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गुरुवार, 23 फ़रवरी 2017

कहानी

 कांड (कहानी)
                              
                                               
 सुशांत सुप्रिय

मैं अपने भाई से मिलने कुरुक्षेत्र गया। वहीं यह कांड हो गया। वैसे यह कोई बहुत बड़ा कांड नहीं था। किसी राजनेता पर क़ातिलाना हमला नहीं हुआ था। किसी मंत्री या सांसद के अंगरक्षक नहीं मारे गए थे । कहीं कोई आतंकवादी वारदात नहीं हुई थी। न कहीं प्रकृति का क़हर ही बरपा था। घटना बहुत छोटी-सी थी। देश के इतिहास में इसका महत्त्व नगण्य ही माना जाएगा। आप कहेंगे कि ऐसी घटनाएँ तो आए दिन देश के गली-कूचों , शहरों-महानगरों में होती रहती हैं। ऐसे कांड राष्ट्रीय चिंता या शोक का विषय नहीं बनते। ऐसे कांडों के लिए देश का झंडा नहीं झुकाया जाता। ऐसे कांडों के लिए रेडियो या टी. वी. पर कोई मातमी धुन नहीं बजाई जाती। ऐसे कांडों का उल्लेख न इतिहास , न समाजशास्त्र की किसी किताब में होता है। यहाँ तक कि नीति-शास्त्र की किताबें भी ऐसे कांडों के संबंध में ख़ामोश ही रहती हैं। ये बेहद मामूली-सी, लगभग भुला दी जाने वाली घटनाएँ होती हैं क्योंकि ये आम आदमी के साथ घटी होती हैं।
            मैं भाई से मिलने कुरुक्षेत्र पहुँचा। जब स्टेशन पर रेलगाड़ी से उतरा तो रात के आठ बज रहे थे। भाई कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में व्याख्याता है। जब साढ़े आठ बजे वि. वि. परिसर में उसके आवास पर पहुँचा तो मुख्य दरवाज़े पर एक बड़ा-सा ताला मेरी प्रतीक्षा कर रहा था। पड़ोस में पूछा तो पता चला कि भाई किसी सेमिनार में भाग लेने के लिए आइ. आइ. टी. , रुड़की गया हुआ है। मैं मुश्किल में पड़ गया।
           बाद में कई लोगों ने मुझसे कहा , " यार , यदि चलने से पहले भाई को फ़ोन कर लेते तो पता चल जाता कि वह ' आउट ऑफ़ स्टेशन' है। न तुम यहाँ आते , न यह हादसा होता "
           रात के नौ बज रहे थे। वि. वि. परिसर के बाहर एक ढाबे पर मैं खाना खाने के लिए रुका । खाना खा कर मैंने चाय पी। साढ़े नौ बज गए।
           कुरुक्षेत्र छोटा-सा शहर है । यह दिल्ली नहीं है। यहाँ नौ बजते-बजते अँधेरा गाढ़ा हो जाता है। अँधेरे की अपनी प्रकृति होती है। अँधेरे में पहचाने हुए चेहरे भी अजनबी लगते हैं। दस बजते-बजते सड़क पर एक भुतहा वीरानी छा गई।
           बाद में कई लोगों ने मुझसे कहा - "अरे , भाई। वहाँ पड़ोस में ही किसी के घर रात भर के लिए रुक जाते । इस ज़माने में अजनबी शहर में रात में घूमोगे तो यही होगा।"
           काफ़ी देर इंतज़ार करने के बाद लगभग साढ़े दस बजे सड़क पर एक ऑटो-रिक्शा नज़र आया। उसमें अठारह-बीस साल के दो लड़के बैठे थे। एक ड्राइवर । दूसरा शायद उसका जानकार या मित्र। हर किसी की शक़्ल पर तो लिखा नहीं होता कि वह गुंडा-बदमाश है।
           मैंने पूछा - "स्टेशन चलोगे ?"
           वे बोले - "बैठिए, साहब।"
           आधे घंटे का रास्ता था। मैं दिन में एक-दो बार पहले भी कुरुक्षेत्र आ चुका
हूँ।  पर रात की बात और होती है। रात में अपना शहर भी पराया लगने लगता है।
           जब वे दोनों लड़के ऑटो को अनजानी गलियों में घुमाने लगे तो मुझे शक हुआ । पर जब तक मैं कुछ कर पाता , यह कांड हो गया।
           बाद में कई लोगों ने मुझसे कहा - "अरे, भाई साहब। ये दोनों लड़के आपको कहाँ-कहाँ घुमाते रहे और आपको पता ही नहीं चला। जहाँ यह कांड हुआ , वह जगह तो स्टेशन से काफ़ी दूर है। आप वहाँ कैसे पहुँच गए ?"
          दरअसल आप अपनी रोज़मर्रा की दुनिया में गुम रहते हैं। यदि आप कभी अख़बार में ऐसी घटनाओं के बारे में पढ़ते हैं या टी. वी. पर ऐसी घटनाओं की रिपोर्ट देखते हैं तो निश्चिंतता के भाव से कि ये घटनाएँ दूर कहीं किसी और के साथ घटी हैं। आप इन घटनाओं को महज़ आँकड़ों की तरह लेते हैं। आप इस ग़लतफ़हमी में रहते हैं कि ऐसी घटनाएँ आप के साथ नहीं घट सकतीं। पर एक दिन अचानक जब ऐसा ही हादसा आपके साथ भी हो जाता है तो आप इसके लिए तैयार नहीं होते। आप हतप्रभ रह जाते हैं।
         एक सूनी गली में ऑटो मोड़कर उन लड़कों ने अचानक ऑटो रोका और झटके से कूदे। न जाने कहाँ से उन्होंने एक सरिया निकाल लिया। बाद में पुलिस सब-इंस्पेक्टर ज़ोरावर सिंह जब शिनाख्त के लिए वह सरिया लेकर घर आया तो मैंने
देखा , वह पूरा लोहा था, जंग लगा , ठोस और सख़्त।
         मैं भी ऑटो की पिछली सीट से बाहर कूदा । वे दो थे। मैं एक। मैं भागा। वे मेरे पीछे भागे। चिल्लाते हुए - "रुपए-पैसे नहीं  देगा तो छोड़ेंगे नहीं।"
         बाद में कई लोगों ने मुझे कहा - "भले आदमी, आराम से रुपए-पैसे दे देते तो यह हाल तो नहीं होता।"
         वे दोनो अठारह-बीस साल के थे। मैं अड़तीस का। लगभग बीस-पच्चीस मीटर बाद उन्होंने मुझे पकड़ लिया । हम गुत्थम-गुत्था हुए। हाथा-पाई में मेरी बनियान और क़मीज़ फट गई।
         अंत में एक लड़के ने मुझे पीछे से दबोच लिया। और दूसरे ने मेरे मुँह पर सरिए से वार किया। बचाव में मैंने अपना बायाँ हाथ आगे किया। सरिए का पूरा वार कोहनी और कलाई के बीच पड़ा । हड्डी के चटखने की आवाज़ साफ़ सुनाई दी। मैं लड़खड़ा गया। और तब मेरे सिर के बीचों-बीच सरिए का एक भरपूर वार पड़ा। आँखों में किसी सुरंग का भयावह अँधेरा भरता चला गया। पीड़ा के असंख्य चमगादड़ ज़हन में एक साथ पंख फड़फड़ाने लगे। फिर शायद एक के बाद एक कई वार हुए। और मैं घुप्प अँधेरे के महा-समुद्र में किसी थके हुए तैराक-सा डूबता चला गया ...
          जब होश आया तो मैं ज़मीन पर लहुलुहान पड़ा हुआ था। सिर पर गहरे घाव थे । बायाँ हाथ सूज कर बेकार हो चुका था। इसी हालत में किसी तरह लड़खड़ाता हुआ मैं उठा और गिरते-पड़ते हुए मैंने चार-पाँच सौ मीटर की दूरी तय की। मैंने पहले मकान का दरवाज़ा खटखटाया । पर कोई बाहर नहीं आया। मैंने न मालूम कितने दरवाज़े खटखटाए । दो-चार लोगों ने दरवाज़े खोले भी पर मुझे इस हाल में देखकर
'पुलिस केस ' के डर से अपने-अपने दरवाज़े फिर बंद कर लिए।
          यह वही काली रात थी जब दिल्ली में ' निर्भया कांड ' की शर्मनाक घटना घटी थी और देश और समाज कलंकित हुआ था।
          गली के अंत में आख़िर एक मकान का दरवाज़ा मेरे खटखटाने पर खुला। किसी को मेरी हालत पर तरस आया। उसने मुझे भीतर बुलाया। पानी पिलाया । फिर पुलिस बुलाई।
          पुलिस वालों ने मुझे सरकारी अस्पताल के एमरजेंसी वार्ड में दाख़िल करा दिया । सिर पर दो जगह आठ-दस टाँके लगे। बायाँ हाथ टूट गया। प्लास्टर लगा।
एफ़. आइ. आर . हुई । मेरा बयान दर्ज़ हुआ । दोनों लड़के मेरे छह-सात हज़ार रुपये ,
मेरा मोबाइल फ़ोन, मेरी कलाई-घड़ी, यहाँ तक कि मेरे जूते भी छीन कर ले गए थे।
           अगली सुबह मैंने घर फ़ोन किया । शाम तक घर से लोग आ गए।
           अस्पताल में जितने लोग मिलने आए , सब ने कुछ-न-कुछ सलाह दी । किसी ने कहा -- " होनी को कौन टाल सकता है। चलो , भगवान का शुक्र है, जान बच
गई। पर आगे से थोड़ा सावधान रहिए।"
            किसी ने कहा - "यदि आपने ऐसा किया होता ..."
            किसी और ने कहा - "यदि वैसा हुआ होता ..."
            -- यदि मैंने चलने से पहले भाई को फ़ोन कर लिया होता ...
            -- यदि हमारे देश में ग़रीबी और बेकारी नहीं होती ...
            -- यदि मैंने उन आटो वाले लड़कों को हाथ दिखा कर नहीं रोका होता ...
            -- यदि हमारे देश के लाखों बच्चों का बचपन और लाखों युवाओं की
            जवानी दो वक़्त की रोटी जुटाने के संघर्ष में नहीं बीतती ...
            -- यदि मैंने बिना संघर्ष किए उन्हें सब कुछ चुपचाप दे दिया होता ...
            -- यदि हमारी हिंदी फ़िल्मों में सेक्स और हिंसा का घातक कॉकटेल नहीं
            होता ...
            लोगों ने त्वरित पुलिस कार्रवाई की भूरि-भूरि प्रशंसा की। एक लड़का धरा गया था। कुछ रुपया-पैसा बरामद हो चुका था। उम्मीद थी कि पहले लड़के से पूछताछ के आधार पर उसका दूसरा साथी भी जल्दी ही पकड़ लिया जाएगा ।
            " घबराने की कोई बात नहीं। हम दूसरे को भी जल्दी ही धर दबोचेंगे" --सब-इंस्पेक्टर ज़ोरावर सिंह ने मूँछों पर ताव देते हुए मुझे कहा।
            "अब आप हमारे गवाह हैं। अदालत में गवाही देने के लिए तैयार रहना। लूट-पाट और जानलेवा हमला का मामला बनता है। हम इस कांड के लिए इन बदमाशों को सजा दिला कर छोड़ेंगे" ज़ोरावर सिंह ने बहुत सारे काग़ज़ों पर मुझ से दस्तख़त कराते हुए मुझे कहा ।
            पर मैं इस सब से बहुत उत्साहित नहीं हूँ। न जाने क्यों मुझे लगता है कि वे दोनों लड़के नहीं होते तो कोई और होते। कुरुक्षेत्र नहीं होता तो कोई और जगह होती। मैं नहीं होता तो शायद आप होते। केवल उन दोनों को सजा हो जाने से क्या फ़र्क़ पड़ेगा। जब तक समाज में वे कारण मौजूद रहेंगे जो अठारह-बीस साल के लड़कों को अपराधी बना देते हैं, अपराधी बनते रहेंगे , ऐसे कांड होते रहेंगे। क्या आप ऐसा नहीं सोचते?

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लेखक- सुशांत सुप्रिय
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            गौड़ ग्रीन सिटी, वैभव खंड, इंदिरापुरम ,
            ग़ाज़ियाबाद - 201014 ( उ. प्र . )
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