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बुधवार, 2 अप्रैल 2014

ग़ज़ल

सच्ची झूटी बातों का असर जानता है ।
आप के इरादों को बाख़बर जानता है ।

मसीहा न बनाओ वो क़ातिल है लोगों,
कब कहाँ फैलाना है क़हर जानता है ।

पहने हैं उसने मुखौटे हर वक्त नए-नए,
लिबासों को बदलने का हुनर जानता है ।

बुझ गई प्यास बस तुम्हें इतना है पता,
घोलना है किस वक्त ज़हर जानता है ।

फैलाकर फंदे डालकर दाना छुप गया है,
किस परिंदे की है बारी शजर जानता है ।

डालकर जाल इतमिनान से सो जाता है,
कहाँ फँसेंगी मछलियाँ लहर जानता है ।

'तन्हा' बदलता रहा करवटें रात भर,
मेरा दर्द बस मेरा बिस्तर जानता है।

             
मोहसिन 'तन्हा'
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दौर है चुनावों का तो कितने होशियार हैं।
पूछते हैं पास तुम्हारे कितने हथियार हैं।

लो मेंढकों को भी अब क़त्ल का हुआ डर,
सोचते हैं जंगल में हम ही एक शिकार हैं।

सरहद की  हिफ़ाज़त  में बहाया है लहू,
हम न तुम्हारी तरह मुल्क़ के ग़द्दार हैं।

आज माँगा है हिसाब तो सब चुकाते हैं,
तुम पर तो  हमारे कितने ही उधार हैं।

'तन्हा' लेता है सांसें ज़हरीली फ़िज़ाओं में,
कैसे हो तीमारदारी यहाँ तो सब बीमार हैं।

                 मोहसिन 'तन्हा'
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क्यों उन्मादियों में फैला हिन्दुत्व का सुरूर है।
गर मैं मुसलमान हूँ तो मेरा क्या क़ुसूर है।

ये जो घोल रहे हैं दिलों में नफ़रतों का ज़हर,
दरिंदों की दरिंदगी का ही बस फ़तूर है।

किसी मज़हब की रवायत से क्यों हो एतिराज़,
तरीक़े हैं जुदा पर इंसानियत तो ज़रूर है।

पढ़ो इतिहास और शहीदों की फ़ेहरिस्त भी,
फ़िर कैसे मेरी कौम मुल्क़ के लिए नासूर है।

क़ायम होता हो अम्न और ख़ुलूस मुल्क़ में,
तो हो जाए जिस्मों जाँ क़ुर्बान मुझे ग़ुरूर है।

'तन्हा' का अहद है लड़ता रहेगा तबतक,
जबतक इस दुनिया में क़ायम फ़ज़ूर है।

            मोहसिन 'तन्हा'