया जा रहा है, अनर्थ चस्पा किया जा रहा है और दक्षिणपंथी सोच को मजबूत करते हुए सेकुलर सोच को कमजोर किया जा रहा है। आज सेकुलरिज़्म, मार्क्सवाद दक्षिणपंथियों के लिए एक चुनौती बनी हुई है, वह सेकुलरिज्म और मार्क्सवाद को अस्वीकार करते हैं, इसीलिए इन दो शब्दों को आज गाली देने के फैशन में इस्तेमाल किया जा रहा है। सेकुलरिज्म और मार्क्सवाद का विरोध इन दिनों सामुदायिक होकर सामने आया है और दक्षिणपंथी सोच अथवा विचारधारा को धार्मिक, सांस्कृतिक जामा पहनाकर प्रतिपक्ष की सोच को, उस विचारधारा को समाज के लिए घातक सिद्ध किया जा रहा है। जो दक्षिणपंथी ख़ेमे में से जुड़ा हुआ है वह सबसे बड़ा वफादार और सशक्त छद्म राष्ट्रवादी नागरिक मान लिया जाता है, जो छद्म-राष्ट्रवाद के निश्चित सांचे में ढला हुआ है। भले ही वह अपने व्यक्तिगत जीवन में कितना ही भ्रष्ट, कितना ही असहिष्णु, हिंसक, अनुदार, और कितना ही नफरत से भरा हुआ हो उसे सही स्वीकार करते हुए भी उसके प्रति कितना ही समर्थन जुटा लिया जाता है। जबकि वास्तविकता तो यह है कि दक्षिणपंथियों की वैचारिक असंगतियों और सांस्कृतिक हठधर्मिता को वह पहचानता भी नहीं और उनकी सोच को वह एक संस्कृतिक विशेषता मानकर ओढ़ लेता है तथा वह वैसी ही नारेबाजी करने के लिए उद्यत हो जाता है, जैसे कि आजकल सड़कों पर नारेबाजी की जा रही है।

         दक्षिणपंथियों द्वारा इन दिनों राहत इंदौरी को एक छद्म शायर माना जा रहा है, साथ ही उन्हें लोभी, लालची और डिप्लोमेटिक विचारधारा का शायर माना जा रहा है। डिप्लोमेटिक इसलिए माना जा रहा है कि वह अपनी शायरी में एक तरफ तो मुसलमानों की हिमायती कर जाते हैं, कौमी एकता की जगह सांप्रदायिकता को बढ़ावा देते हैं। दूसरा इसलिए भी डिप्लोमेटिक मान लिया गया है कि वह साथ ही साथ देशभक्ति की भी कहीं न कहीं थोड़ी बहुत बात कर जाते हैं, लेकिन उन्हें इन दिनों मुस्लिम समुदाय का एक प्रतिनिधि शायर मानकर, इस्लाम पर फक्र करने वाला तथा दूसरे धर्मों के प्रति असहिष्णु बर्ताव रखने वाला शायर सिद्ध करने की भरपूर कोशिश की जा रही है और उन्हें उनके उनकी एक ग़ज़ल के एक शेर पर बहुत ज्यादा ट्रोल किया गया जिसमें वह कहते हैं कि- सभी का ख़ून शामिल हैं यहाँ की मिट्टी में, किसी के बाप का हिंदुस्तान थोड़ी है। ये जो शहरियत का दावा है, आज़ादी के लिए दी गयी मुस्लिम शहादतें हैं उन सबसे नाइत्तेफकी दक्षिणपंथी आलोचक दर्शाना चाहते हैं। इसके अतिरिक्त और भी उनकी ऐसी ग़ज़ल की पंक्तियों को खोजकर लाया जाता है, जहां वे लोग जो दक्षिणपंथी हैं आसानी से प्रवेश कर जाते हैं और उन पंक्तियों का मनमाफिक गलत अर्थ निकालकर लोक में प्रसारित कर दिया जाता है। राहत इंदौरी को छद्म, जातीय क्लासिक शायर भी कहा जाने लगा है और उन्हें एक खास समुदाय से प्रेरित मानकर उन पर मुस्लिम होने का मूलम्मा जड़ दिया गया है। जबकि मुझे लगता है कि हर लेखक हर शायर लगभग तटस्थ होकर, या बचाव पक्ष में, बेबाक होकर, बिना किसी झुकाव के, बिना दबाव के, बिना किसी जातीय अस्मिता और गौरव-रक्षा के अपनी बात रखने में स्वतंत्र होता है और यही बात डॉक्टर राहत इंदौरी के साथ भी है। जहां वे उन मौलवियों को भी आड़े हाथ लेते हैं जो उनकी दृष्टि में निहायत गलत सिद्ध हो रहे हैं, लेकिन दक्षिणपंथी विचारधारा के उन आलोचकों को वह पंक्तियां कभी नजर नहीं आती हैं और नजर आती भी हैं तो उन्हें नजरअंदाज कर दिया जाता है और यह सिद्ध किया जाता है कि पूरे हिंदुस्तान का शायर न होकर वह हिंदुस्तान में बसी उस मुस्लिम संस्कृति, विचारधारा, इस्लामिक सोच का शायर है जो अपनी जातीय संस्कृति को बढ़ावा दे रहा है और असहिष्णुता, असंतुलन समाज में पैदा कर रहा है। वास्तव में डॉ. राहत इंदौरी को मुसलमान शायर होने का ठप्पा बार-बार लगाया जा रहा है, लेकिन इस ठप्पे की स्याही अभी इतनी काली, पक्की और गाढ़ी नहीं है कि यह ठप्पा सदैव के लिए उनकी शायरी पर लगाया जा सके। वरना वे ये न लिखते- ए वतन इक रोज़ तेरी ख़ाक में खो जाएँगे, सो जाएँगे मरके भी रिश्ता नहीं टूटेगा हिन्दुस्तान से, ईमान से या जब मै मर जाउ तो मेरी अलग पहचान लिख देना, खून से मेरे माथे पे हिन्दुस्तान लिख देना। यदि दक्षिणपंथी विचारधारा के आलोचक इस प्रकार की ट्रोल व्यवस्था के टूल के माध्यम से डॉ. राहत इंदौरी को एक खास वर्ग का शायर बनाकर शायरी के धरातल से बेदखल करने की साजिश रचते हैं तो उन्हें इतना अवश्य सोचना चाहिए कि डॉ. राहत इंदौरी की शायरी की जड़ें बहुत गहरी हैं जो बहुत दूर तक एक सहिष्णु, उदार और समन्वयी समाज की भूमि तक फैली हुई हैं। डॉ. राहत इंदौरी के लेखन और शायरी को किसी भी तरह से ट्रोल करके उसे दोष युक्त बताकर खास विचारधारा और जातीय संस्कृति की बताकर हाशिए पर धकेलने का काम में जितनी ऊर्जा बर्बाद की जा रही है, इससे बेहतर है कि ऐसे आलोचक कुछ और लेखक की सतकर्मों में लगे रहें ताकि उनका अपना भी वक्त बर्बाद न हो और समाज को वे कुछ दे पाएँ। डॉ. राहत इंदौरी किस शायरी के बरक्स उन शायरों को या उन लेखकों को खींचकर खड़ा किया जा रहा है जो या तो थोड़ी बहुत दक्षिणपंथी विचारधारा की बात का समर्थन कर गए, या गंगा-जमुनी की तहज़ीब वाले शायर रहे हों या उनकी शायरी में दक्षिणपंथियों को अपने विचारधारा की एक पुख्ता झलक दिखाई देने लगी हो। राहत इंदौरी के प्रतिपक्ष में कोई बड़ा शायर खोजकर लाने में दक्षिणपंथी विचारधारा के आलोचक सफल नहीं हो पा रहे हैं, इसलिए वे तरह-तरह के शायरों से तुलना करते हुए हिंदी के कवियों से तुलना करते हुए, डॉ. राहत इंदौरी को असहिष्णु, असंतुलित और प्रतिक्रियावादी शायर के रूप में चित्रित करने में लग जाते हैं और अंत में उनके हाथ में धूल आती है। वह दक्षिणपंथी विचारधारा के जातीय, सांस्कृतिक वैचारिक युद्ध को एक नया चेहरा नहीं दे पाते हैं और इसके एवज़ में वह राहत इंदौरी के लेखक-कर्म और शायरी को छद्म, असंतुलित करार दे दिया जाते हैं। मेरा यह भी मानना है कि राहत इंदौरी से उन शायरों लेखकों से तुलना क्यों की जा रही है, जो अलग-अलग शहरों में रहकर; अलग-अलग स्थितियों में पले-बड़े, अलग-अलग वैचारिक स्थितियां लिए हुए हैं और आपसी तुलना करके बताया जाता है कि अमुक लेखक अपने लेखन में बहुत सही, संतुलित और सहिष्णु है तथा डॉ. राहत इंदौरी की ग़ज़लें इनके आगे कुछ भी नहीं, बल्कि एक जातीय समीकरण को प्रस्तुत करने वाली, झूठी शोहरत बटोरने वाली ग़ज़लें हैं जो एक समुदायिकता के दायरे में है।

          डॉ. राहत इंदौरी की ग़ज़लों की शैली को लेकर भी बहुत कुछ ट्रोल किया गया कि उनकी ग़ज़लें मात्र मंचीय ग़ज़लें हैं जो मंच पर केवल चिल्लाहट पैदा करती हैं और ऐसी शैली बेकाम की शैली है, लेकिन इन दक्षिणपंथी आलोचकों के यह समझ में नहीं आया कि कौन सा अशआर, किस समय में, किस वज़न के साथ पढ़ा जाना चाहिए और उसका ध्वन्यात्मक प्रभाव किस हद तक शायरी को और भी जोरदार बना जाता है। डॉ. राहत इंदौरी पर बार-बार आक्षेप लगाया जाता है कि वह ग़ज़ल चिल्लाकर पढ़ते हैं, जिससे दर्शकों, श्रोताओं में दबाव बन जाता है और शायरी में गंभीरता की जगह मंचीयता, भोंडापन बढ़ जाता है। इस तरह की शैली का इस्तेमाल जब डॉ. राहत इंदौरी करते हैं तो यह अकेली एक बेहूदा शैली बन जाती है। मेरा ऐसा मानना है कि हर शायर की अदायगी, अपने नेचर पर डिपेंड रहती है और वह अपनी बात को किस तरह से असरदार, ज़ोरदार और वज़नदार रूप में रखें यह वह खुद ही निश्चित करता है, किसी के बताने या निश्चित तौर पर बंधे-बंधाए स्टाइल में रखने के लिए कोई भी शायर बाध्य नहीं होता है। बात मंच की आगई तो दर्शकों को या श्रोताओं को भी भुला नहीं जाता है। दक्षिणपंथी विचारधारा के आलोचकों द्वारा यह आक्षेप लगाया गया है कि राहत इंदौरी के समस्त श्रोता, दर्शक एक खास समुदाय से जुड़े हुए हैं जो मुस्लिम समुदाय है, उन्हीं का प्रतिनिधित्व राहत इंदौरी कर रहे हैं और ऐसे प्रतिनिधित्व में जितने भी श्रोता हैं वह एक ही कौम से हैं और वह सारे के सारे जाहिल, गंवार तथा विशेष जातीय समीकरण से जुड़े हुए हैं। तो मेरा इस पर कहना है कि जितना राहत साहब ने भारत में मंचो पर पढ़ा है उतना ही विदेशों में भी उन्होंने अपनी शायरी को पड़ा है, लाल क़ीले से भी पढ़ा है और ऐसी शायरी को सुनने वाले कई बार सरकारी व गैर सरकारी उच्च वर्ग के नागरिक भी शामिल होते हैं, क्या वे सभी जाहिल और जातीय समीकरण से बंधे हुए हैं?

          एक और बड़ा आरोप डॉ. राहत इंदौरी के व्यक्तित्व और उनकी शायरी पर लगाया जाता है कि न तो इनकी ग़ज़लों में कौमी एकता का कोई पक्ष मजबूत है और न ही वह इस पर कभी ज्यादा बल देते हैं। वास्तव में उनका शायर एक छद्म शायर है जो कौमी एकता की बात कम करता है और जातीय समीकरण को लेकर ज्यादा चलता है। जबकि वास्तविकता यह है कि उन्होंने अपनी ही कौम की कई असंतुलित अवस्थाओं पर खुला प्रहार किया है। डॉ. राहत इंदौरी पर एक और आरोप यह भी लगाया जाता है कि उनकी ग़ज़लें अंतर्विरोध से भरी पड़ी हैं। इस पर मेरा मानना है कि कोई भी शायर या कोई भी लेखक अंतर्विरोध से कभी अछूता नहीं रहा है पिछले समय में उसने जो कुछ लिखा है उसके प्रतिपक्ष में भी वह लिखने के लिए स्वतंत्र है और अपने लेखन शायरी को वह बार-बार दुरुस्त भी कर सकता है, लेकिन यह बात दक्षिणपंथी आलोचकों के गले नहीं उतरती है। उनका मानना है कि जो कुछ लिखा जाए वह केवल संतुलित, सधा हुआ, लक्षित और एक दिशा में लिखा हुआ होना चाहिए, जबकि वास्तविकता यह है कि लेखक का मनोविज्ञान, मानसिक अवस्था जिस तरह की होती है और उसे लगता है कि अपने समय समाज के प्रति उसे अपने अलग अंदाज में लिखना है तो वह किसी की परवाह किए बिना लिख जाता है। वैसे भी कवियों को निरंकुश माना जाता है और दक्षिणपंथी विचारधारा अंकुश की बात करके अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता, संप्रेषणीयता के के दायरे को खतरे में लाकर रख देती है। दक्षिणपंथी विचारधारा के आलोचकों ने डॉ. राहत इंदौरी को और उनकी ग़ज़लों को सनकी तक कहा गया है अर्थात उस रुग्ण मानसिकता की अवस्था में रचित ग़ज़लें हैं, जिनमें शायर एक सनक के दायरे में रचने लगता है जो बदले की भावना से रचित है, असहिष्णु है और जातीयता का समावेश करके चलती है। अर्थात ऐसे आलोचकों ने तो सम्पूर्ण रचना-प्रक्रिया पर ही सवालिया निशान लगा दिया है? डॉ. राहत इंदौरी पर यह भी आक्षेप निरंतर लगाया जा रहा है कि उन्होंने उनकी ग़ज़लें वायवी संसार की रचना की है जो यथार्थ की भूमि से अलग एक शायर की सनकी सोच और सामाजिक चेतना से बहुत दूर है। न तो उनकी ग़ज़लों में वर्ग संघर्ष की भावना है और न ही वे इस तरह की अभिव्यक्ति को दर्शाती हैं। राहत इंदौरी की समस्त ग़ज़लें उनके व्यक्तिगत जीवन की अस्त-व्यस्त विचारधारा और छद्म रूप को उजागर करने वाली रचनाएं हैं। मेरा मानना है कि इन आलोचकों ने अभी राहत इंदौरी की रचनाओं का उच्चस्तर पर गहन अध्ययन नहीं किया है जहां गंभीरता है, समाज सापेक्षता है, जहां सारी व्यवस्था के प्रति आक्रोश है, जहां सारी व्यवस्था के प्रति प्रश्नचिन्ह लगा दिया गया है? ऐसे आलोचकों को राहत इंदौरी नामक शायर इसलिए खलने लगा है कि यह शायद अपनी शायरी में प्रश्न पैदा क्यों करता है? क्यों प्रश्नों में सत्ता को खींच लाता है? सारी असम्मति, सारी पीड़ा इन आलोचकों की इसी बात को उजागर करती है।

          इसके अतिरिक्त दक्षिणपंथी आलोचकों द्वारा एक और मुहिम भी बड़े खुले तौर पर चलाई जा रही है जिसमें उर्दू शायरी और हिंदी शायरी को अलग अलग मानकर एक बड़ी खाई पैदा करने की साजिश रची जा रही है। मुस्लिम शायरों और उर्दू शायरी के सापेक्ष में ऐसे लेखकों और शायरों को जुटाया जा रहा है जो हिंदी में रचना कर रहे हैं, जिनमें कहीं कोई चारणपन है उसे वे अपने खेमे में घसीट लाते हैं और फिर उससे उर्दू शायरी खासकर राहत इंदौरी की शायरी से तुलना करने लगते हैं और सिद्ध करने लगते हैं कि उर्दू शायरी जातीय समीकरण की शायरी है जो एक मुस्लिम समुदाय का प्रतिनिधित्व करने वाली शायरी बनकर रह गई है। उसमें किसी भी तरह की जनवादीता का खुलापन और वर्ग चेतना नहीं है, आवाम की शायरी नहीं, बल्कि ऐसी शायरी के ऊपर जो परत चढ़ी हुई है- वह बेईमानी की, असहिष्णुता की और छद्म की परत चढ़ी हुई है। साथ ही साथ यह भी सिद्ध किया जा रहा है कि ऐसी शायरी बेबाक शायरी नहीं, बल्कि अनुशासनहीनता से भरी हुई है जो किसी जातीय संस्कृति की मात्र सनक की उपज है, जिसमें नियंत्रण का अभाव है जो कुछ असंतुलित और अनियंत्रित है, थोड़ी हिंसक है किसी जाति वर्ग समुदाय की तरह।

          एक और आक्षेप भी राहत इंदौरी पर लगाया जाता है कि राहत इंदौरी की समस्त शायरी सांप्रदायिकता से भरी हुई है और यह सांप्रदायिकता अपने हिंसक समाज की वैचारिकता का आकार है, कहीं न कहीं असहिष्णुता की बात करती है और समाज को गुमराह करती है। जबकि वास्तविकता यह है कि कोई भी लेखक अहंवादी होना ही पसंद करता है, लेकिन दक्षिणपंथी आलोचकों को चारण लेखक ही पसंद हैं जिनसे जो चाहे लिखवाया जा सके और गुणगान करवाया जा सके, मन की बात लिखवाने की सहूलियत मिल सके, एजेंडे पर लिखवाया जा सके। इस सांचे में डॉक्टर राहत इंदौरी जब फिट नहीं बैठते हैं तो उन्हें सांप्रदायिक शायर सिद्ध करके असंतुलित शायरी और अंतर्विरोध हो से भरी हुई शायरी का शायर बता दिया जाता है। अब तो उनकी ग़ज़लों को यहां तक कहा जाने लगा है कि उनकी ग़ज़लें न तो लयबद्ध, हैं न ही किसी भी प्रकार का संतुलन है, बल्कि वह अभद्र, संकीर्ण सोचवाली और एक स्लोगन टाइप वाली ग़ज़लें हैं जो अपनी प्रकृति में असंतुलन को पैदा करती है।

          दक्षिणपंथी आलोचकों को एक अपने सांचे में ढला हुआ लेखक और शायर/लेखक चाहिए जो उनकी जातीय अतीत गौरवशाली परंपरा का उल्लंघन न करें जो अपने मन की बात न करें, उनके मन की बात करे, जो चारण के सांचे में ढला हुआ हो, जिसके पास उनकी दी हुई क़लम हो, उनकी स्याही हो, जिसके हाथों में संतुलन से भरे विषयों की सूची हो, जिसमें कई विषय दे दिए जाएं और जिसके नीचे नियमों का उल्लेख हो कि इन नियमों में रहकर ही शायरी की जाए। तो ऐसे आलोचकों से मेरा कहना है कि फिर यह शायर, शायरी और अभिव्यक्ति को कसने के लिए एक शिकंजा है; जिसे यह आलोचक शायरों के लेखकों के हाथों में थमा देने के लिए बैठे हैं कि लो शिकंजा ख़ुद ही कस लो। यह चाहते भी यही है कि ऐसे शायरों लेखकों को कटघरे में ले लिया जाए और उन पर मनमाना मुकदमा चलाकर उन्हें किसी कैद में डाल दिया जाए, या उनकी ट्रोल लिंचिंग कर दी जाए। जबकि वास्तविकता यह है कि लेखक शायर अपने आप में स्वतंत्र, संतुलित सही, बेबाक और सच बात को रखने वाला होता है जो अपनी अभिव्यक्ति में समय समाज और सत्ता के विरुद्ध भी लिखता है और उनके लिए भी लिखता है। डॉक्टर राहत इंदौरी इसी प्रकार के एक शायर हैं जो किसी भी अर्थों में चारण नहीं और किसी के के आदेश पर कसी दूसरे की मन की बात लिखने वाले शायर हैं।

डॉ. मोहसिन ख़ान

स्नातकोत्तर हिन्दी विभागाध्यक्ष

एवं शोध निर्देशक

जे.एस.एम. महाविद्यालय,

अलीबाग-402 201

ज़िला-रायगड़-महाराष्ट्र

ई-मेल- Khanhind01@gmail.com